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जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
ध्यान में स्थित रहूँगा ।" " इस प्रकार सावद्ययोग के वर्जन हेतु सामायिक प्रशस्त उपाय एवं आध्यात्मिक प्रक्रिया है । २
सामायिक करते समय श्रावक और श्रमण समान
मूलाचारकार ने लिखा है एकाग्र मन से सामायिक करने वाला श्रावक भी श्रमण सदृश होता है, अतः श्रमणों को और भी स्थिरतापूर्वक अतिशय सामायिक करना चाहिए । हिंसा आदि दोषयुक्त गृहस्थधर्म को जघन्य अर्थात् संसार का कारण समझकर बुद्धिमान् को आत्महितकारी इस प्रशस्त उपायरूप सामायिक का पालन करना चाहिए ।
कथानक
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एक कथानकं द्वारा ग्रन्थकार ने सामायिक की महत्ता इस प्रकार बताई - किसी वन में सामायिक करते हुए एक श्रावक के पास बाण से बिद्ध (आहत) हिरण आया तथा थोड़ी ही देर बाद वह वही मर गया, किन्तु वह श्रावक भी संसारदोष दर्शन के बावजूद सामायिक संयम से विचलित नहीं हुआ । इस कारण श्रावक की अपेक्षा मुनि को और भी तत्परता से सामायिक करना चाहिए ।
उपर्युक्त उल्लेखों से यह भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल में श्रावकों को सामायिक मुनियों की तरह आवश्यक कर्म के रूप में नित्य प्रति करने का विधान रहा है ।
विभिन्न तीर्थंकरों के तीर्थ में सामायिक तथा छेदोपस्थापना चारित्र -
चारित्र के पाँच भेद हैं- सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात- ये चारित्र के पाँच भेद हैं । इनमें से प्रारम्भ के दो भेदों को लेकर विभिन्न तीर्थंकरों के तीर्थ में सामान्य भेद है । वस्तुतः अभेद रूप से सम्पूर्ण सावद्ययोग के त्यागपूर्वक अवधृत-नियतकाल में होने वाला
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आवश्यक सूत्र प्रथम सामायिक अध्ययन तथा जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग २ पृ० १७४ ।
सावज्जजोग परिवज्जणङ्कं सामाइयं केवलिहिं पसत्थं — मूलाचार ७/३३ । सामाइयम्हि दु कदे समणो किर सावओ हवदि जम्हा ।
एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा ।। मूलाचार ७/३४ गिहत्थधम्मोऽपरमत्ति णच्चा कुज्जा बुधो अप्पहियं पसत्थं — मूलाचार ७/३३ सामाइए कदे सावएण विद्धो गओ अरणाि ।
सो य मओ उद्धादो ण य सो सामाइयं फिडिओ | मूलाचार ७/३५
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