Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 222
________________ आवश्यकनियुक्तिः १५७ (५) काल सामायिक-पावस, वर्षा, हेमन्त, शिशिर, वसन्त तथा ग्रीष्म-इन छह ऋतुओं, रात-दिन, कृष्ण-शुक्ल पक्ष आदि काल विशेषों में राग-द्वेष रहित होना काल सामायिक है ।' (६) भाव सामायिक-समस्त जीवों के प्रति अशुभ-परिणामों का त्याग एवं मैत्री भाव-धारण करना भाव सामायिक है । सम्पूर्ण कषायों का निरोध तथा मिथ्यात्व को दूरकर छह द्रव्य विषयक निर्बाध, अस्खलित ज्ञान को भी भाव सामायिक कहते हैं । सामायिक करने की विधि और समय-मूलाचारकार ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक अंजुलि को मुकुलित करके (अंजुलिपूर्वक हाथ जोड़कर) स्वस्थ बुद्धि से स्थित होकर अथवा एकाग्र-मनपूर्वक आकुलता अर्थात् उलझन रूप विकार रहित मन से आगमानुसार क्रम से भिक्षु को सामायिक करने का निर्देश है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक सामायिक में बैठना चाहिए । पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न-इन तीन कालों में छह-छह घड़ी सामायिक करना चाहिए । ___जयधवला के अनुसार तीनों ही सन्ध्याओं का पक्ष और मास के सन्धि दिनों में या अपने इच्छित समय में बाह्य और अन्तरंग सभी कषायों का निरोध करके सामायिक करना चाहिए ।' अर्धमागधी परम्परा के “आवश्यक नियुक्ति” में कहा गया है कि- "मैं सामायिक करता हूँ, यावज्जीवन सब प्रकार के सावद्ययोग का प्रत्याख्यान करता हूँ, उससे निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, अपने आपका त्याग करता हूँ । मैंने दिन भर में यदि व्रतों में अतिचार लगाया हो, सूत्र अथवा मार्ग के विरुद्ध आचरण किया हो, दुर्ध्यान किया हो, श्रमणधर्म की विराधना की हो तो वह सब मिथ्या हो । जब तक मैं अर्हन्त भगवान् के नमस्कार मन्त्र का उच्चारण कर कायोत्सर्ग न करूँ, तब तक मैं अपनी काया को एक स्थान पर रखूगा, मौन रहूँगा, १-२. मूलाचारवृत्ति १/१७ । ३. पडिलिहियअंजलिकरो उपजुत्तो उठ्ठिऊण एयमणो । अव्वाखित्तो वुत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू । मूलाचार ७/३९. ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३५२, ३५४ । ५. कसाय पाहुड जयधवला १/१/१/८१, पृष्ठ ९८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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