________________
आवश्यकनियुक्तिः
तपःपूर्वकं सामायिकमाहविरदो सव्वसावज्जं तिगुत्तो पिहिदिदिओ । जीवो सामाइयं णाम संजमट्ठाणमुत्तमं ।।२३।। - विरत: सर्वसावधं त्रिगुप्तः पिहितेंद्रियः । . .
जीव: सामायिकं नाम संयमस्थानमुत्तमं ॥२३॥ सर्वसावद्याद्यो विरतस्त्रिगुप्तः, पिहितेन्द्रियो निरुद्धरूपादिविषयः, एवंभूतो जीवः सामायिकं संयमस्थानमुत्तमं जानीहि जीवसामायिकसंयमयोरभेदादिति ॥२३॥
भेदं च प्राहजस्स सण्णिहिदो अप्या संजमे णियमे तवे । तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे ।।२४।।
यस्य संनिहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि । '
तस्य सामायिकं तिष्ठति इति केवलिशासने ॥२४॥ यस्य सन्निहित: स्थित: आत्मा । क्व, संयमे नियमे तपसि च तस्य सामायिकं तिष्ठति । इत्येवं केवलिनां शासनं एवं केवलिनामाज्ञा शिक्षा वा । अथवास्मिन् केवलिशासने जिनागमे तस्य सामायिकं तिष्ठतीति ॥२४॥
गाथार्थ–सर्व सावध से विरत, तीन गुप्ति से गुप्त, जितेन्द्रिय जीव संयमस्थान रूप उत्तम सामायिक नाम को प्राप्त होता है ॥२३॥
आचारवृत्ति-जो मुनि सर्व पापयोग से विरत हैं, तीन गुप्ति से सहित हैं, रूपादि विषयों में इन्द्रियों को न जाने देने से जो जितेन्द्रिय हैं ऐसे संयत जीव को ही संयम के स्थानभूत उत्तम सामायिक रूप समझो । क्योंकि जीव और सामायिक संयम में अभेद है अर्थात् जीव के आश्रय में ही सामायिक संयम पाया जाता है । यहाँ अभेदरूप से सामायिक का प्रतिपादन हुआ है ॥२३॥
गाथार्थ-जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में स्थित है, उसके सामायिक रहता है ऐसा केवली के शासन में कहा है ॥२४॥
आचारवृत्ति-जिनकी आत्मा संयम आदि में लगी हुई है उसके ही सामायिक होता है, इस प्रकार. केवली भगवान् का शासन है अर्थात् केवली भगवान् की आज्ञा है अथवा उनकी शिक्षा है । अथवा केवली भगवान् के इस शासन में अर्थात् जिनागम में उसी जीव के सामायिक होता है ऐसा अभिप्राय समझना ॥२४॥ आगे समताभाव पूर्वक भेद के द्वारा सामायिक कहते हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org