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आवश्यकनियुक्तिः
संवत्सरोत्तमार्थविषयजातापराधानां गुर्वादिभ्यो निवेदनं सप्तप्रकारमालोचनं वेदितव्यमिति ॥११८॥
आलोचनीयमाहअणाभोगकिदं कम्मं जं किंवि मणसा कदं । तं सव्वं आलोचेज्जहु' अव्वाखित्तेण चेदसा ।।११९।।
अनाभोगकृतं कर्म यत् किमपि मनसा कृतं ।
तत् सर्वं आलोचयेत् अव्याक्षिप्तेन चेतसा ॥११९॥ आभोगः सर्वजनपरिज्ञातव्रतातीचारोऽनाभोगो न परैतिस्तस्मादनाभोगकृतं कर्माऽऽभोगमन्तरेण कृतातीचारस्तथाभोगकृतश्चातीचारश्च तथा यत्किञ्चिन्मनसा च कृतं कर्म तथा कायवचनकृतं च तत्सर्वमालोचयेत् यत्किञ्चिदनाभोगकृतं कर्माभोगकृतं कायवाङ्मनोभिः कृतं च पापं तत्सर्वमव्याक्षिप्तचेतसाऽनाकुलितचेतसाऽऽलोचयेदिति ॥११९॥
अर्थात् दिवस, रात्रिक, ईर्यापथ, चातुर्मास, वर्ष और उत्तमार्थ-इनके, इन विषयक हुए अपराधों को गुरु आदि के समक्ष सात प्रकार की निवेदन रूप आलोचना होती है ॥११८॥
आलोचना करने योग्य क्या है ? सो बताते हैं
गाथार्थ जो कुछ भी मन के द्वारा कृत अनाभोगकर्म है, मुनि विक्षेप रहित चित्त से उन सबकी आलोचना करें ॥११९।। _ आचारवृत्ति-सभी जनों के द्वारा जाने गए व्रतों के अतीचार आभोग हैं और जो अतीचार. पर (दूसरे) के द्वारा अज्ञात हैं वह अनाभोग हैं । यह अनाभोगवृत कर्म और आभोगवृत्त भी कर्म तथा मन से किया गया दोष, वचन, और काय से भी किया गया दोष-ऐसा जो कुछ भी दोष है, अर्थात् अपने व्रतों के अतिचारों के चाहे दूसरे जान चुके हों या नहीं जानते हों ऐसे आभोगकृत
* यह गाथा फलटन से प्रकाशित मूलाचार की प्रति में अधिक है
आलोचिय अवराहं ठिदिओ सुखो तुट्ठमणो ।
पुणरवि तमेव जुज्जइ तोसत्यं होई पुणरुतं ।। अर्थ-खड़े होकर गुरु के समीप अपराधों का निवेदन करके मैं शुद्ध हुआ-ऐसा समझकर जो आनन्दित हुआ है, ऐसा वह आलोचक यदि पुन: आनन्द के लिए उसी दोष की आलोचना करता है तो वह आलोचना पुनरुक्त होती है। १. अ. ब. कदं ।
२. क आलोचज्जाहु । ३. क कुलचित्तेनवालो० ।
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