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आवश्यकनियुक्तिः
कायोत्सर्गस्य भेदानाहउद्विदउट्ठिद उद्विदणिविट्ठ उवविट्ठउट्ठिदो चेव । उवविठ्ठणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो ।।१७२।। __ उत्थितोत्थित उत्थितनिविष्ट उपविष्टोत्थितश्चैव ।
उपविष्टनिविष्टोपि च कायोत्सर्गः चतुःस्थानः ॥१७२॥ उत्थितश्चासावुत्थितश्चोत्थितोत्थितो महतोऽपि महान्, तथोत्थितनिविष्टः पूर्वमुत्थितः पश्चान्निविष्ट उत्थितनिविष्टः, कायोत्सर्गेण, स्थितोप्यसावासीनो द्रष्टव्यः । उत्थितः, उपविष्टो भूत्वा स्थितो आसीनोऽप्यसौ कायोत्सर्गस्थश्चैव । तथोपविष्टोऽपि चासावासीनः । एवं कायोत्सर्गः चत्वारि स्थानानि यस्यासौ चतुःस्थानश्चतुर्विकल्प इति ॥१७२।।
उक्तं च (अमितगतिश्रावकाचारे-उपासकाचारे ८/५७-६१)त्यागो देहममत्वस्य तनूत्सृतिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादिविभेदेनं चतुर्विधा ॥१॥ आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपविष्टोपवष्टाख्या कथ्यते सा तनूत्सृतिः ॥२॥ धर्मशुक्लद्वयं यत्रोपविष्टेन विधीयते । तामुपविष्टोत्थितांकां निगदंति महाधियः ॥३॥
कायोत्सर्ग के चार भेद कहते हैं
गाथार्थ-उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्टनिविष्ट-ऐसे चार भेदरूप कायोत्सर्ग होता है ॥१७२।।
आचारवृत्ति-१. उत्थितोत्थित-दोनों प्रकार से खड़े होकर जो कायोत्सर्ग होता है अर्थात् जिसमें शरीर से भी खड़े हुए हैं और परिणाम (भाव) भी धर्म या शुक्ल ध्यान रूप हैं, यह कायोत्सर्ग महान् से भी महान् है । २. पूर्व में अत्थित और पश्चात् निविष्ट अर्थात् कायोत्सर्ग में शरीर से तो खड़े है फिर भी भावों से बैठे हुए हैं । (अर्थात् आर्त या रौद्रध्यान रूप भाव कर रहे हैं ) इनका कायोत्सर्ग उत्थित-निविष्ट कहलाता है। ३. जो बैठे हुए भी खड़े हुए हैं, (अर्थात् बैठकर पद्यासन से कायोत्सर्ग करते हुए भी जिनके परिणाम उज्जवल है) उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्टोत्थित है । ४. तथा जो शरीर से भी बैठे हुए हैं और भावों से भी, उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्टनिविष्ट कहलाता है ।
इस तरह कायोत्सर्ग के चार विकल्प (भेद) हैं ॥१७२।।
१. क ०विष्टनिविष्टोऽपि चासावासीनादप्यासीनः । २. क० धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते ।
तामासीनोत्थितां लक्ष्मां निगदन्ति महाधियः ।
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