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आवश्यक नियुक्तिः
उपविष्टोपविष्टकायोत्सर्गस्य लक्षणमाह
अट्ठ रुद्दं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु । सो काओसग्गो सिण्णिदणिसण्णिदो णाम ।। १७६।। आर्तं रौद्रं च द्वे ध्यायति ध्याने यः निषण्णस्तु । एष कायोत्सर्गः निषण्णितनिषण्णितो नाम ॥ १७६ ॥
आर्तध्यानं रौद्रध्यानं च द्वे ध्याने यः पर्यंककायोत्सर्गेण स्थितो ध्यायति तस्यैष कायोत्सर्ग उपविष्टोपविष्टो नाम ॥ १७६ ॥
कायोत्सर्गेण स्थितः शुभं मनः संकल्पं कुर्यात् परन्तु कः शुभो मन:संकल्प इत्याह
दंसणणाणचरित्ते उवओगे संजमे विउस्सग्गे । पच्चक्खाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु ।। १७७।। दर्शनज्ञानचारित्रे उपयोगे संयमे व्युत्सर्गे ।
प्रत्याख्याने करणेषु प्रणिधाने तथा च समितिषु ॥ १७७॥
दर्शनज्ञानचारित्रेषु यो मनः संकल्प उपयोगे ज्ञानदर्शनोपयोगे यश्चित्तव्यापारः संयमविषये यः परिणामः कायोत्सर्गस्य हेतोर्यत् ध्यानं प्रत्याख्यानग्रहणे यः परिणामः करणेषु पंचनमस्कारषडावश्यकासिकानिषद्यकाविषये शुभयोगस्तथा प्रणिधानेषु धर्मध्यानादिविषयपरिणामः समितिषु समितिविषयः परिणामः ॥१७७॥
३. उपविष्टोत्थित का लक्षण कहते हैं
गाथार्थ—जो बैठे हुए धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानों को ध्याते हैं उनका यह कायोत्सर्ग उपविष्टोस्थित नाम वाला है || १७५ ।।
४. उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्ग का लक्षण कहते हैं
गाथार्थ — जो बैठे हुए ध्यान में आर्त और रौद्र का ध्यान करते हैं उनका यह कायोत्सर्ग उपविष्टोपविष्ट नाम वाला है ॥१७६॥
कायोत्सर्ग में स्थित मुनि शुभ मनः संकल्प करें, तो पुनः शुभ मनः संकल्प क्या है ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ – दर्शन, ज्ञान, चारित्र में उपयोग में, में, प्रत्याख्यान में, क्रियाओं में, प्रणिधान (धर्मध्यानादि समितियों में ॥ १७७॥
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विद्या, आचरण, महाव्रत, समाधि, गुण और ब्रह्मचर्य में, छह जीवकायों में, क्षमा, निग्रह, आर्जव, मार्दव, मुक्ति, विनय तथा श्रद्धान में - ॥ १७८ ॥
संयम में, व्युत्सर्ग
परिणाम ) में तथा
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