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१५४ जैन श्रमण के षड्- आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
तरह विरोधी के प्रति भी समभाव की सुगन्ध अर्पित करने वाले महात्माओं को तो सामायिक मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट अंग है ।"
त्रस व स्थावर आदि सभी प्राणियों में जो समभाव युक्त है? राग और द्वेष जिसके मन में विकार उत्पन्न नहीं करते, जिसने क्रोध, मान, माया और लोभइन चार कषायों आदि को सम्पूर्ण रूप में जीत लिया है उसके स्थायी सामायिक होता है - ऐसा केवली जिनेन्द्र भगवान् के शासन में कहा गया है । इसीलिए सावद्ययोग (असत्प्रवृत्ति) का वर्जन करने के उद्देश्य से जिनेन्द्र भगवान् ने सामायिक को प्रशस्त उपाय बताया है ।
सामायिक के भेद - आगमों विशेषकर नियुक्तियों में किसी भी विषय यावस्तु के विवेचन का निक्षेप पूर्वक कथन करने का विधान है। इससे अप्रकृत का निराकरण होकर प्रकृत का निरूपण होता है । इस दृष्टि से नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव — ये सामायिक के छह निक्षेप दृष्टि से भेद हैं ।" क्योंकि निक्षेप दृष्टि से सामायिक के विषय में इन छह का आलम्बन किया जा है ।
इनका स्वरूप इस प्रकार है
(१) नाम सामायिक — शुभ, अशुभ नाम सुनकर राग-द्वेष न करना नाम सामायिक है । सामायिक में स्थित श्रमण को चिन्तन करना चाहिए कि कोई मेरे विषय में शुभाशुभ शब्दों का प्रयोग करता है तो उसमें रति- अरति (राग-द्वेष) करने का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि शब्द मेरा स्वरूप नहीं है । ७
(२) स्थापना सामायिक - शुभ-अशुभ आकारयुक्त प्रमाण- अप्रमाण युक्त अवयवों से पूर्ण-अपूर्ण, तदाकार - अतदाकार स्थापित मूर्तियों में राग-द्वेष न करना स्थापना सामायिक है ।
(३) द्रव्य सामायिक – सोना, चाँदी, मोती, माणिक, मिट्टी, लकड़ी, लोहा, काँटे, पत्थर तथा अन्यान्य सचित्त और अचित्त द्रव्यों के प्रति समदृष्टि होना अर्थात् राग-द्वेष न करना द्रव्य सामायिक है ।" आचार्य वसुनन्दि ने द्रव्य सामायिक के निम्नलिखित भेदों का उल्लेख किया है -
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१.
२.
३.
४.
५.
. ७.
अष्टक प्रकरण (आ० हरिभद्र) २९ / १ ।
जो समोसव्वभूदेसु तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे । मूलाचार ७/२५.
वही ७/२६, २७ ।
सावज्जजोगपरिवज्जणट्टं सामाइयं केवलिहिं पसत्थं - मूलाचार ७/३.३ ।
६.
मूलाचार वृत्ति ७/१७ । ८-१०. मूलाचार वृत्ति ७/१७ ।
वही ७ /१७ ।
अनगार धर्मामृत ८/२१ ।
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