Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 217
________________ १५२ जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन निक्षेपादान और प्रतिष्ठापनिका । ३. पाँच इन्द्रिय निग्रह-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन । ४. छह आवश्यक-सामायिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ।। ५. शेष सात मूलगुण-केशलोच, आचेलक्य (नग्नता या दिगम्बरवेष), अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण, स्थितभोजन और एकभक्त (खड़े होकर दिन में मात्र एकबार यथा-समय करपात्र में आहार ग्रहण करना) । ___पूर्वोक्त अट्ठाईस मूलगुणों में आवश्यक के छह भेद भी द्रष्टव्य हैं । अर्धमागधी श्वेताम्बर परम्परा के इन छह आवश्यकों में पंचम कायोत्सर्ग और षष्ठ प्रत्याख्यान का क्रम है । यद्यपि मूलाचार की तरह श्वेताम्बर जैन श्रमणों के लिए ये निर्धारित अट्ठाईस मूलगुण निर्धारित तो नहीं है, किन्तु महाव्रत, समिति, गुप्ति एवं छह आवश्यक-ये सब तथा अन्यान्य नियमों का पालन तो इन दिगम्बर-श्वेताम्बर सभी जैन मुनियों को अनिवार्य है ही । इतना ही नहीं, ये छह आवश्यक तो दोनों परम्पराओं के श्रमणों और श्रावकों के लिए अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार प्रतिदिन आवश्य-करणीय बतलाया गया है । पूर्वोक्त छह आवश्यकों का क्रमशः स्वरूप-विवेचन प्रस्तुत है१. सामायिक आवश्यक सामायिक का स्वरूप-प्रथम आवश्यक को मूलाचारकार ने समता (समदा) और सामायिक (सामाइय)-इन दोनों नामों से उल्लिखित किया है । जीवन-मरण, लाभ-हानि, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु, सुख-दुःख आदि में रागद्वेष न करके समभाव रखना समता है । इस प्रकार के भाव को सामायिक कहते हैं । अपराजितसूरि ने कहा है जिसका मन 'सम' है वह समण तथा समण का भाव 'सामण्ण' (श्रामण्य) है । किसी भी वस्तु में राग-द्वेष का अभाव रूप समता ‘सामण्ण' है । सामण्ण को ही समता कहते हैं, वही सामायिक है । वस्तुत: सावधयोग (असत् प्रवृत्तियों) से निवृत्ति को सामायिक कहते हैं । १. २. ३. सामाइय चउवीसत्थव वंदणयं पडिक्कमणं । पच्चक्खाणं च तहा काउस्सग्गो हवदि छट्ठो ।। मूला० आवश्यक नियुक्ति गाथा १५ । मूलाचार १/२२, ७/१५ ।। (क) जीविदमरणे लाभालाभे संजोयविप्पओगे य । बंधुरिसुहदुक्खादिसु समदा सामाइयं णाम ।। मूलाचार १/२३, (ख) “समदा' समभाव: जीवितमरणलाभालाभसंयोगविप्रयोगसुखदुःखादिषु रागद्वेषयोर करणं-भगवती आराधना वि. टीका गाथा ७० । समणो समानमणो समणस्स भावो सामण्णं क्वचिदप्यननुगतरागद्वेषता समता सामण्णशब्देनोच्यते । अथवा सामण्णं समता । वही गाथा ७१ । ४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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