________________
परिशिष्ट
जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक
अध्ययन
आवश्यक का स्वरूप
जैन परम्परा में श्रमण (मुनि या साधु) के आचार के अन्तर्गत षड्आवश्यक क्रियाओं का बहुत ही महत्त्व है । आध्यात्मिक विकास के लिए प्रतिदिन अवश्य-करणीय क्रियाओं एवं कर्तव्यों को आवश्यक (आवस्सय) कहते हैं । “अवश' शब्द का सामान्य अर्थ है अकाम, अनिच्छु, स्वतन्त्र', रागद्वेषादि तथा इन्द्रियों की पराधीनता से रहित होना । तथा ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति की नित्य अवश्यकरणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं । इसीलिए आचार्य वट्टकेर ने कहा है-“ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा" (आ.नि. १४) अर्थात् जो राग-द्वेष आदि विकारों के वशीभूत नहीं होता, वह 'अवश' है तथा उस अवश का आचरण या कर्तव्य आवश्यक कहलाता है । - आचार्य कुन्दकुन्द ने भी यही बात कही है । साथ ही यह भी कह दिया कि यह आवश्यक, कर्मों का विनाशक, योग और निर्वाण (निवृत्ति) का मार्ग तो है ही, साथ ही ये आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराते हैं । आचार्य जिनभद्रगणि ने "आवश्यक" शब्द के पर्यायवाची दस नामों का उल्लेख किया हैआवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुव, निग्रह, विशुद्धि, षडध्ययन, वर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग । आवश्यक के भेद
मूलाचार में श्रमण को दीक्षा के समय जिन अट्ठाईस मूलगुणों को धारण करना आवश्यक होता है, उनमें छह आवश्यक भी हैं। .. अट्ठाईस मूलगुण इस प्रकार हैं-१. पाँच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । २. पाँच समिति-ईर्या, भाषा, एषणा,
१. २.
पाइअ-सद्द-महण्णवो-पृष्ठ ८३ । जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं मणंति आवासं । कम्मविणासणजोगो णिव्बुदिमग्गो त्ति णिज्जुत्तो । नियमसार १४१॥ आवस्सयं अवस्सं करणिज्जं धुवनिग्गहो विसोही य । अज्झयणछक्कवग्गो नाओ आराहणा मग्गो ॥ विशेषावश्यक भाष्य. ८७२॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org