Book Title: Aavashyak Niryukti
Author(s): Fulchand Jain, Anekant Jain
Publisher: Jin Foundation

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Page 218
________________ आवश्यकनियुक्तिः १५३ सामायिक की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या करते हुए केशववर्णी ने लिखा है'सम' अर्थात् एकत्वरूप से आत्मा में 'आय' अर्थात् आगमन को समाय कहते हैं । इस दृष्टि से परद्रव्यों से निवृत्त होकर आत्मा में प्रवृत्ति का नाम समाय है । अथवा 'सं' या सम–अर्थात् राग-द्वेष से अवाधित मध्यस्थ आत्मा में 'आय' उपयोग की प्रवृत्ति समाय है । यह प्रयोजन जिसका है वह सामायिक है । इसी प्रकार अनगारधर्मामृत में भी कहा है-समाये भव: सामायिकम्-अर्थात् समराग-द्वेष-जनित इष्ट-अनिष्ट की कल्पना से रहित जो 'आय' अर्थात् ज्ञान है वह समाय है, उस समाय में होने वाला भाव सामायिक है ।२। ये सामायिक शब्द के निरुक्तार्थ हैं तथा समता में परिणत होना वाच्यार्थ है । मूलाचारकार के अनुसार सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप-इनके द्वारा प्रशस्त रूप से आत्मा के साथ समगमन अर्थात् ऐक्यभाव का होना समय है । इसी समय को सामायिक कहते हैं । अर्थात् इन क्रियाओं से परिणत आत्मा ही सामायिक है। उद्देश्य-इस प्रकार जब साधक सावधयोग से विरत होकर षट्काय के जीवों के प्रति संयत होता है, मन-वचन-काय को एकाग्र करता है, स्व-स्वरूप में उपयुक्त है, यतना में विचरण करता है उस आत्मा का नाम सामायिक है। उत्तराध्ययनसूत्र के एक प्रश्नोत्तर में कहा है-जीव को सामायिक से क्या प्राप्त होता है ? इसके उत्तर में कहा है-सामायिक से जीव सावध योगों (असत् प्रवृत्तियों) से विरति को प्राप्त होता है ।' . वस्तुत: आत्मोत्कर्ष जैसे उत्तम उद्देश्य की प्राप्ति हेतु समभाव की अत्यन्त आवश्यकता होती है । क्योंकि समभाव का अभ्यास किये बिना ध्यान नहीं होता, ध्यान के बिना निश्चल समत्व की प्राप्ति नहीं होती, अत: समभाव और ध्यान का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं और घटक भी । जिस प्रकार चन्दन अपने काटनेवाले को भी सुगन्धित कर देता है, उसी १. गोम्मटसार जीवकाण्ड जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका गाथा ३६८ । अनगारधर्मामृत टीका–१८/१९ । सम्मत्तणाणसंजमतवेहिं जं तं प्रसत्थसमगमणं । समयंतु तं तु भणिदं तमेय सामाइयं जाण ।। मूलाचार ७/१८ । आवश्यक नियुक्ति १४९ । उत्तराध्ययन २९/८ । न साम्येन बिना ध्यानं न ध्यानेन बिना च तत् । निष्कम्म जायते तस्माद् द्वयमन्योन्यकारणम् ।। योगशास्त्र (आ० हेमचन्द्र) ४/११४. ४. ५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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