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आवश्यकनियुक्तिः
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षडावश्यकचूलिकामाहसव्वावासणिजुत्तो णियमा सिद्धोत्ति होइ णायव्यो । अह णिस्सेसं कुणदि ण णियमा आवासया होति ।।१८३।। सर्वावश्यकनियुक्ति: नियमात्
। सिद्ध इति भवति ज्ञातव्यः । अथ निश्शेषाणि करोति
न नियमाद् आवासका भवंति ॥१८३॥ आवश्यकानां फलमाह-अनया गाथया सर्वैरावश्यकैर्नियुक्तः सम्पूर्णैरस्खलितैः समताद्यावश्यकैरुद्युक्त: परिणतो नियमात् निश्चयेन सिद्ध इति भवति ज्ञातव्यो 'भाविनिवर्तमानबहुप्रचारोऽन्तर्मुहूर्तादूर्ध्वं सिद्धो भवति, अथवा सिद्ध एवं सर्वावश्यकैर्युक्तः सम्पूर्णो नान्य इति, अथ पुनः शेषात् स्तोकात् निर्गतानि निःशेषाणि न स्तोकरहितानि सावशेषाणि न सम्पूर्णानि करोत्यावश्यकानि तदा तस्य नियमात्रिश्चयात् आवासका: स्वर्गाद्यावासा भवन्ति, तेनैव भवेन न मोक्षः स्यादिति यदि सविशेषानियमात्करोति तदा तु सिद्धः कर्मक्षयसमर्थ: स्यात्, अथ निर्विशेषानियमाच्छैथिल्यभावेन करोति तदा तस्य यतेनियमाः समतादिक्रिया
आगे षडावश्यक-चूलिका (षडावश्यक पालन का फल) कहते हैं__गाथार्थ—सर्व आवश्यकों से परिपूर्ण हुए मुनि नियम से सिद्ध हो जाते हैं, ऐसा जानना । जो परिपूर्ण रूप नहीं करते हैं वे नियम से स्वर्गादि में आवास करते हैं ॥१८३।। _ आचारवृत्ति-आवश्यक क्रियाओं का फल कहते हैं जो सम्पूर्ण अस्खलित रूप से समता आदि छहों आवश्यकों से परिणत हो चुके हैं, वे निश्चय से सिद्ध होते हैं । अर्थात् यहाँ भावी में वर्तमान का बहुप्रचार-उपचार है क्योंकि वे मुनि अंतर्मुहुर्त के ऊपर सिद्ध हो जाते हैं, अथवा सिद्ध ही सर्व आवश्यकों से युक हैं-सम्पूर्ण हैं, अन्य कोई नहीं । पुन: जो निःशेष आवश्यकों को नहीं करते हैं वे निश्चय से स्वर्ग आदि में ही आवास करने वाले हो जाते हैं । उसी भव से उन्हें मोक्ष नहीं हो पाता, ऐसा अभिप्राय है ।
१. २. ३.
क० भाविनि भूतवदुपचारः अन्त । क. न सम्पूर्णानि । क. 'कात् स्वर्गादौ निवासो भावति ।
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