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आवश्यकनियुक्तिः
कृतिकर्म औपचारिकः विनय: तथा ज्ञानदर्शनचारित्रे । ..
पंचविधविनययुक्तं विनयशुद्धं भवति तत्तु ॥१३९।। कृतिकर्म सिद्धभक्तियोगभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गकरणं, पूर्वोक्त: औपचारिकविनयः कृतकरमुकुलललाटपट्टविनतोत्तमांगः प्रशांततनुः पिच्छिकया विभूषितवक्ष इत्याधुपचारविनयः, तथा ज्ञानदर्शनचारित्रविषयो विनय:, एवं क्रियाकर्मादिपञ्चप्रकारेण विनयेन युक्तं विनयशुद्धं तत्प्रत्याख्यानं भवत्येवेति ॥१३९।।
अनुभाषायुक्तं प्रत्याख्यानमाहअणुभासदि गुरुवयणं अक्खरपदवंजणं कमविसुद्धं । घोसविसुद्धी सुद्धं एवं अणुभासणासुद्धं ।।१४०।।
अनुभाषते गुरुवचनं अक्षरपदव्यंजनं क्रमविशुद्धं ।
घोषविशुद्धया शुद्धमेतत् अनुभाषणाशुद्धं ॥१४०॥ . . अणुभासदि अनुभाषते अनुवदति गुरुवचनं गुरुणा यथोच्चारिता प्रत्याख्यानाक्षरपद्धतिस्तथैव तामुच्चरतीति, अक्षरमेकस्वरयुक्तं व्यञ्जनं, इच्छामीत्यादिकं
इनमें से प्रथम विनय प्रत्याख्यान कहते हैं
गाथार्थ—कृतिकर्म, औपचारिक-विनय, तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में विनय, जो इन पंच-विध विनय से युक्त है वह विनय-शुद्ध प्रत्याख्यान है ॥१३९॥
आचारवृत्ति-सिद्ध-भक्ति, योग-भक्ति और गुरु-भक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग करना कृतिकर्म विनय है । औपचारिक विनय का लक्षण पहले कह चुके हैं अर्थात् हाथों को मुकुलित कर ललाट पट्ट पर रख मस्तक को झुकाना, प्रशांत शरीर होना, पिच्छिका से वक्षस्थल भूषित करना, पिच्छिका सहित अंजुली जोड़कर हृदय के पास रखना, प्रार्थना करना आदि उपचार विनय है एवं दर्शन, ज्ञान
और चारित्र विषयक विनय करना-इस तरह कृतिकर्म आदि पाँच प्रकार के विनय से युक्त प्रत्याख्यान विनयशुद्ध प्रत्याख्यान कहलाता है ॥१३९॥
अनुभाषा युक्त प्रत्याख्यान कहते हैं
गाथार्थ-गुरु के वचन के अनुरूप बोलना, अक्षर, पद, व्यञ्जन क्रम से विशुद्ध और घोष की विशुद्धि से शुद्ध बोलना-यह अनुभाषणाशुद्धि है ॥१४०॥
आचारवृत्ति-प्रत्याख्यान के अक्षरों को गुरु ने जैसा उच्चारण किया है वैसा ही उन अक्षरों का उच्चारण करता है । एक स्वरयुक्त व्यंजन को अक्षर कहते हैं, सुबंत और मिङ्त अक्षरों के समुदाय को पद कहते हैं अर्थात् 'इच्छामि
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