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पदं सुबन्तं तिङन्तं चाक्षरसमुदायरूपं
व्यञ्जनमनक्षरवर्णरूपं खण्डाक्षरानुस्वारविसर्जनीयादिकं क्रमविशुद्धं येनैव क्रमेण स्थितानि वर्णपदव्यञ्जनवाक्यादीनि ग्रन्थार्थोभयशुद्धानि तेनैव पाठः, घोषविशुद्धया च शुद्धं गुर्वादिकवर्णविषयोच्चारेण सहितं मुख्यमध्योच्चारेण रहितं महाकलकलेन विहीनं स्वरविशुद्धमिति, एवमेतत्प्रत्याख्यानमनुभाषणशुद्धं वेदितव्यमिति ॥१४०॥
आवश्यक नियुक्तिः
अनुपालनसहितं प्रत्याख्यानस्य स्वरूपमाह— आदंके उवसग्गे समे य दुब्भिक्खवृत्ति कंतारे । जं पालिदं ण भग्गं एदं अणुपालणासुद्धं ।। १४१ ।। आतंके उपसर्गे श्रमे च दुर्भिक्षवृत्तौ कांतारे
यत् पालितं न भग्नं एतत् अनुपालनाशुद्धं ॥ १४१॥
आतंकः सहसोत्थितो व्याधिः, उपसर्गो देवमनुष्यतिर्यक्कृतपीडा, श्रम उपवासालाभमार्गादिकृतः परिश्रमः ज्वररोगादिकृतश्च, दुर्भिक्षवृत्तिर्वर्षाकालराज्यभंगविड्वरचौराद्युपद्रवभयेन शस्याद्यभावेन' भिक्षायाः प्राप्त्यभावः, कान्तारे महा
इत्यादि प्रकार से जो अक्षर समुदाय रूप है, वह पद कहलाता है । अक्षर रहित अव्यक्त वर्ण को व्यंजन कहते हैं जो कि खण्डाक्षर, अनुस्वार और विसर्ग आदि रूप हैं । जिस क्रम से वर्ण, पद, व्यंजन और वाक्य आदि, ग्रन्थ - (शब्द) - शुद्ध, अर्थशुद्ध और शब्दार्थ अर्थात् उभयशुद्ध हैं, उनकी उसी पद्धति से पाठ करना सो क्रमविशुद्ध कहलाता है तथा ह्रस्व, दीर्घ आदि वर्णों का यथायोग्य उच्चारण करना घोष विशुद्धि है । मुख के मध्य में ही शब्द का उच्चारण नहीं होना चाहिए, और न महाकलकल शब्द करना चाहिए । स्वरशुद्ध रहना चाहिए सो यह सब घोषशुद्धि है । इस प्रकार का जो प्रत्याख्यान है वह अनुभाषण शुद्ध प्रत्याख्यान कहलाता है ॥१४०॥
१.
१.१५
अनुपालन सहित - प्रत्याख्यान का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ — आतंक अर्थात् आकस्मिक पीड़ा-व्याधि, उपसर्ग, श्रम, भिक्षा का अलाभ और गहनवन – इनमें जो ग्रहण किया गया प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है, वह अनु-पालना शुद्ध है ॥ १४१ ॥
आचारवृत्ति—सहसा उत्पन्न हुई व्याधि (पीड़ा ) आतंक है । देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत पीड़ा को उपसर्ग कहते हैं । उपवास, अलाभ, या मार्ग में चलने आदि से हुआ परिश्रम या ज्वर आदि रोगों के निमित्त से हुआ खेद श्रम कहलाता है । दुर्भिक्षवृत्ति-वर्षा का अभाव, बदमाश - लुटेरे, चोर इत्यादि के
राज्यभंग,
ग. शस्यादिनिष्पत्य भावेन ।
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