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आवश्यकनियुक्तिः
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तावत्कायोत्सर्गस्वरूपमाहवोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो । सव्वंगचलणरहिओ काउस्सग्गो विसुद्धो दु ।।१४९।।
व्युत्सृष्टबाहुयुगलश्चतुरंगुलांतरं समपादः ।
सर्वांगचलनरहित: कायोत्सर्गो विशुद्धस्तु ॥१४९॥ व्युत्सृष्टं त्यक्तं बाहुयुगलं यस्मिन्नवस्थाविशेषे सो व्युत्सृष्टबाहुयुगल: प्रलंबितभुजश्चतुरंगुलमन्तरं ययोः पादयोस्तौ चतुरंगुलान्तरौ । चतुरंगुलान्तरौ समौ पादौ यस्मिन्स चतुरंगुलान्तरसमपादः । सर्वेषामंगानां करचरणशिरोग्रीवाक्षिभ्रू विकारादीनां चलनं तेन रहित: सर्वांगचलनरहितः सर्वाक्षेपविमुक्तः, एवंविधस्तु विशुद्धः कायोत्सर्गो भवतीति ॥१४९।।.
कायोत्सर्गिकस्वरूपनिरूपणायाहमुक्खट्ठी जिदणिद्दों सुत्तत्थविसारदो करणसुद्धो । आदबलविरियजुत्तो काउस्सग्गी विसुद्धप्पा ।।१५०।।
मोक्षार्थी जितनिद्रः सूत्रार्थविशारद: करणशुद्धः । आत्मबलवीर्ययुक्तः कायोत्सर्गी विशुद्धात्मा ॥१५०॥
तथा कायोत्सर्ग के हेतु निमित्त को कारण कहते हैं । इन तीनों की प्ररूपणा आचार्य स्वयं करते हैं ॥१४८।।
पहले कायोत्सर्ग का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-जो चार अंगुल के अन्तर से समपाद रूप है, जिसमें दोनों बाहु लटका दी गई हैं जो सर्वांग के चलन से रहित, विशुद्ध है वह कायोत्सर्ग कहलाता है ॥१४९॥ . आचारवृत्ति-जिस अवस्था विशेष में दोनों भुजाओं को लम्बित कर दिया है, पैरों में चार अंगल अन्तर रखकर दोनों पैर समान किये हैं। जिसमें हाथ, पैर, मस्तक, ग्रीवा, नेत्र और भौंह आदि का विकार-हलन-चलन नहीं है, एवं जो आक्षेप से रहित है, इस प्रकार. से जो विशुद्ध है वह कायोत्सर्ग होता है ॥१४९॥
कायोत्सर्ग का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं
गाथार्थ-मोक्ष का इच्छुक, निद्रा विजयी, सूत्र और उसके अर्थ में प्रवीण, क्रिया से शुद्ध, आत्मा के बल और वीर्य से युक्त, विशुद्ध आत्मा कायोत्सर्ग को करने वाला होता है ॥१५०॥
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