________________
१२४
आवश्यकनियुक्तिः
निर्घातनाय कायोत्सर्गमधितिष्ठामि कायोत्सर्गेण तिष्ठामीति सम्बन्धः, अथवैकपदस्थितस्यापि रागद्वेषाभ्यामतीचारो भवति यतः किं पुनर्धमति ततो घातनार्थं कर्मणां तिष्ठामीति ॥१५३॥
पुनरपि कायोत्सर्गकारणमाहजे केई उवसग्गा देवमाणुसतिरिक्खचेदणिया । ते सव्वे अधिआसे काओसग्गे ठिदो संतो ।।१५४।।
ये केचन उपसर्गा देवमानुषतिर्यगचेतनिकाः । ___ तान् सर्वान् अध्यासे कायोत्सर्ग स्थित: सन् ॥१५४॥
ये केचनोपसर्गा देवमनुष्यतिर्यक्कृता अचेतना विद्युदशन्यादयस्तान् सर्वानध्यासे सम्यग्विधानेन सहेऽहं कायोत्सर्गे स्थितः सन्, उपसर्गेष्वागतेषु कायोत्सर्गः कर्तव्य: कायोत्सर्गेण वा स्थितस्य यधुपसर्गाः समुपस्थिताः भवन्ति तेऽपि सहनीया इति ॥१५४॥ ..
कायोत्सर्गप्रमाणमाहसंवच्छरमुक्कस्सं भिण्णमुहुत्तं जहण्णयं होदि । सेसा काओसग्गा होति अणेगेसु ठाणेसु ।।१५५।।
जीवों की विराधना के द्वारा जो व्यतिक्रम (अतिचार) हुआ है तथा सात भय, आठ मद के द्वारा जो व्यतिक्रम हुआ है, ब्रह्मचर्य के विषय में जो व्यतिक्रम हुआ है अर्थात् अतिचार हुआ है । अर्थात् इन अतिचारों से जो कर्माश्रव हुआ है, उन कर्मों का नाश करने के लिए मैं कायोत्सर्ग को स्वीकार करता हूँ ॥१५३॥
कायोत्सर्ग के और भी कारणों को कहते हैं- .
गाथार्थ-देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन कृत जो कोई भी उपसर्ग है, कायोत्सर्ग में स्थित हुआ मैं उन सबको सहन करता हूँ ॥१५४॥
__ आचारवृत्ति-देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन कृत-बिजली-वज्रपतादि, जो कोई भी उपसर्ग आने पर मैं समताभाव से सहन करता हुआ कायोत्सर्ग को करता हूँ, अथवा कायोत्सर्ग में स्थित रहने पर उपर्युक्त उपसर्गों के आने पर भी उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करता हूँ। दोनों परिस्थितियों में कायोत्सर्ग की दृढ़ता निश्चित है ॥१५४॥
कायोत्सर्ग का प्रमाण कहते हैं
गाथार्थ-एक वर्ष तक कायोत्सर्ग उत्कृष्ट है और अन्तर्मुहुर्त का जघन्य होता है । शेष कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में होते हैं ॥१५५॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org