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आवश्यकनियुक्तिः
पुनरपि कायोत्सर्गप्रमाणमाहभत्ते पाणे गामंतरे य अरहंतसमणसेज्जासु । उच्चारे पस्सवणे पणवीसं होंति उस्सासा ।।१५९।।
भक्ते पाने ग्रामांतरे च अर्हत् श्रमणशय्यायाम् ।
उच्चारे प्रस्रवणे पंचविंशतिः भवंति उच्छ्वासाः ॥१५९।।... भक्ते पाने च गोचरे प्रतिक्रमणविषये गोचरादागतस्य कायोत्सर्गे पञ्चविंशतिरुच्छ्वासाः कर्त्तव्या भवन्ति, प्रस्तुतात् ग्रामादन्यग्रामो ग्रामान्तरे ग्रामान्तरगमनविषये च कायोत्सर्गे च पञ्चविंशतिरुच्छ्वासाः कर्ताः तथार्हच्छय्यायां जिनेन्द्रनिर्वाणसमवसृतिकेवलज्ञानोत्पत्तिनिष्क्रामणजन्मभूमिस्थानेषु वन्दनाभक्तिहेतोर्गतेन पञ्चविंशतिरुच्छ्वासा: कायोत्सर्गे कर्तव्याः । तथा श्रमणशय्यायां निषधिकास्थानं गत्वाऽऽगतेन पञ्चविंशतिरुच्छ्वासा: कायोत्सर्गे कर्तव्यास्तथोच्चारे वहिभूमिगमनं कृत्वा प्रस्रवणे प्रस्रवणं च कृत्वा यः कायोत्सर्गः क्रियते तत्र नियमेनेति ॥१५९॥
पुन: और भी कायोत्सर्ग का प्रमाण बताते हैं
गाथार्थ-भोजन में, पान में, ग्रामान्तर गमन में, अहंत के कल्याणक स्थान व मुनियों की निषद्या वन्दना में और मल-मूत्र विसर्जन में पच्चीस उच्छ्वास होते हैं ॥१५९॥
___आचारवृत्ति-भक्त में, पान में, गोचर में, प्रतिक्रमण के विषय में अर्थात् क्रमश: आहार चर्या से आने के बाद पच्चीस उच्छ्वासों के .साथ कायोत्सर्ग करने होते हैं । एक गाँव से दूसरे गाँव (नगर) में जाने पर कायोत्सर्ग में पच्चीस उच्छ्वास करना चाहिए । इसी तरह पच्चीस उच्छ्वासों के साथ कायोत्सर्ग जिनेन्द्रदेव की निर्वाण, समवशरण, केवलज्ञान, निष्क्रमण और जन्मस्थानऐसी सभी पवित्र पञ्चकल्याणक भूमियों पर वन्दना, भक्ति आदि के साथ करना चाहिए । श्रमणशय्या अर्थात् मुनियों के निषद्या स्थान में जाकर आने से कायोत्सर्ग के पच्चीस उच्छ्वास करना चाहिए । तथा बहिभूमिगमन अर्थात् मल-मूत्र-विसर्जन के बाद नियम से पच्चीस उच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए ॥१५९॥
१.
क कृत्वा य: कायोत्सर्गः क्रियते तत्र गतेन पञ्चविंशतिरुच्छ्वासा: कायोत्सर्ग नियमेन कर्तव्या इति ।
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