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आवश्यकनियुक्तिः
गुरवेऽपराधनिवेदनमालोचनं वचनेनात्मजुगुप्सनं परेभ्यो निवेदनं च निन्दा चित्तेनात्मनो जुगुप्सनं शासनविराधनभयं च गर्हणमेतैः क्रियायां प्रतिक्रमणेऽथवा पुनरतीचाराकरणेऽभ्युत्थित उद्यतो यतस्तस्माद्भावप्रतिक्रमणं परमार्थभूतो दोषपरिहारः शेषं पुनरेवमन्तरेण द्रव्यतोऽपरमार्थरूपं पुनः भणितमिति ॥१२२॥
द्रव्यप्रतिक्रमणे दोषमाहभावेण अणुवजुत्तो दव्वीभूदो पडिक्कमदि जो दु । जस्सटुं पडिकमदे तं पुण अटुं ण साधेदि ।।१२३।।
भावेन अनुपयुक्त: द्रव्यीभूतः प्रतिक्रमते यस्तु ।
यस्यार्थं प्रतिक्रमते तं पुनः अर्थ न साधयति ॥१२३॥ भावेनानुपयुक्तः शुद्धपरिणामरहितः द्रव्यीभूतेभ्यो । दोषेभ्यो न' निर्गतमना रागद्वेषाद्युपहतचेता: प्रतिक्रमते दोषनिर्हरणाय प्रतिक्रमणं शृणोति करोति चेति: यः स यस्यार्थं यस्मै दोषाय प्रतिक्रमते तं पुनरर्थं न साधयति तं दोषं न परित्यजतीत्यर्थः ॥१२३॥
आचारवृत्ति-गुरु के सामने अपराध का निवेदन करना आलोचना है, वचनों से अपनी जुगुप्सा करना और पर (दूसरे) के सामने निवेदन करना निन्दा है तथा मन से अपनी जुगुप्सा करने में अथवा पुनः अतीचारों के नहीं करने में जो उद्यत होता है उसके वह भाव प्रतिक्रमण होता है, जो कि परमार्थ-भूत दोषों के परिहाररूप है । शेष पुनः इन आलोचना आदि के बिना जो प्रतिक्रमण है वह द्रव्य प्रतिक्रमण है । वह अपरमार्थ रूप कहा गया है ॥१२२॥
द्रव्य प्रतिक्रमण में दोष कहते हैं- .
गाथार्थ-जो भाव से उपयुक्त न होता हुआ द्रव्यरूप प्रतिक्रमण करता है, वह जिस लिए प्रतिक्रमण करता है उस प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर पाता है ॥१२३॥
आचारवृत्ति-जो शुद्ध परिणामों से रहित है, दोनों से अपने मन को दूर नहीं करने वाला है। ऐसा साधु दोष को दूर करने के लिए प्रतिक्रमण को सुनता है या करता है तो वह जिस दोष के लिए प्रतिक्रमण करता है उस दोष को छोड़ नहीं पाता है । अर्थात् यदि साधु का मन प्रतिक्रमण करते समय दोषों की आलोचना, निन्दा आदि रूप नहीं है तो वह प्रतिक्रमण दण्डकों को सुन लेने या पढ़ लेने मात्र से उन दोषों से छूट नहीं सकता है। अत: जिस लिए प्रतिक्रमण किया जाता है वह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो पाता है-ऐसा समझकर भावरूप प्रतिक्रमण करना चाहिए ॥१२३॥
१-२. 'न' नास्ति क-प्रतौ ।
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