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आवश्यक नियुक्तिः
भावप्रतिक्रमणमाह
मिच्छत्तपडिक्कमणं तह चेव असंजमे पडिक्कमणं । कसाएसु पडिक्कमणं जोगेसु य अप्पसत्थेसु ।। ११६।। मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं तथा चैव असंयमे प्रतिक्रमणं । कषायेषु प्रतिक्रमणं योगेषु च अप्रशस्तेषु ॥ ११६ ॥
मिथ्यात्वस्य प्रतिक्रमणं त्यागस्तद्विषयदोषनिर्हरणं तथैवासंयमस्य प्रतिक्रमणं तद्विषयातीचारपरिहारः । कषायाणां क्रोधादीनां प्रतिक्रमणं तद्विषयातीचारशुद्धिकरणं । योगानामप्रशस्तानां प्रतिक्रमणं मनोवाक्कायविषयाव्रतातीचारनिवर्त्तनमित्येवं भावप्रतिक्रमणमिति ॥ ११६ ॥
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आलोचनापूर्वकं यतोऽत आलोचनास्वरूपमाह—
काऊण य किदियम्मं पडिलेहिय अंजलीकरणसुद्धो । आलोचिज्ज सुविहिदो गारव माणं च मोत्तूण ।। ११७ ।। कृत्वा च कृतिकर्म प्रतिलेख्य अंजलीकरणशुद्धः । आलोचयेत् सुविहितः गौरवं मानं च मुक्त्वा ॥ ११७॥
भावप्रतिक्रमण का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ - मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण तथा असंयम का प्रतिक्रमण, कषायों का प्रतिक्रमण और अप्रशस्त योगों का प्रतिक्रमण - यह भावप्रतिक्रमण
है ॥११६॥
आचारवृत्ति - मिथ्यात्व सम्बन्धी दोष का प्रतिक्रमण (त्याग) करना अर्थात् उस विषयक दोष को दूर करना, उसी प्रकार के असंयम का प्रतिक्रमण अर्थात् उस विषयक अतीचार का परिहार करना, क्रोधादि कषायों का प्रतिक्रमण अर्थात् उस विषयक अतीचारों को शुद्ध करना, अप्रशस्त योगों का प्रतिक्रमण अर्थात् मनवचनका रूप योग से हुए अतीचारों से निवृत्त होना, इस प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग सम्बन्धी अतिचारों का त्याग - यह सब भावप्रतिक्रमण है । ११६॥
आलोचनापूर्वक प्रतिक्रमण होता है अतः आलोचना का स्वरूप कहते
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गाथार्थ - कृतिकर्म करके, तथा पिच्छी से परिमार्जना कर, अंजली जोड़कर शुद्ध हुआ गारव और मान को छोड़कर समाधान चित्त हुआ साधु आलोचना करें ॥११७॥
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