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आवश्यकनियुक्तिः
एतद्विषयादतिचारान्निवर्त्तनपरो जीव: प्रतिक्रामक इत्युच्यते ज्ञेयाकारवहिया॑वृत्तरूपः, अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयादतिचारात्प्रतिगच्छति निवर्त्तते स प्रतिक्रामकोऽथवा येन परिणामेनाक्षरकदंबकेन वा प्रतिगच्छति पुनर्याति यस्मिन् व्रतशुद्धिपूर्वस्वरूपे यस्मिन् वा जीवे पूर्वव्रतशुद्धिपरिणतेऽतीचारं परिभूतं स परिणामोऽक्षरसमूहो' वा तस्य व्रतस्य तस्य वा व्रतशुद्धिपरिणतस्य जीवस्य भवेत्प्रतिक्रमणम् ।
व्रतविषयमतीचारं येन परिणामेन प्रक्षाल्य प्रतिगच्छति पूर्वव्रतशुद्धौ स परिणामस्तस्य जीवस्य भवेत्प्रतिक्रमणमिति । मिथ्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रियं द्रव्यक्षेत्रकालभावमाश्रित्य प्रतिक्रमणमिति वा ॥११४॥
प्रतिक्रमितव्यं तस्य स्वरूपमाहपडिकमिदव्वं दव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सयं तिविहं । खेत्तं च गिहादीयं कालो दिवसादिकालसि ।।११५।।
इन द्रव्य आदि विषयक अतिचार से निवृत्त होने वाला जीव प्रतिक्रामक कहलाता है । अर्थात् ज्ञेयाकार से परिणत होकर बाह्य द्रव्य, क्षेत्रादि से पृथक् रहने वाला अतिचारों से हटने वाला आत्मा प्रतिक्रामक है । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव निमित्तक अतिचारों से जो वापस आता है वह प्रतिक्रामक है ।
जिन परिणामों से या जिन अक्षर समूहों से यह जीव जिस व्रतशुद्धि पूर्वक अपने स्वरूप में वापस आ जाता है, अथवा पूर्व के व्रतों की शुद्धि से परिणत हुए जीव में वापस आ जाता है, अतीचार को तिरस्कृत करने रूप वह परिणाम अथवा वह अक्षर समूह उस व्रत के अथवा व्रतों की शुद्धि से परिणत हए जीव का प्रतिक्रमण है । अर्थात् व्रतशुद्धि के परिणाम या प्रतिक्रमण पाठ के दण्डक प्रतिक्रमण कहलाते हैं।
यह जीव जिन परिणामों से व्रतों में हुए अतिचारों का प्रक्षालन करके पुनः पूर्व के व्रत की शुद्धि में वापस आ जाता है अर्थात् उसके व्रत पूर्ववत् निर्दोष हो जाते हैं वह परिणाम उस जीव का प्रतिक्रमण है । अथवा 'मिथ्या मे दुष्कृतं' इस शब्द से अभिव्यक्त है प्रतिक्रिया जिसकी ऐसा वह प्रतिक्रमण होता है, जो कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से होता है ॥११४॥
प्रतिक्रमितव्य का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ सचित्त, अचित्त और मिश्र-ये तीन प्रकार का द्रव्य, गृह आदि क्षेत्र, दिवस आदि समय रूप काल प्रतिक्रमण करने योग्य है ॥११५॥
१.
क हो वा तस्य वा व्रतशुद्धि० ।
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