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आवश्यकनियुक्तिः
मोचनदोषः । आलद्धमणालद्धं उपकरणादिकं लब्ध्वा यो वन्दनादिकं करोति तस्य लब्धदोषः । अणालद्धं-अनालब्धं उपकरणादिकं लप्स्येऽहमिति बुद्ध्या यः करोति वन्दनादिकं तस्यानालब्धदोषः । हीणं हीनं ग्रन्थार्थकालप्रमाणरहितां वन्दनां यः करोति तस्य हीनदोषः । उत्तरचूलियं उत्तरचूलिकां वन्दना स्तोकेन निर्वत्यं वन्दनायाश्चूलिकाभूतस्यालोचनादिकस्य महता कालेन निवर्तकं कृत्वां यो वन्दनां विदधाति तस्योत्तरचूलिकादोषः ॥१०५॥ .
मूगं च दडुरं चावि चुलुलिदमपच्छिमं । बत्तीसदोसविसुद्ध किदियम्मं पउंजदे ।।१०६।।
मूकश्च दर्दुरं चापि चुलुलितमपश्चिमं । द्वात्रिंशद्दोषविशुद्धं कृतिकर्म प्रयुक्ते ॥१०६॥
२६. आलब्ध-उपकरण आदि प्राप्त करके जो वन्दना करता है उसके आलब्ध दोष होता है।
२७. अनालब्ध–'उपकरणादि मुझे मिलें'-ऐसी बुद्धि से यदि वन्दना आदि करता है तो उसके अनालब्ध दोष होता है।
२८. हीन-ग्रन्थ, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित जो वन्दना करता है उसके हीन दोष होता है । अर्थात् वन्दना सम्बन्धी पाठ के शब्द जितने हैं उतने पढ़ना चाहिए, उनका अर्थ ठीक समझते रहना चाहिए और जितने काल में उनको पढ़ना है उतने काल में ही पढ़ना चाहिए । इनसे अतिरिक्त जो इन प्रमाणों को कम कर देता है या जल्दी-जल्दी पाठ पढ़ लेता है, उसके हीन दोष होता है।
२९. उत्तरचूलिका-वन्दना का पाठ थोड़े ही काल में पढ़कर, वन्दना की चूलिका भूत की आलोचना आदि को बहुत काल तक पढ़ते हुए जो वन्दना करता है उसके उत्तरचूलिका दोष होता है । अर्थात् 'जयतु भगवान् हेमाम्भोज' इत्यादि भक्तिपाठ जल्दी पढ़कर 'इच्छामि भत्ते चेइय भत्ति' इत्यादि चूलिका रूप आलोचनादि पाठ को बहुत मंदगति से पढ़ना आदि उत्तरचूलिका दोष है ।
गाथार्थ-मूक, दर्दुर और चुलुलित-इस प्रकार साधु इन बत्तीस दोषों से विशुद्ध कृतिकर्म का प्रयोग करते हैं ॥१०६॥
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