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आवश्यकनियुक्तिः
नितदोषः, पडिणिदं प्रतिनीतं प्रतिनीतं देवगुर्वादीनां प्रतिकूलो भूत्वा यो वन्दनां विदधाति तस्य प्रतिनीतदोषः, पदुह्र प्रदुष्टोऽन्यैः सह प्रद्वेषं वैरं कलहादिकं विधाय क्षन्तव्यमकृत्वा य: करोति क्रियाकलापं तस्य प्रदुष्टदोषः । तज्जिदं तर्जितं तथा अन्यांस्तर्जयनन्येषां भयमुत्पादयन्यदि वन्दनां करोति तदा तर्जितदोषस्तस्याथवाऽचार्यादिभिरङ्गुल्यादिना तर्जिताः शासितो यदि 'नियमादिकं न करोषि निर्वासयामो भवन्त' मिति तर्जितो यः करोति तस्य तर्जितदोषः । सदं च शब्दं ब्रुवाणो यो वन्दनादिकं करोति मौनं च परित्यज्य तस्य शब्ददोषोऽथवा सठं चेति पाठस्तत एवं ग्राह्यं शाठ्येन मायाप्रपंचेन यो वन्दनां करोति तस्य शाठ्यदोषः । हीलिदं हीलितं वचनेनाचार्यादीनां परिभवं कृत्वा यः करोति वन्दनां तस्य हीलितदोषः, तह तिवलिदं तथा त्रिविलिते शरीरस्य त्रिषु कटिहृदयग्रीवाप्रदेशेषु भंगं कृत्वा ललाटदेशे वा त्रिविलं कृत्वा यों विदधाति वन्दनां
१६. प्रतिनीत-गुरु आदि के प्रतिकूल होकर जो वन्दना करता है उसके प्रतिनीत दोष होता है।
१७. प्रदुष्ट-अन्य के साथ प्रद्वेष वैर कलह आदि करके पुन: उनसे क्षमाभाव न कराकर जो क्रियाकलाप करता है उसके प्रदुष्ट दोष होता है।
१८. तर्जित-अन्यों की तर्जना करते हुए अर्थात् अन्य साधुओं को भय उत्पन्न करते हुए यदि वन्दना करता है । अथवा आचार्य आदि के द्वारा अंगली आदि से तर्जित-शासित-दंडित होता हुआ यदि वन्दना करता है अर्थात् 'यदि तुम नियमादिक नहीं करोगे तो तुम्हें (संघ से) निकाल देंगे ।' ऐसी आचार्यों की फटकार सुनकर जो वन्दना करता है उसके तर्जित दोष होता है।
१९. शब्द-मौन छोड़कर शब्द बोलते हुए जो वन्दना आदि करता है उसके शब्द दोष होता है । अथवा 'सटुं च' ऐसा पाठ भेद होने से उसका ऐसा अर्थ करना कि शठता से, माया प्रपंच से जो वन्दना करता है-उसके शाठ्य दोष होता है ।
२०. हीलित-वचन से आचार्य आदिकों का तिरस्कार करके जो वन्दना करता है उसके हीलित दोष होता है।
२१. त्रिवलित-शरीर के कटि, हृदय और ग्रीवा-इन तीन स्थानों में भंग डालकर अर्थात् कमर, हृदय और गरदन को मोड़कर वन्दना करना या ललाट में त्रिवली-तीन सिकुड़न डालकर वन्दना करना सो त्रिवलित दोष है ।
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