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आवश्यकनियुक्तिः
भयसा चेव भयेन चैव मरणादिभीतस्य भयसंत्रस्तस्य यद्वन्दनाकारणं भयदोष: भयतो विभ्यतो गुर्वादिभ्यो विभ्यतो भयं प्राप्नुवत: परमार्थात्परस्य वालस्वरूपस्य वन्दनाभिधानं विभ्यद्दोषः, इड्डिगारव ऋद्धिगौरवं वन्दनामकुर्वतो महापरिकरश्चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघो भक्तो भवत्येवमभिप्राणेय यो वन्दनां विदधाति तस्य ऋद्धिगौरवदोषः । गारवं गौरवं आत्मनो महात्म्यासनादिभिरावि: कृत्य रससुखहेतो यो वन्दनां करोति गौरववन्दनादोषः ॥१०३॥
तथातेणिदं पडिणिदं चावि पदुटुं तज्जिदं तथा । सदं च हीलिदं चावि तह तिवलिद कुंचिदं ।।१०४।।
स्तेनितं प्रतिनीतं चापि प्रदुष्टस्तर्जितं तथा ।
शब्दश्च हीलितं चापि तथा त्रिवलितं कुंचितं ॥१०४॥ तेणिदं स्तेनितं चौरबुद्ध्या यथा गर्वादयो न जानन्ति वन्दनादिकमपवरकाभ्यन्तरं प्रविश्य वा परेषां वन्दनां चोरयित्वा य: करोति वन्दनादिकं तस्य स्ते
११. भय-भय से अर्थात् मरण आदि से भयभीत होकर या भय से घबड़ाकर वन्दना करना, भय दोष है ।
... १२. विभ्यत्व-गुरु आदि से डरते हुए या परमार्थ से परे बालकस्वरूप परमार्थ के ज्ञान से शून्य अज्ञानी हुए वन्दना करना विभ्यत्व दोष है ।
१३. ऋद्धिगौरव-वन्दना को करने से महापरिकर वाला चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ मेरा भक्त हो जावेगा-इस अभिप्राय से जो वन्दना करता है उसके ऋद्धिगौरव दोष होता है ।
१४. गौरव-अपना माहात्म्य आसन आदि के द्वारा प्रगट करके या इस के सुख के लिए जो वन्दना करता है उसके गौरव नाम का दोष होता है ।
गाथार्थ-स्तेनित, प्रतिनीत, प्रदुष्ट, तर्जित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुंचित ॥१०४॥
१५. स्तेनित-जिस प्रकार से गुरु आदि न जान सकें ऐसी चोर बुद्धि से या कोठरी में प्रवेश करके वन्दना करना या अन्य जनों से आँखें चुराकर अर्थात् नहीं देख सकें ऐसे स्थान में वन्दना करना सो स्तेनित दोष है ।
२.
क तहा ।
१. .ब. तिणिदं । । ३. क ०दं तु कुं० ।
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