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आवश्यकनियुक्तिः
कति दोषविप्रमुक्तं कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यमिति यत्पृष्टं तदर्थमाहअणाठिदं च थट्टं च पविट्टपरिपीडिदं । दोलाइयमंकुसियं तहा कच्छपरिंगियं ।।१०२।।
अनादृतं च स्तब्धश्च प्रविष्टः परिपीडितं ।
दोलायितमंकुशितस्तथा कच्छपरिगितं ॥१०२॥ अणाढिमनादृत्तं विनादरेण संभ्रममंतरेण यत् क्रियाकर्म क्रियते तदनादृतमितयुच्यते । अनादृतनामारे दोषः । थट्टं च स्तब्धश्च विद्यादिगणोद्धतः सन् यः करोति क्रियाकर्म तस्य स्तब्धनाम दोषः पविट्टं प्रविष्ट: पंचपरमष्ठिनामत्यासन्नो भूत्वा य: करोति कृतिकर्म तस्य प्रविष्टदोषः, परिपीडिदं परिपीडितं करजानुप्रदेशैः परिपीड्य संस्पर्श्य य: करोति वंदनां तस्य परिपीडितदोषः । दोलायिदंदोलायितं दोलामिवात्मानं चलाचलं कृत्वा शयित्वा वा यो विदधाति वन्दनां
कितने दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करते हैं अर्थात् आगे कहे गये बत्तीस दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए ।
गाथार्थ-अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीड़ित, दोलायित, कच्छपपरिंगित । - आचारवृत्ति-वन्दना के समय जो कृतिकर्म प्रयोग होता है उसके अर्थात् वन्दना के बत्तीस दोष होते हैं, उन्हीं का क्रम से स्पष्टीकरण करते हैं
१. अनादृत-बिना आदर के, बिना उत्साह के जो क्रियाकर्म किया जाता है वह अनादृत कहलाता है । यह अनादृत नाम का पहला दोष है ।
२. स्तब्ध-विद्या आदि के गर्व से उद्धत-उदंड होकर जो क्रियाकर्म किया जाता है वह स्तब्ध दोष है। . ३. प्रविष्ट-पंचपरमेष्ठी के अति निकट होकर जो कृतिकर्म किया जाता है वह प्रविष्ट दोष है।
४. परिपीड़ित-हाथ से घुटनों को पीड़ितस्पर्श करके जो वन्दना करता है वह उसके परिपीड़ित दोष होता है ।
५. दोलायित-झूला के समान अपने को चलाचल करके अथवा सोते हुए (या नींद से झूमते हुए) जो वन्दना करता है वह उसके दोलायित दोष होता
२.
क नाम दोषरूपं ।
१. • ख ढिदं। ३. क स्तब्धो नाम० ।
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