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आवश्यकनियुक्तिः
तस्य त्रिवलितदोषः, कुंचिदं कुचितं कुंचितहस्ताभ्यां शिरः परामर्श कुर्वन् यो वन्दनां विदधाति जानुमध्ययोर्वा शिरः कृत्वा संकुचितो भूत्वा यो वन्दनां करोति तस्य कुंचितदोषः ॥१०४॥
दिट्ठमदिटुं चावि य संघस्स करमोयणं । आलद्धमणालद्धं च हीणमुत्तरचूलियं ।।१०५।।
दृष्टः अदृष्टश्चापि च संघस्य करमोचनं ।
आलब्धः अनालब्धश्च हीनमुत्तरचूलिका ॥१०५।। दिटुं दृष्टं आचार्यादिभिर्दृष्टः सन् सम्यग्विधानेन वन्दनादिकं करोत्यन्यथा स्वेच्छयाऽथवा दिगवलोकनं कुर्वन् वन्दनादिकं यदि विदधाति तदा तस्य दृष्टो दोषः । अदिटुं अदृष्टं आचार्यादीनां दर्शनं पृथक् त्यक्त्वा भूप्रदेशं शरीरं चाप्रतिलेख्यातद्गतमनाः पृष्ठदेशतो वा भूत्वा यो वन्दनादिकं करोति तस्यादृष्टदोषः, अपि च संघस्स करमोयणं संघस्य करमोचनं संघस्य मायाकरो वृष्टिर्दातव्योऽन्यथा न ममोपरि संघ: शोभन: स्यादिति ज्ञात्वा यो वन्दनादिकं करोति तस्य संघकर
... २२. कुंचित-संकुचित किए हाथों से शिर का स्पर्श करते हुए जो वन्दना करता है या घुटनों के मध्य शिर को रखकर संकुचित होकर जो वन्दना करता है उसके संकुचित दोष होता है।
गाथार्थ-दृष्ट, अदृष्ट, संघकर-मोचन, आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तर चूलिका ॥१०५॥
. . २३. दृष्ट-आचार्यादि यदि देख रहे हैं तो सम्यक विधान से वन्दना आदि करता है अन्यथा स्वेच्छानुसार करता है अथवा दिशाओं का अवलोकन · करते हुए यदि वन्दना करता है तो उसके दृष्ट दोष होता है ।
- २४. अदृष्ट-आचार्य आदि को पृथक्-पृथक् न देखकर भूमिप्रदेश और शरीर का पिच्छी से परिमार्जन न करके, वन्दना की क्रिया और पाठ में उपयोग न लगाते हुए अथवा गुरु आदि के पृष्ठ देश में उनके पीठ पीछे होकर जो वन्दना करता है उसके अदृष्ट दोष होता है।
२५. संघकरमोचन-संघ को मायाकार-वृष्टि अर्थात् कर भाग देना चाहिए अन्यथा मेरे प्रति संघ शुभ नहीं रहेगा अर्थात् संघ रुष्ट हो जावेगा ऐसा समझ कर जो वन्दना आदि करता है उसके संघकर-मोचन दोष होता है ।
१.
ग. वन्दनां विदधाति ।
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