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आवश्यकनियुक्तिः
कृतिकर्म कुर्वनपि न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी कृतिकर्मणा या कर्मनिर्जरा तस्या: स्वामी न स्यात्, यदि द्वात्रिंशद्दोषेभ्योऽन्यतरं स्थानं दोष निवारयन्नाचरन् क्रियाकर्म कुर्यात्साधुरिति । अथवा द्वात्रिंशद्दोषेभ्योऽन्तरेण दोषेण स्थानं कायोत्सर्गादिवन्दनां विराधयन्कुर्वीतेति ॥१०७॥
कथं तर्हि वन्दना कुर्वीत साधुरित्याहहत्थंतरेणबाधे संफासपमज्जणं पउज्जतो । जातो वंदणयं इच्छाकारं कुणइ भिक्खू ।।१०८।।
हस्तांतरे अनावाधे संस्पर्शप्रमार्जनं प्रयुंजानः ।
याचमानो वंदनां इच्छाकारं करोति भिक्षुः ॥१०८॥ हस्तान्तरेण हस्तमात्रान्तरेण यश्च करोति तयोरन्तरं हस्तमात्रं भवेत् तस्मिन् हस्तान्तरे स्थित्वा अणावाधेऽनाबाधे बाधामन्तरेण संफासपमज्जणं स्वस्य देहस्य
आचारवृत्ति—इन बत्तीस दोषों में से किसी एक भी दोष को करते हुए यदि साधु कृतिकर्म अर्थात् वन्दना करता है तो कृतिकर्म को करते हुए भी उस कृतिकर्म के द्वारा होने वाली निर्जरा का स्वामी नहीं हो सकता है । अथवा इन बत्तीस दोषों में से किसी एक दोष के द्वारा स्थान अर्थात् कायोत्सर्ग आदि क्रियारूप वन्दना की विराधना कर देता है ॥१०७॥
तो फिर साधु किस प्रकार वन्दना करे ?
गाथार्थ-बाधा रहित एक हाथ के अन्तर से स्थित होकर भूमि शरीर आदि का स्पर्श व प्रमार्जन करता हुआ मुनि वन्दना की याचना करके वन्दना करता है ॥१०८॥
आचारवृत्ति-जिसकी वन्दना की है और जो वन्दना करता है-उन दोनों में से एक हाथ का अन्तर रखकर (गुरु या देव आदि की) अर्थात् वन्दना के समय उनसे एक हाथ के अन्तर से स्थित होकर उनको बाधा न करते हुए वन्दना करे । अपने शरीर का स्पर्श और प्रमार्जन अर्थात् कटि, गुह्य आदि प्रदेशों का पिच्छिका से स्पर्श व प्रमार्जन करके शरीर की शुद्धि को करता हुआ प्रकर्ष रीति से वन्दना की याचना करे । अर्थात् 'हे भगवान् ! मैं आपकी वन्दना करूंगा' इस प्रकार याचना-प्रार्थना करके साधु इच्छाकार-वन्दना और प्रणाम करता है ।
साधु को इन बत्तीस दोषों के परिहार से बत्तीस ही गुण होते हैं । उन गुणों सहित, यत्न में तत्पर हुआ मुनि वन्दना करे ।
१.
क. ग. ०दोषं विराधयन् ।
२.
ब. जाएंतो ।
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