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आवश्यकनियुक्तिः ।
पुनरपि स्पष्टमवन्दनाया: कारणमाहदंसणणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकाल पासत्था । एदे अवंदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणं ।।९३।।
दर्शनज्ञानचरित्रतपोविनयेभ्यः नित्यकालं पार्श्वस्थाः ।
एते अवन्दनीयाः छिद्रप्रेक्षिणो गुणधराणाम् ॥१३॥ दर्शनज्ञानचारित्रतपोविनयेभ्यो नित्यकालं पार्श्वस्थ दूरीभूता यतोऽत एते न वंदनीयाश्छिद्रप्रेक्षिणः सर्वकालं गुणधाराणां च छिद्रोन्वेषिणः संयतजनस्य दोषोद्भाविनो यतोऽतो न वंदनीया एतेऽन्ये चेति ॥९३॥
ये पाँचों प्रकार के मुनि ‘पार्श्वस्थ' नाम से भी कहे जाते हैं । ये दर्शन-ज्ञानचारित्र आदि के अनुष्ठान से शून्य रहते हैं, इन्हें तीर्थ और धर्म आदि में हर्ष रूप संवेग भाव नहीं होता है अत: ये हमेशा ही वन्दना करने योग्य नहीं हैं—ऐसा समझना ॥९२॥
पुनरपि इनको वन्दना न करने का स्पष्ट कारण कहते हैं
गाथार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की विनय से ये नित्य ही पार्श्वस्थ हैं । ये गुण धारियों के छिद्र देखने वाले हैं अत: ये वन्दनीय नहीं हैं ॥९३॥ ...आचारवृत्ति-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों की विनय से ये नित्यकाल दूर रहते हैं, अतः ये वन्दनीय नहीं हैं । क्योंकि ये गुणों से युक्त संयमियों का दोष उद्भावन करते रहते हैं इसलिए इन पार्श्वस्थ आदि जैसे अन्यान्य मुनियों की वन्दना नहीं करना चाहिए ॥९३॥
वेज्जेण व मंतेण व जोइसकुसलत्तणेण पडिबद्धो । . राजादी सेवंतो संसत्तो णाम सो होई ।। अर्थ-वैद्यशास्त्र, मंत्रशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र में कुशल होने से उनमें आसक्ति रखते हैं अर्थात् हमेशा इन्हीं के प्रयोग में लगे रहते हैं, एवं राजा आदिकों की सेवा करते हैं उनको संसक्त मुनि कहते हैं।
जिणवयण मयाणंतो मुक्कयुरो णाणचरणपरभट्टो।
करणालसो भवित्ता सेवदि ओसण्णसेवाओ ।। अर्थ-जो जिन-वचनों को नहीं जानते हुए चारित्ररूपी धुरा को छोड़ चुके हैं, ज्ञान और आचरण से भ्रष्ट हैं, तेरहविध क्रियाओं में आलसी हैं, उनको अपसंज्ञक मुनि कहते हैं ।
आयरियकुलं मुच्चा विहरइ एगागिणो य जो समणो।
जिणवयणं जिंदतो सच्छंदो होइ मिगचारी ।। अर्थ-आचार्य के संघ को छोड़कर जो एकाकी विहार करते हैं, जिन वचनों की निन्दा करते हैं, स्वच्छन्द प्रवृत्ति रखते हैं, वे मृगचारी मुनि कहलाते हैं ।
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