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आवश्यकनियुक्तिः
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लान् पंचजनान्निम्रन्थानपि संयत: स्नेहादिना पार्श्वस्थपणकं न वंदेत मातरमसंयतां पितरमसंयतं अन्यं च मोहादिना न स्तुयात् भयेन लोभादिना वा नरेन्द्रं न स्तुयात् ग्रहादिपीडाभयाद्देवं सूर्यादिकं न पूजयेत् ।
शास्त्रादिलोभेनान्यतीर्थिकं न स्तुयादाहारादिनिमित्तं श्रावकं न स्तुयात् । आत्मगुरुमपि विनष्टं न वंदेत तथा वा शब्दसूचितानन्यानपि स्वोपकारिणोऽसंयतान स्तुयादिति ॥९॥
इति के ते पंच पार्श्वस्था इत्याशंकायामाहपासत्थो य कुसीलो संसत्तोसण्ण मिगचरित्तो य । दंसणणाणचरित्ते . अणिउत्ता मंदसंवेगा ।।९२।।
पार्श्वस्थश्च कुशील: संसक्तोऽपसंज्ञो मृगचरित्रश्च ।
दर्शनज्ञानचारित्रे अनियुक्ता मन्दसंवेगाः ॥१२॥ संयतगुणेभ्यः पार्श्वे अभ्यासे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः वसतिकादिप्रतिबद्धो मोहबहुलो रात्रिंदिवमुपकरणानां कारकोऽसंयतजनसेवी संयतजनेभ्यो दूरीभूतः,
शास्त्रादि ज्ञान के लोभ से अन्य मतावलम्बी पाखंडी साधुओं की स्तुति न करें । आहार आदि के निमित्त श्रावक की स्तुति न करें, एवं स्नेह आदि से पार्श्वस्थ आदि मुनियों की स्तुति न करें । तथैव अपने गुरु भी यदि हीनचारित्र हो गये हैं तो उनकी भी वन्दना न करें तथा अन्य भी जो अपने उपकारी हैं किन्तु असंयत हैं उनकी वन्दना न करें ॥११॥ __ वे पाँच प्रकार के पार्श्वस्थ कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
...' गाथार्थ-पार्श्वस्थ, कशील, संसक्त अपसंज्ञक और मृगचरित्र-ये पाँचों दर्शन, ज्ञान और चारित्र में नियुक्त नहीं हैं एवं मन्द संवेग वाले हैं ॥१२॥ __आचारवृत्ति-जो संयमी के गुणों से 'पार्श्वे तिष्ठति' पास में, निकट में रहते हैं वे पार्श्वस्थ कहलाते हैं । ये मुनि वसतिका आदि से प्रतिबद्ध रहते हैं अर्थात् वसतिका आदि में अपनेपन की भावना रखकर उनमें आसक्त रहते हैं मोह की बहुलता रहती है, ये रात-दिन उपकरणों के बनाने में लगे रहते हैं, असंयतजनों की सेवा करते हैं और संयमीजनों से दूर रहते हैं । अत: ये पार्श्वस्थ इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं ।
कुत्सितशील-आचरण या खोटा स्वभाव जिनका है वे 'कुशील' कहलाते हैं । ये क्रोधादि कषायों से कलुषित रहते हैं, व्रत गुण और शीलों से हीन हैं, संघ के साधुओं की निन्दा करने में कुशल रहते हैं, अत: ये कुशील कहे जाते
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