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आवश्यकनियुक्तिः
पुनरपि सामायिकमाहात्म्यमाहसामाइयह्यि दु कदे समणो इर सावओ हवदि जह्मा । एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुब्जा ।।३०।।
सामायिके तु कृते श्रमणः किल श्रावको भवति यस्मात् ।
एतेन कारणेन तु बहुश: सामायिकं कुर्यात् ॥३०॥ सामायिके तु कृते सति श्रावकोऽपि किल श्रमण: संयतो भवति । यस्मात्कस्मिंश्चित् पर्वणि कश्चित् श्रावक: सामायिकसंयमं समत्वं गृहीत्वा श्मशाने स्थि (त:) तस्य पुत्रनप्तृबन्ध्वादिमरणपीडादिमहोपसर्गः संजातस्तथाप्यसौ न सामायिकव्रतान्निर्गत: । भावभ्रमणः संवृत्तस्तर्हि श्रावकत्वं कथं ? प्रत्याख्यानमन्दतरत्वात् । अत्र कथा वाच्या । तस्मादनेन कारणेन बहुशो बाहुल्येन सामायिकं कुर्यादिति ॥३०॥
पुनरपि सामायिकमाहात्म्यमाहसामाइए कदे सावएण विद्धो मओ अरणहि । सो य मओ उद्धादो ण य सो सामाइयं फिडिओ ।।३१।।
___ आचारवृत्ति-सामायिक करते समय श्रावक भी निश्चित ही संयत हो जाता है अर्थात् मुनि सदृश हो जाता है । जैसे किसी पर्व में कोई श्रावक सामायिक-संयम अर्थात् समता भाव को ग्रहण करके श्मशान में स्थित (खड़ा) हो गया है, उस समय (किसी के द्वारा) उसके पुत्र, पौत्र, नाती, बन्धु-जन आदि के मरण अथवा उनको पीड़ा देना आदि महा-उपसर्ग हो रहे हैं या स्वयं के ऊपर उपसर्ग हो रहे हैं तो भी वह सामायिक व्रत से च्युत नहीं हुआ अर्थात् सामायिक के समय एकाग्रता रूप धर्मध्यान से चलायमान नहीं हुआ उस समय वह श्रावक भी श्रमण होता है । - यहाँ प्रश्न होता है कि यदि वह भावों के द्वारा श्रमण अर्थात् भावश्रमण है, तब संवरयुक्त होने से उसके श्रावकत्व कैसे रहा ? इसका उत्तर यह कि प्रत्याख्यान-कषाय की अत्यन्त मन्दता के कारण ऐसा कहा गया है । इस विषयक वृत्तान्त (कथा) अन्य शास्त्रों से जानना चाहिए । इन सब कारणों से श्रावक को भी बहुत अधिक सामायिक करना चाहिए ॥३०॥
पुनः सामायिक का माहात्म्य कहते हैं
गाथार्थ-कोई श्रावक सामायिक कर रहा होता है । उस समय वन में कोई हरिण वाणों से विद्ध होता हुआ आया और मर गया किन्तु वह श्रावक अपनी सामायिक से च्युत नहीं हुआ ॥३१॥
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