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स भावोद्योतो जिनवरेन्द्रैः पंचविधः पंचप्रकारः खलु स्फुटं, भणितः प्रतिपादितः । आभिनिबोधिक श्रुतावधिज्ञानमन:पर्ययकेवलमयो मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानभेदेन पंचप्रकार इति ॥५३॥
आवश्यक निर्युक्तिः
द्रव्यभावोद्योतयोः स्वरूपमाह—
दव्वुज्जोवोजोवो पsिहण्णदि परिमिद िखेत्त ि। भावज्जोवोजोवो लोगालोगं पयासेदि ।।५४।। .
द्रव्योद्योतः उद्योतः प्रतिहन्यते परिमिते क्षेत्रे ।
भावोद्योत उद्योतः लोकालोकं प्रकाशयति ॥५४॥
द्रव्योद्योतोय उद्योतः स प्रतिहन्यतेऽन्येन द्रव्येण परिमिते च क्षेत्रे वर्तते ।
पुनः भाव - उद्योत के भेद कहते हैं
गाथार्थ — जिनवरदेव ने निश्चय से भावोद्योत पाँच प्रकार का कहा है । वह आभिनिबोधिक (मति), श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल - ये पाँच ज्ञान हैं- ऐसा जानना चाहिए ॥ ५३ ॥
१.
आचारवृत्ति — मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के भेद से वह भावोद्योत पाँच प्रकार का है - ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है ' ॥५३॥
द्रव्यभाव उद्योत का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ - द्रव्योद्योत रूप प्रकाश अन्य से बाधित होता है, परिमित क्षेत्र में रहता है और भावोद्योत प्रकाश, लोक- अलोक को प्रकाशित करता है ॥५४॥ आचारवृत्ति - जो द्रव्योद्योत का प्रकाश है वह अन्य द्रव्य के द्वारा नष्ट हो जाता है और सीमित क्षेत्र में रहता । किन्तु भावोद्योत रूप प्रकाश लोक और अलोक को प्रकाशित करता है, किसी के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता है और न परिमित क्षेत्र में ही रहता है, क्योंकि वह अप्रतिघाती और सर्वगत है । अर्थात्
यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है—
लोयालोयपयासं अक्खलियं णिम्मलं असंदिद्धं । जं गाणं अरहंता भावुज्जोओ त्ति वुच्चति ॥
अर्थात् जो ज्ञान लोकालोक को प्रकाशित करता है, कभी स्खलित नहीं होता है, निर्मल है, संशयरहित है, अरिहंतदेव ऐसे ज्ञान को भावोद्योत कहते हैं ।
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