________________
आवश्यकनियुक्तिः
___ दर्शनज्ञानचारित्रतप औपचारिकभेदेन मोक्षविनय एष पंचप्रकारो भवति ॥८३॥
स पंचाचारे यद्यपि विस्तरेणोक्तस्तथाऽपि विस्मरणशीलशिष्यानुग्रहार्थं संक्षेपत: पुनरुच्यत इति
जे दव्वपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेहिं सुदणाणे । ते तह सद्दहदि णरो दंसणविणओत्ति णादव्यो ।।८४।।
ये द्रव्यपर्यायाः खलु उपदिष्टा जिनवरैः श्रुतज्ञाने ।
तान् तथा श्रद्दधाति नरः दर्शनविनय इति ज्ञातव्यः ॥८४॥ ये द्रव्यपर्यायाः खलूपदिष्टा जिनवरैः श्रुतज्ञाने तांस्तथैव श्रद्दधाति यो नरः दर्शनविनय इति ज्ञातव्यो भेदोपचारादिति ॥८४॥ ..
अथ ज्ञाने किमर्थं विनयः क्रियते इत्याशंकायामाहणाणी गच्छदि णाणी वंचदि णाणी णवं च णादियदि । णाणेण कुणदि चरणं तह्मा णाणे हवे विणओ ।।८५।।
ज्ञानी गच्छति ज्ञानी वञ्चति ज्ञानी नवं च नाददाति । ज्ञानेन करोति चरणं तस्मात् ज्ञानं भवेत् विनयः ॥८५॥ .
आचारवृत्ति-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार के भेद से मोक्षविनय के पाँच भेद होते हैं ॥८३।। यद्यपि मोक्षविनय के इन पंचाचार का यह विस्तार से वर्णन है किन्तु विस्मरणशील शिष्यों के अनुग्रह के लिए संक्षेप में पुन: कहा जा रहा है
गाथार्थ जिनेन्द्रदेवों ने श्रुतज्ञान में निश्चय से जिन द्रव्य पर्यायों का उपदेश दिया है. मनुष्य उनका वैसा ही श्रद्धान करता है-वह दर्शनविनय है-ऐसा जानना चाहिए ॥८४॥
आचारवृत्ति-जिनवरों ने द्रव्यादिकों का जैसा उपदेश दिया है जो मनुष्य उनका वैसा ही श्रद्धान करता है वह मनुष्य ही दर्शनविनय है । यहाँ पर गुणगुणी में अभेद का उपचार किया गया है ॥८४॥
अब ज्ञान की किसलिए विनय करना ? ऐसी आशंका होने पर कहते
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org