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आवश्यक निर्युक्तिः
भावोद्योतः पुनरुद्योतो लोकमलोकं च प्रकाशयति न प्रतिहन्यते नापि परिमिते क्षेत्रे वर्ततेऽप्रतिघातिसर्वगतत्वादिति ॥५४॥
तस्मात्—
लोगस्सुज्जोवयरा दव्वुज्जोएण ण हु जिणा होंति । भावुज्जोवयरा पुण होंति जिणवरः चउव्वीसा ।। ५५ ।। लोकस्योद्योतकरा द्रव्योद्योतेन न खलु जिना भवंति । भावोद्योतकराः पुनः भवंति जिनवराः चतुर्विंशतिः ॥५५॥
लोकस्योद्योतकरा द्रव्योद्योतेन नैव भवन्ति जिनाः । भावोद्योतकराः पुनभवन्ति जिनवराश्चतुर्विंशतिः । अतो भावोद्योतेनैव लोकस्योद्योतकरा जिना इति स्थितमिति । लोकोद्योतकरा इति व्याख्यातम् ॥५५॥
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धर्मतीर्थकरा इति पदं व्याख्यातुकामः प्राह —
तिविहो य होदि धम्मो सुदधम्मो अत्थिकायधम्मो य । तदिओ चरित्तधम्मो सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं ।। ५६ ।।
त्रिविधश्च भवति धर्मः श्रुतधर्मः अस्तिकायधर्मश्च । तृतीय: चारित्रधर्मः श्रुतधर्मः अत्र पुनः तीर्थं ॥५६॥
ज्ञानरूप प्रकाश सर्व लोक - अलोक को प्रकाशित करने वाला है, किसी मेघ या राहु आदि के द्वारा बाधित नहीं होता है और सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है । (किन्तु सूर्य, मणि आदि के प्रकाश अन्य के द्वारा रोके जा सकते हैं एवं स्वल्प क्षेत्र में ही प्रकाश करने वाले हैं ) ॥५४॥
इसलिए
गाथार्थ – जिनेन्द्र भगवान् निश्चितरूप से द्रव्यउद्योत के द्वारा लोक को प्रकाशित करने वाले नहीं होते हैं, किन्तु वे चौबीसों तीर्थंकर तो भावोद्योत से प्रकाश करने वाले होते हैं ॥ ५५ ॥
आचारवृत्ति — चौबीस तीर्थंकर द्रव्यप्रकाश से लोक को प्रकाशित नहीं करते हैं, किन्तु वे भाव उद्योत करने वाले होने से वे ज्ञान के प्रकाश से ही लोक का उद्योत करने वाले होते हैं यह बात व्यवस्थित हो गई । इस तरह “लोकोद्योतकरा” इसका यह व्याख्यान है ॥५५॥
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गाथार्थ - धर्म तीन प्रकार का है - श्रुतधर्म, अस्तिकाय धर्म और चारित्र - धर्म । किन्तु यहाँ श्रुतधर्म तीर्थ है ॥५६॥
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