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आवश्यकनियुक्तिः
द्रव्यलोकस्वरूपमाहजीवाजीवं रूवारूवं सपदेसमप्पदेसं च । दव्वलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं ।।४३।।
जीवाजीवं रूप्यरूपि सप्रदेशमप्रदेशं च ।
द्रव्यलोकं विजानीहि अनंतजिनदर्शितं ॥४३॥ जीवाश्चेतनावन्तः । अजीवा: कालाकाशधर्माधर्माः पुद्गला: । रूपिणो रूपरसगन्धस्पर्शशब्दवन्तः पुद्गला: । अरूपिण: कालाकाशधर्माधर्मा जीवाश्च । सप्रदेशाः सर्वे जीवादयः । अप्रदेशौ कालाणुपरमाणू च । एनं सर्वलोकं द्रव्यलोकं विजानीहि, अक्षयसर्वज्ञदृष्टो यत इति ॥४३॥
तथेममपि द्रव्यलोकं विजानीहीत्याहपरिणाम जीव मुत्तं सपदेसं एक्कखेत्त किरिओ' य । णिच्चं कारण कत्ता सव्वगदिदरह्मि अपवेसो ।।४४।।
आचारवृत्ति-जो स्वत: स्थित है वह अकृत्रिम है और जो स्थापना निक्षेप से स्थापित किया गया है वह कृत्रिम है । इस लोक में ऐसा जो कुछ भी है वह सभी स्थापना-लोक है ऐसा जानो, क्योंकि अनन्त जिनेश्वर ने उसे देखा है ॥४२॥
३. द्रव्य-लोक का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-जीव, अजीव, रूपी, अरूपी, सप्रदेशी एवं अप्रदेशी को अनन्त-जिन द्वारा देखा गया द्रव्यलोक जानो ॥४३॥ ...' आचारवृत्ति-चेतनावान् जीव हैं और धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा पुद्गल-ये अजीव हैं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द वाले पुद्गलये रूपी हैं । काल, आकाश, धर्म, अधर्म और जीव-ये अरूपी हैं । सभी जीवादि द्रव्य सप्रदेशी हैं और कालाणु तथा परमाणु अप्रदेशी हैं अर्थात् ये एक प्रदेशी हैं । इस सर्वलोक को द्रव्यलोक समझना चाहिए, क्योंकि यह अक्षय सर्वज्ञदेव के द्वारा देखा गया है ॥४३॥ - इनको भी द्रव्यलोक जानो-ऐसा आगे और कहते हैं
गाथार्थ—परिणामी, जीव, मूर्त, सप्रदेश, एक, क्षेत्र, क्रियावान्, नित्य, कारण, कर्ता और सर्वगत-ये ग्यारह तथा इनसे विपरीत अपरिणामी आदि के द्वारा द्रव्यलोक को जानना चाहिए ॥४४॥
१.
अ ब. किरिअ।
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