________________
आवश्यकनियुक्तिः
२७
किमर्थं वृषभमहावीरौ छेदोपस्थापनं प्रतिपादयतो यस्मात्आचक्खि, विभजिदं विणाएं चावि सुहदरं होदि । एदेण कारणेण दु महव्वदा पंच पण्णत्ता ।।३३।।
आख्यातुं विभक्तुं विज्ञातुं चापि सुखतरं भवति ।
एतेन कारणेन तु महाव्रतानि पंच प्रज्ञप्तानि ॥३३॥ आचक्खिदु-कथयितुं आस्वादयितुं वा । विभयितुं-विभक्तुं पृथक्-पृथक् भावयितुं । विण्णाद्-विज्ञातुमवबोधैं चापि । सुहदरं-सुखतरं सुखग्रहण । होदिभवति । एदेण-एतेन । कारणेन । महव्वदा-महाव्रतानि । पंचपण्णत्ता-पंच प्रज्ञप्तानि । यस्मादन्यस्मै प्रतिपादयितुं स्वेच्छानुष्ठातुं विभक्तुं, विज्ञातुं चापि भवति सुखतरं सामायिकं तेन कारणेन महाव्रतानि पंच प्रज्ञप्तानीति ॥३३॥
किमर्थ'मादितीर्थेऽन्तीर्थे च च्छेदोपस्थापन संयममित्याशंकायामाहआदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुटु दुरणुपाले य । पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्र्प ण जाणंति ।।३४।।
आदौ दुर्विशोधने निधने तथा सुष्ठु दुरनुपाले च । पूर्वाश्च पश्चिमा अपि हि कल्प्याकल्प्यं न जानंति ॥३४।।
गाथार्थ-जिस कारण से कहने, विभाग करने और जानने के लिए सामायिक सरल होती है उस हेतु से महाव्रत पाँच कहे गये हैं ॥३३॥
___ आचारवृत्ति-कहने के लिए अथवा अनुभव (आस्वाद) करने के लिए तथा पृथक्-पृथक् भावित करने के लिए और समझने के लिए भी जिनका सुख से अर्थात् सरलता से ग्रहण हो जाता है । अर्थात् जिस हेतु ये अन्य शिष्यों को प्रतिपादन करने के लिए अपनी इच्छानुसार उनका अनुष्ठान करने के लिए, विभाग करके समझने के लिए भी सामायिक संयम सरल हो जाता है, इसलिए महाव्रत पाँच कहे गये हैं ॥३३॥ ... गाथार्थ-आदिनाथ के तीर्थ में शिष्य कठिनता से शुद्ध होने से तथा
अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में दुःख से उनका पालन होने से, वे पूर्व (प्रथम तीर्थंकर के शिष्य और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य योग्य और अयोग्य को नहीं जानते . हैं ॥३४॥
२.
क ० नमि० ।
१. ३.
क दि अंत० । अ,ब-याणंति ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org