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आवश्यकनियुक्तिः
शुभध्यानद्वारेण सामायिकस्थानमाहजो दु धम्मं च सुक्कं च झाणे झायदि णिच्चसा ।।२८।।। ___ यस्तु धर्मं च शुक्लं च ध्यानं ध्यायति नित्यशः ॥२८॥
अत्रापि चकारावनयोः स्वभेदप्रतिपादकाविति कृत्वैवमाह-यस्तु धर्म चतुष्प्रकारं शुक्लं च चतुष्कारं ध्यानं ध्यायति युनक्ति सर्वकालं तस्य सामायिकं तिष्ठतीति । केवलिशासनमिति सर्वत्र सम्बन्धो दृष्टव्य इति ॥२८॥
किमर्थं सामायिकं प्रज्ञप्तमित्याशंकायामाहसावज्जजोगपरिवज्जणटुं सामाइयं केवलिहिं पसत्थं । गिहत्यधम्मोऽपरमत्ति णच्चा कुज्जा बुधो अप्पहियं पसत्यं ।।२९।। . सावधयोगपरिवर्जनार्थं सामायिकं केवलिभिः प्रशस्तं । गृहस्थधर्मोऽपरम इति ज्ञात्वा कुर्यात् बुध: आत्महितं प्रशस्तै ॥२९॥
वृत्तमेतत् । सावधयोगपरिवर्जनार्थं पापास्रववर्जनाय सामायिकं केवलिभिः प्रशस्तं प्रतिपादितं स्तुतमिति । यस्मात्तस्माद् गृहस्थधर्मः समारम्भारम्भादिप्रवृत्तिविशेषोऽपरमो जघन्य:संसारहेतुरिति ज्ञात्वा बुधः संयतः प्रशस्तं शोभनमात्महितं सामायिकं कुर्यादिति ॥२९॥
गाथार्थ-जो धर्मध्यान और शुक्लध्यान को नित्य ही ध्याते हैं उनके सामायिक होता है-ऐसा जिनशासन में कहा है ॥२८॥
__ आचारवृत्ति-यहाँ पर भी दो चकार इन दोनों ध्यानों के स्वभेदों के प्रतिपादक हैं । अर्थात् जो मुनि चार प्रकार के धर्म-ध्यान को और चार प्रकार के शुक्ल-ध्यान को ध्याते हैं, हमेशा उनमें अपने को लगाते हैं उनके सर्वकाल सामायिक ठहरता है-ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है । इस अन्तिम पंक्ति का सम्बन्ध सर्वत्र समझना चाहिए ॥२८॥ ____ गाथार्थ—सावध योग का त्याग करने के लिए केवली भगवान् ने सामायिक कहा है । गृहस्थ धर्म जघन्य (अपरम) है, ऐसा जानकर विद्वान् प्रशस्त आत्महित करे ॥२९॥
आचारवृत्ति-यह वृत्त छन्द है । सावध योग का त्याग करने के लिए अर्थात् पापास्रव का वर्जन करने के लिए केवली भगवान् ने सामायिक का प्रतिपादन किया है उसे स्तुत कहा जाता है । क्योंकि गृहस्थ धर्म सारम्भ समारम्भ आदि प्रवृत्ति विशेष रूप होने से अपरम अर्थात् जघन्य (संसार का हेतु) है-ऐसा समझकर संयत मुनि प्रशस्त (शोभन) आत्महित रूप सामायिक करे ॥२९॥
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