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आवश्यकनियुक्तिः
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भोगेन्द्रियविषयवर्जनद्वारेण सामायिकमाहजो रूबगंधसद्दे य भोगे वज्जदि णिच्चसा ।। २७।।
यः रूपगंधशब्दांश्च भोगं वर्जयति नित्यशः ॥२७॥ यः रूपं कृष्णनीलादिभेदभिनं, गन्धो द्विविध: सुरभ्यसुरभिभेदेन च, शब्दो वीणावंशादिसमुद्भवः, रूपगन्धशब्दा भोगा इत्युच्यन्ते चक्षुर्घाणश्रोत्राणि भोगेन्द्रियाणि, यो रूपगन्धशब्दान् वर्जयति, भोगेन्द्रियाणि च नित्यं सर्वकालं निवारयति तस्य सामायिकमिति ॥२७॥
दुष्टध्यानपरिहारेण सामायिकमाहजो दु अटुं रुदं च झाणं वज्जदि णिच्चसा । ___ यस्तु आर्तं च रौद्रं च ध्यानं वर्जयति नित्यशः ।
चकारावनयोः स्वभेदग्राहकाविति कृत्वैवमुक्यते यस्त्वार्तं चतुष्पकारं रौद्रं च चतुष्पकारं ध्यानं वर्जयति सर्वकालं तस्य सामायिकमिति ।
गाथार्थ-जो रूप, गन्ध और शब्द-इन भोगों को नित्य ही छोड़ देता है उसके सामायिक होता है-ऐसा जिनशासन में कहा है ॥२७॥ - आचारवृत्ति-कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत में रूप के पाँच भेद हैं । सुरभि के और असुरभि के भेद से गन्ध दो प्रकार का है । वीणा और बाँसुरी आदि से उत्पन्न हुए शब्द अनेक प्रकार के हैं । इन रूप, गंध और शब्द को भोग कहते हैं तथा इनको ग्रहण करने वाली क्रमश: चक्षु, घ्राण एवं कर्ण-इन तीनों इन्द्रियों को भोगेन्द्रिय कहते हैं । जो मुनि इन रूप, गन्ध और शब्द का वर्जन करते हैं तथा भोगेन्द्रियों का नित्य ही निवारण करते हैं अर्थात् इन इन्द्रियों के विषयों में राग, द्वेष नहीं करते हैं-उनके सामायिक होता है ॥२७॥
आगे दुर्ध्यान त्याग कहते हैं
गाथार्थ-जो आर्त और रौद्र ध्यान का नित्य ही त्याग करते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है ।
आचारवृत्ति-इस गाथा में जो दो बार 'च' शब्द है वे इन दोनों ध्यानों के अपने-अपने भेदों को ग्रहण करने वाले हैं । इसलिए ऐसा समझना कि जो मुनि चार प्रकार के आर्तध्यान (१. अमनोज्ञ योग, २. इष्टवियोग, ३. परिषह
और ४. निदानकरण) को और चोरी, झूठ, परिग्रह संरक्षण और षड्कायिक जीवों की हिंसा रूप आरम्भ-ये चार प्रकार के रौद्रध्यान को सर्वकाल के लिए छोड़ देते हैं-उनके सामायिक होता है ।
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