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३३, २५, २४, ४१, ४२, ४७, ४९, ५२, ५९, ५८, १६, ३, १०-इन गाथाओं का आवश्यक नियुक्ति दीपिका की क्रमशः गाथा सं. १२४१, १२४३, १२४४, १२०८, १२४७, १११०, ११११, १२२२, १४४२, १२४७, १५५१, ११०४, १००४, ८७, ८०२, ८००, ७९९, ७९८, १९१, १०६४, १९६, १९८, २००, १०६८, १०६९, ९५३, ९१८, ९९७ से मिलान करने पर ज्ञात होता है कि पाठभेद, अर्थभेद एवं भाषाभेद आदि के न्यूनाधिक अन्तर के साथ परस्पर साम्यता देखने को मिलती है । पूर्वोक्त गाथाओं के अतिरिक्त मूलाचार की गाथा सं. ४/१२४, १०/८, ३/२ इन गाथा की आवश्यक नियुक्ति की क्रमशः गाथा संख्या ७७७, १०२ एवं १२६७ से साम्यता भी काफी महत्त्वपूर्ण है ।
इन दोनों में गाथागत इन साम्यताओं के साथ ही षडावश्यकों के भेदों और उपभेदों के अध्ययन से यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आता है कि कहीं-कहीं जहाँ मूलाचारकार ने भेदोपभेदों का कथन पूर्ण मान लिया, उसके आगे आवश्यक नियुक्तिकार ने उसी के और अधिक भेदोपभेदों का कथन किया है ।
विशेषता यह कि जहाँ आवश्यक नियुक्तिकार ने कथन पूर्ण मान लिया उसी के आगे मूलाचारकार ने और अधिक भेदोपभेदों कथन प्रस्तुत कर उस विषय का विस्तार किया है । इस तरह इन दोनों ग्रन्थों का विविध दृष्टियों से तुलनात्मक अध्ययन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मूलाचार और दशवकालिक की गाथाओं की तुलना
शौरसेनी आगमों तथा अर्धमागधी दोनों में समागत कुछ बहुलोकप्रिय गाथाओं का अपना-अपना भाषागत वैशिष्टय स्पष्ट है । यथा
कधं चरे कधं चिढे कधमासे कथं सये। कधं भुझेज्ज भासिज्ज कधं पावं ण वज्झदि ।। मूलाचार १०/१२१ कहं चरे कहं चिढे कहमासे कहं सए । कहं भुंजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ।। दसवेआलियं ४/७ इन गाथाओं के उत्तर में निम्नलिखित गाथायें भी द्रष्टव्य हैजदं चरे जदं चिढे जदमासे जदं सये । जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ ।। मूलाचार १०/१२२
जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खणो । ..णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि ।। १०/१२३
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