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आवश्यकनियुक्तिः
संक्लेशा: । तान् रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गान् स्वत: कृतकृत्यत्वाद्भव्यप्राणिनां नाशयद्भ्यो विनाशयद्भ्योऽर्हद्भ्यो नम इति ॥३॥
अथार्हन्तः कया निरुक्त्या उच्यन्त इत्याहअरिहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए । रजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चंदे ।।४।।
अर्हति नमस्कारं अर्हाः पूजायाः सुरोत्तमा लोके ।
रजोहंतारः अरिहंतारश्च अर्हतस्तेन उच्यते ।।४।। नमस्कारमर्हन्ति नमस्कारयोग्या: । पूजाया अर्हा योग्याः । लोके सुराणमुत्तमाः प्रधानाः । रजसो ज्ञानदर्शनावरणयोर्हन्तारः । अरेर्मोहस्यान्तरायस्य च हन्तारोऽपनेतारो यस्मात्तस्मादर्हन्त इत्युच्यन्ते । येनेह कारणेनेत्थम्भूतास्तेनार्हन्तः सर्वलोकनाथा लोकेस्मिन्नुच्यन्ते ॥४॥
अत: किं ? अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।।५।। ___ अर्हन्नमस्कारं भावेन च यः करोति प्रयत्नमतिः । .. स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति अचिरेण कालेन ॥५॥
कृत्य हैं, साथ ही भव्य जीवों के इन राग-द्वेष, कषाय, इन्द्रिय परीषह और उपसर्गों को नष्ट करने वाले हैं, ऐसे अर्हन्त भगवान् को नमस्कार है ॥३॥ ..' गाथार्थ-[जो] नमस्कार के योग्य हैं, लोक में उत्तम देवों द्वारा पूजा के योग्य हैं, [ रज रूपी आवरण का और मोहनीय और अन्तराय कर्म रूपी ] शत्रु का हनन करने वाले हैं, इसलिए वे अर्हन्त कहे जाते हैं ॥४॥ - आचारवृत्ति-इस लोक में जो देवों में उत्कृष्ट इन्द्रादिगण द्वारा नमस्कार के योग्य हैं उनके द्वारा की गई पूजा के योग्य हैं, 'रज' शब्द से-ज्ञानावरण और दर्शनावरण का हन (विनाश) करने वाले हैं, तथा 'अरि' शब्द से-मोहनीय और अन्तराय का हनन करने वाले हैं, अत: वे 'अर्हन्त' इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं । और जिस कारण से वे भगवान् इस प्रकार सर्व पूज्य हैं उसी. कारण से वे इस लोक में अर्हन्त, सर्वज्ञ, सर्वलोकनाथ कहे जाते हैं ॥४॥
गाथार्थ-जो प्रयत्नशील भाव से अर्हन्त को नमस्कार करता है वह अति शीघ्र ही सभी दुःखों से मुक्ति पा लेता है ॥५॥
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