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आवश्यकनियुक्तिः
श्लोकोऽयं । पंचविधमाचारं दर्शनाचारादिपंचप्रकारमाचारं चेष्टयन् । प्रभासते शोभते । आचरितानि स्वानुष्ठांनानि दर्शयन् प्रभासते आचार्यस्तेन कारणेनोच्यते इति । एवं विशिष्टाचार्यस्य यो नमस्कारं करोति स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति ॥९॥
उपाध्यायनिरुक्तिमाहबारसंगे जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधे । उवदेसइ' सज्झायं तेणुवज्झाउ उच्चदि ।।१०।।
द्वादशांगानि जिनाख्यातानि स्वाध्याय: कथितो बुधैः ।
उपदिशति । स्वाध्यायं तेनोपाध्याय उच्यते ॥१०॥ द्वादशांगानि जिनाख्यातानि जिनैः प्रतिपादितानि स्वाध्याय इति कथितो बुधेः पंडितैस्तं स्वाध्यायं द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरूपं यस्मादुपदिशति प्रतिपादयति तेनोपाध्याय इत्युच्यते । तस्योपाध्यायस्य नमस्कारं यः करोति प्रयत्नमतिः स सर्वदुखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति ॥१०॥
आचारवृत्ति—यह श्लोक (गाथा) है । दर्शनाचार आदि पाँच प्रकार के आचारों को धारण करते हुए जो शोभित होते हैं और अपने द्वारा किये गये अनुष्ठानों को जो अन्यों को दिखलाते-बतलाते हुए अर्थात् आचरण कराते हुए शोभित होते हैं, इसी कारण से वे आचार्य इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं ॥९॥
आगे उपाध्याय की निरुक्ति कहते हैं- गाथार्थ जिनेन्द्रदेव द्वारा व्याख्यात (कथित) द्वादशांग को विद्वानों ने स्वाध्याय कहा है । जो उस स्वाध्याय का उपदेश देते हैं वे इसी कारण से उपाध्याय कहलाते हैं ॥१०॥
आचारवृत्ति-जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित द्वादशांग को विद्वानों ने 'स्वाध्याय' नाम से कहा है । उस द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वरूप स्वाध्याय का जो उपदेश देते हैं, अन्य जनों को उसका प्रतिपादन करते हैं इस हेतु वे 'उपाध्याय' इस नाम से कहे जाते हैं । जो प्रयत्नशील होकर उन उपाध्यायों को नमस्कार करता है, वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है ॥१०॥ - आगे साधुओं की निरुक्तिपूर्वक नमस्कार कहते हैं
१.
अ प्रति में उवदेसई ।
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