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आवश्यक नियुक्तिः
आवेशनी शरीरं इंद्रियभांडानि मनो वा आकरी । ध्मातव्यं जीवलोहं द्वाविंशतिपरीषहाग्निभिः ॥७॥
आवेसनी चुल्ली यत्रांगाराणि क्रियन्ते । शरीरे किं विशिष्टे, आवेशनीभूते । इन्द्रियाण्येव भाण्डमुपस्कारभूतं सदंशकाभीरणी हस्तकूटघनादिकं । मनस्त्वाकरी चेता उपाध्यायो लोहकारः । ध्मातव्यं दाह्यं निर्मलीकर्तव्यम् । जीवलोहं जीवधातुः । द्वाविंशतिपरीषहाग्निना । एवं द्वाविंशतिपरीषहाग्निना कर्मबन्धे ध्वस्ते चुल्लीकृतं शरीरं त्यक्त्वेन्द्रियाणि चोपस्करणभूतानि परित्यज्य निर्मलीभूतं जीवसुवर्णं गृहीत्वा मनः केवलज्ञानंमाकरी सिद्धत्वमुपगच्छति सिद्धो भवतीति सम्बन्धः । तस्मात् सिद्धत्वयुक्तानां सिद्धानां नमस्कारं भावेनः यः करोति प्रयत्नमतिः स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति ॥७॥
आचार्यस्य निरुक्तिमाह
सदा आयारबिद्दण्हू सदा आयरियं चरो । आयारमायारवंतो आयरिओ तेण उच्चदे ||८ ।।*
आचारवृत्ति - आवेशनी अर्थात् चूल्हा, जिसमें अंगारे किये जाते हैं । यह शरीर आवेशनीभूत अर्थात् चूल्हा है । इन्द्रियाँ ही भांड अर्थात् तपाने के साधनभूत पात्र, संडासी, हथौड़ा, घन आदि हैं । मन अर्थात् यह चित्त आकरीकेवलज्ञानरूप वेत्ता—उपाध्याय हैं सो वह लोहकार है । जीवरूप लोह धातु है, सो निर्मल करने को योग्य दाह्य है । बाईस परिषह रूपी अग्नि के द्वारा इस जीव रूपी लोह-स्वर्ण को तपाना चाहिए, निर्मल करना चाहिए ।
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इस प्रकार से बाईस परीषहरूपी अग्नि के द्वारा कर्मबन्ध को ध्वस्त कर देने पर चूल्हे रूप शरीर को छोड़कर और उपकरण रूप इन्द्रियों को भी छोड़कर निर्मल हुए जीवरूप लोह या स्वर्ण को ग्रहण करके, मन अर्थात् केवलज्ञानरूपी लोहकार या स्वर्णकार सिद्ध हो जाता है, ऐसा सम्बन्ध लगाना । इसलिए सिद्धत्व से युक्त इन सिद्ध परमेष्ठी को जो प्रयत्नशील जीव भावपूर्वक नमस्कार करता है वह शीघ्र ही सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है ||७|| आगे आचार्य की निरुक्ति कहते हैं
* इसके बाद फलंटन से प्रकाशित मूलाचार में यह गाथा अधिक है
सिद्धाणणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमती ।
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सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।।
अर्थात् जो भाव से मन एकाग्र करके सिद्धों को नमस्कार करता है वह सभी दुःखों से मुक्त हो सिद्ध पद प्राप्त कर लेता है ।
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