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आचेलक्कं उद्देसियं सिज्जायरपिंडे रायपिंडेकिइकम्मे महव्वए । वय जेट्टे पडिक्कमणे मासं पज्जोसवण कप्पे ।। कल्पसूत्र १.२
वाराणसी के सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक एवं प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी के विद्वान् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. भोलाशंकर व्यास ने मूलाचार और आवश्यक निर्युक्ति की समान अनेक गाथाओं का अध्ययन कर निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि 'भाषा-वैज्ञानिकों के अनुसार शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री दोनों वस्तुतः एक ही मध्यदेशीय प्राकृत के दो प्ररोह हैं । अतः अनेक भाषावैज्ञानिक महाराष्ट्री को अलग प्राकृत न मानकर शौरसेनी का ही साहित्यिक स्वरूप मानते हैं ।
इस दृष्टि से मूलाचार ( की गाथाओं) की भाषा मध्यदेशीय प्राकृत के बोलचाल के स्वरूप के अधिक नजदीक है, जबकि आचार्य भद्रबाहु द्वितीय की आवश्यक निर्युक्ति की गाथायें साहित्यिक साँचे में ढली है और इस दृष्टि से इन गाथाओं का मूलस्वरूप मूलाचार वाला ही है, जिनका परम्परा से परवर्ती कृति में साहित्यिक रूपान्तरण हो गया है ।
तुलनात्मक अध्ययन का सार
यहाँ शौरसेनी और अर्धमागधी परम्परा के कुछ आगम ग्रन्थों विशेषकर आ० नि० की तथा मूलाचार की समान कुछ गाथायें और कुछ समानान्तर गाथाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इसका यह अर्थ कभी न समझा जाय कि मूलाचारकार ने विभिन्न ग्रन्थों से तद्-तद् विषयक गाथायें ग्रहण कर इसे संग्रह - ग्रन्थ का रूप दिया और यह भी नहीं कि मूलाचार की इन गाथाओं को अन्य ग्रन्थकारों ने ग्रहण किया । क्योंकि यह तथ्य है कि तीर्थंकर महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा जब दो भागों में विभक्त हुई, उस समय परम्परा भेद के पूर्व जो अभेद श्रुतज्ञान की अजस्त्रधारा प्रवाहित थी, वह धारणा शक्ति (कंठस्थ ) के रूप में उस समय तक के आचार्यों में विद्यमान थी, अतः उसका उपयोग दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने अपनी रचनाओं में प्रसंगानुसार अपनीअपनी परम्परा के अनुसार भरपूर रूप में किया
अत: मात्र इस आधार पर किसी को प्राचीन और अन्य को अर्वाचीन नहीं कहा जा सकता । इसके लिए तो जहाँ उस ग्रन्थ में अनेक अन्तः साक्ष्य रहते हैं वहीं उस ग्रन्थ का भाषात्मक अध्ययन सबसे प्रबल साधन है ।
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