________________
( ४० )
(यत्नेन तु चरतः दया प्रेक्षकस्य भिक्षोः । नवं न बध्यते कर्म पुराणं च विधूयते ।।) जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए । जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ।। दसवेआलियं ।। (यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतमासीत् यतं शयीत ।
यतं भुञ्जानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ।।) मूलाचार के समान ही उपर्युक्त कधं चरे इत्यादि तथा जदं चरे इत्यादि ये दो गाथायें षड्खण्डागम धवला टीका (११२, पृ. १००) में भी आयी है । कधं चरे वाली गाथा में 'बुज्झदि' के स्थान पर मूलाचार की दूसरी गाथा (१०/१२२) की तरह ‘बज्झई' का प्रयोग मिलता है ।
मूलाचार में ही समागत समान गाथाओं की परस्पर तुलना-जहाँ मूलाचार और आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में अनेक गाथायें समान हैं, वहीं मूलाचार में ही ऐसी कुछ गाथायें हैं जो विभिन्न प्रसंगों में मूलाचार के ही पुन: दोदो अधिकारों में देखी गईं हैं । किन्तु यह भी एक महत्त्वपूर्ण विषय है कि उसी ग्रन्थ के लेखक आचार्य उसी गाथा को प्रसंगानुसार पुन: अन्यत्र प्रस्तुत करते हैं किन्तु उनमें थोड़ा बहुत परिवर्तन क्यों दिखलाई दे रहा है ? यथा
णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयह चिट्ठहूँ। तत्थ णिसेज्ज उवस?णसज्झायाहारभिक्ख वोसरणं ।। ४/५९ यही गाथा मूलाचार के दशम समयसाराधिकार में इस प्रकार आई हैणो कप्पदि विरदाणं विरदीणभुवसयहि चेट्टेदु । । तत्थ णिसेज्ज उवठ्ठणसज्झायाहार वोसरणे ।। १०/६१
मूलाचार की एक ही गाथा अलग-अलग चार ग्रन्थों में किस तरह विद्यमान है । यह भाषाशास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है
अच्चेलकुइसिय सेज्जाहररायपिंड किदियम्मं । वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जोसमणकप्पो ।। मूलाचार १०/१८ आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंड किरियम्मे । वदजेट्ठ पडिक्कमेण मासं पज्जोसवण कप्पो ।। भगवती आराधना ४२३।। आचेलक्कं उद्देसिय सिज्जायर रायपिंड किइकम्मे । वय जेटे पडिक्कमणे मासं पज्जोसवण कप्पे ।। आ०नि० १.२१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org