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इस वचनिका के लेखक १८-१९वीं शती के जयपुर के विद्वान् पं. जयचन्द जी छावड़ा के ज्येष्ठ विद्वान् सुपुत्र पं. नन्दलाल जी कवि हैं । ये मूलाचार ग्रन्थ के आरम्भ से षष्ठ पिण्डशुद्धि-अधिकार की १५ गाथाओं तक की भाषावचनिका लिख पाये थे कि इनका अचानक निधन हो गया । तब इनके बाद इनकी इस अपूर्ण वचनिका को इन्हीं के मित्र पं. ऋषभदास निगोत्या ने जयपुर में ही कार्तिक शुक्ला सप्तमी दिन शुक्रवार वि.सं. १८८८ को पूरा किया ।
____ यह भाषा-वचनिका आचार्य वसनन्दि की संस्कृत आचारवत्ति के ही आधार पर ही लिखी गयी है, जो पूज्य आचार्य श्री विमलसागर जी के शिष्योत्तम आचार्य भरतसागर जी महाराज की प्रेरणा से भा० अनेकान्त विद्वत् परिषद् की ओर से सन् १९९६ में प्रकाशित है । बड़े आकार में लगभग १००० पृष्ठ का यह बृहद् ग्रन्थ स्वाध्याय हेतु तो बहुत लोकप्रिय हुआ ही साथ ही उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ ने इसके श्रेष्ठ सम्पादन कार्य पर इसके विद्वान् सम्पादक-द्वय को सन् १९९६ में उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल मा० श्री सूरजभान जी द्वारा लखनऊ के राज-भवन में आयोजित विशेष समारोह में माननीय राज्यपाल ने विशिष्ट पुरस्कार से भी पुरस्कृत कर गौरव बढ़ाया । मूलाचार भाषा-वचनिका का वैशिष्ट्य
प्रस्तुत भाषा-वचनिका का पहली बार प्रकाशन है । इसके अध्ययन से इसको अनेक विशेषतायें सामने आयी है । इसके कर्ता पं. नन्दलाल जी छावड़ा ने आरम्भ में इसका जो मंगलाचरण प्रस्तुत किया है, उसमें नवदेवताओं की वन्दना के बाद मूलाचार ग्रन्थ के कर्ता और इसकी संस्कृत आचारवृत्ति के कर्ता . को नमन करते हुए भाषावचनिका के लेखन की प्रतिज्ञा की है । यथादोहा- बंदौ श्री जिनसिद्धपद आचारिज उवझाय ।
साधु-धर्म-जिनभारती-जिन-गृह-चैत्य-सहाय ।।१।। वकेर स्वामी प्रणमि नमि वसुनंदी सरि ।
मूलाचार विचारिकै भाषौं लषि गुणभूरि ।।२।। .अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पंच परमेष्ठी, ६. दसधर्म या जिनधर्म, ७. जिनभारती (जैनागम), ८. जिनगृह (जिन मंदिर) तथा ९. जिन चैत्य (जिनेन्द्रप्रतिमा)-ये जैनधर्म में नवदेवता माने गये हैं, जिनकी नित्य पूजा-वन्दना का विधान है । अत: भाषा-वचनिकाकार ने सर्वप्रथम इन नवदेवताओं का स्तवन-नमन किया है । बाद में मूलग्रन्थकर्ता मूलाचारकार आचार्य वट्टकेर के अनन्तर इसके टीकाकार आचार्य वसुनन्दि को नमन
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