Book Title: Vairagya Shataka
Author(s): Purvacharya, Gunvinay
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar
Catalog link: https://jainqq.org/explore/600040/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shR WYVINVVVVV ye श्रीजिनाय नमः । ॥ वैराग्य शतक॥ (मूल, मूलार्थ, शब्दार्थ अने भावार्थ सहित) खरतरगच्छीय श्रीमान् शांतमूर्ति मोहनलालाजी महाराजश्रीनाप्रशिष्य गणि रत्नमुनिजी महाराजश्रीना सदुपदेशथी कच्छभुज निवासी शा. नानचंद खेंगारना मातुश्री डाहीबाइना स्मरणार्थे - छपावी प्रकाशक : मुंबइ जिनदत्तनूरि ज्ञानभंडार झवेरी मुलचंद हिराचंद भगत ( पायधुनी, महावीरस्वामी देरासर ) वीर सं. २४६२ सने १९३६ RAM : मुद्रकः-श्रीजनभास्करोदय प्रेस-जामनगर. FORIER R IERRORREARRIERGROCERONICRORIAL For Private & Personal use only SAR ____JainEducation International 2010_05 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराग्य शतकम् ॥१॥ ॥ ॐ श्रीवीतरागाय नमः ।। ॥श्रीवराग्यशतकम्॥ भाषांतर सहित प्रणम्य परमात्मानं । बालबोधाय लिख्यते ॥ वैराग्यशतकस्यास्य । भाषा टोकानसारिणी ॥१॥ श्री पूर्वाचार्य महाराजे पूर्वमांधी उद्धार करीने वैराग्यशतक नामनो ग्रंथ रच्यो छे अने तेनी टीका संवत् १६४७ ना वर्षमा खरतरगच्छिय श्रीजिनचंद्रमरिना राज्यमा थएला श्रीगुणविनयनामा उपाध्याये तेनो भावार्थ लइने आ बालावबोध को - ॥ आर्यावृत्तम् ॥ संसारे असारे नास्ति सुखं व्याधिवेदनाप्रचुरे जानन् इह जीवः न करोति जिनदर्शितं धर्म संसारंमि असारे । नत्थि सुहं वाहिवेअणापउरे ॥ जाणतो इह जीवो । न कुणइ जिणदेसियं धम्मं ॥१॥ .. अर्थः-[असारे के०] सार रहित एवा, अने (वाहि के०) व्याधि, एटले शरीर संबंधि दुःख, (वेअणा के०) Iari वेदना. एटले मन संबंधि दुःख तेणे करीने (पउरे के०) प्रचुर. एटले बहुल अथवा भरेला एवो, (इह के०) __JainEducation Intemald p10_05 T w w.jainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ اللى انهيانغلق حان 15// आ. (संसारंमि के०) संसारने विषे [सुहं के०] सुख जे ते (नत्थि के०) नथी. (जाणंतो के०) ए प्रकारे जाणतो एवो |३६ वैराग्य-561 (जीवो के०) जीव जे ते (जिणदेसियं के०) जिनराजाना प्ररूपेला (धम्म के०) धर्मने (न कुणइ के०) नथी करतो! ॥१॥ || भाषांतर शतकम् भावार्थः-अनेक प्रकारना आधि, व्याधि, अने उपाधि तेणे करीने आ संसार भरेलो छे, एटले आ असार ) सहित ॥ २॥ | संसारमा काइ पण सुख नधी. एवी रीते आ जीव जाणे छे, देखे छे,अने अनुभवे छे तोय पण आ मूढ जीव जिन bril परमात्माना कहेला धर्मने नथी करतो!! ____ आ प्रथम गाथामां एम कधु के, आ जीव संसारनु असारपणुं जाणे छे, तोये पण श्रीजिनप्रणीत धर्मने नथी | | करतो; एवं कहूं. परंतु न्हानी उम्मरवाला अने तेज भवने विषे मोक्ष जनारा अने श्रोधोरभगवाननी देशना फक्त | JE | एकज वार सांभलवायी दृढ वैराग्यवान् धएला, एटलुंज नही पण ते संसारना असारपणा संबंधी माता पिता साथे | प्रत्युत्तर करी छेवटे माता पितानी आज्ञा लेह जेणे बाल्यावस्थामां दीक्षा अंगीकार करी, एवा श्रीअतिमुक्तकुमारनु वृत्तांत श्रीअंतगडदशांग अने भगवत्यादिसूत्रने अनुसारे नीचे प्रमाणे जाणवू. कथा. पोलासपुर नगरने विषे विजय नामे राजा, तेनी श्रीनामनी पट्टदेवी एटले पट्टराणी, ते बे जणनो | अतिमुक्त एवे नामे पुत्र हतो. ते पुत्र बहु इत्यमे करीने महोटो भयो, अनुक्रमे करीने छ वर्षनो थयो, ते अवसरे JCJDDLDADबाबासाDDODCOM للنا للفعالياللاكا للخالق المكالما Jain Education Interne 010_05 For Private & Personal use only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् नगरमी बहार श्रीवीरस्वामी समोसर्या. एटले पधार्या. त्यार पछी ज्ञानवंत एवा गौतम गणधर, श्रीवीरस्वावैराग्य मीने पूछी भिक्षा लेवाने अर्थ नगर मध्ये आव्या, ते अवसरे छोकराओनी संगाथे रमतो एवो अतिमुक्तक भाषांतर |३| | कुमार गौतमस्वामीने देखीने ए प्रकारे पूछतो हवो के "तमे कोण छो ? अने केम फरो छो ?” एम पूछे सते गौत-JE सहित Dमस्वामीए कह्यु के, "अमे श्रमण छीए, अने भिक्षाने अर्थे फरीए छीए." त्यारे कुमार बोल्यो " हे पूज्य ! | आवो, हुं तमने भिक्षा अपायु" एम कहीने ते कुमार गौतमस्वामी ती आंगलीए वलगीने पोताने घेर आन्यो. / ते अवसरे श्रीदेवी घणी खुशी थइ सती भक्तिये करीने गौतमस्वामीने नमस्कार करीने प्रतिलाभती हवी. 9 एटले आहार पाणी आप्या. त्यार पछी अतिमुक्तक कुमार फरीने ए प्रकारे पूछतो हवो के, "तमे क्यां रहो छो?" | PE JE त्यार पछी गौतमस्वामी कहेता हवा. “हे भद्र ! जे उद्यानमां अमारा धर्माचार्य श्रीवर्द्धमानस्वामी बसे छे त्यां अमे | वसीए छीए." एवं कह्यु. ते अवसरे ते कुमार बोल्यो. "हे स्वामिन् ! तमारी साथे श्रीवीरस्वामीने चंदन । dकरवा माटे हुं आq ?" त्यार पछी गौतमस्वामी कहेता हवा, यथासुखं देवानुप्रिय एटले हे देवताओने वल्लभ! जेम तने सुख उपजे तेम.' त्यार पछी गौतमस्वामीनी साथे आवीने अतिमुक्तक कुमार भगवंतने वंदन करतो हवो. IP त्यार पछी भगवंते धर्मनो उपदेश दीधो. ते उपदेश सांभलीने प्रतिबोध पाम्यो एवा अतिमुक्तक कुमार.BE HE दीक्षा ग्रहण करवाने इच्छतो सतो माता पितानी अनुज्ञा लेवाने अर्थे, घेर आवीने माता पिताने आ प्रकारे । Invi कहेतो हवो. " हे अंव! हे तात! में आज श्रीवीरस्वामीजीनी पासे धर्म सांभन्यो. ते धर्म मने रुच्यो. एटले 2010_05 For Private & Personal use only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् 118 11 Jain Education Interna ते धर्म करवानो मने अभिलाष थयो छे." ते अवसरे से माता पिता कहेतां हवा. "हे पुत्र ! तुं धन्य छं, तुं कृतपुण्य छं तुं कृतार्थ हुं. एटले तने धन्य छे अने कर्यु छे पुण्य ते जेणे एवो तुथयो, अने कर्यो छे अर्थ नाम प्रयोजन ते जेणे एवो तु थयो. जे कारण माटे तें वीरस्वामीजीनी समीपे धर्म सांभल्यो, अने वली ते धर्म तने रुच्यो, ते कारण माटे." त्यारपछी ते कुमार फरीने ए प्रकारे कहेतो हवो. "हे अंब! हे तात! हुं ते धर्म सांभलवादिके करीने संसा|रना भये करीने उनि एटले उपरांठा मनवालो एवो अने जन्म मरणना भयथकी भय पामेलो एवो थयो छं, ते | कारण माटे तमारी अनुज्ञाए करीने एटले रजाए करीने श्रीवीरप्रभुजीनी समीपे प्रवज्या ग्रहण करवाने इच्छं छं," एवं क. त्यारपछी ते कुमारनी माता अनिष्ट कहेतां वल्लभ नहीं एवं अने एकांतपणे अगगमतुं एवं अने अप्रिय एवं अने प्रथम कोइ दहाडो न सांभळेलं एवं, ते कुमारनं वचन सांभळीने तत्काल शोकना समूह | प्रत्ये पामी. एटले शोकातुर थई, अने दीन अने उदास एवा भने करीने सहित छे मुख ते जेतुं एवी थइ सती, मूर्छा | पामीने अंगणतलनें विषे एटले घरनाआंगणामां घसती सर्व अंगोए करीनें पडी. ते अवसरे दासीओए शीघ्र, सोनानो कलश लावीने ते कलशना मुखथकी नीकलतुं एवं शीतल अने निर्मल एवं जल तेनी धाराओए करीने एटले सुगंधवाली पाणीनी धाराओए छांटी, अने कर्यो छे ठंडा वायरानो उपचार ते जेने एवी करी सती चेतना पामीने विलाप करती थकी पुत्र प्र ये आ प्रकारे कहती हवी, "हे जात! तु अमारे एकज पुत्र छे, अने अमने इष्ट | कहेतां वल्लभ, अनेकांत कहेतां मनोज्ञ, अने प्रिय कहेतां प्रियकारी एवो, अने आभरणना करंडिया समान, एटले 2010_05 भाषांतर सहित ॥ ४ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित वैराग्य- Thd| अमूल्य रत्नतुल्य एवो, अने हृदयने आनंद उत्पन्न करनार एवो, अने उंबराना फूलनी पेठे दुर्लभ एवो तुं | शतकम् | Ka अमारे छे. एज कारण काटे क्षणमात्र पण तारा वियोगने अमे सहन करवाने समर्थ नथी. ते कारण माटे अमारे हे जात! ज्यांसुधी अमे जीवीए खांसुधी तुं घरमा रहे. पछौं सुखे करीने प्रवज्या ग्रहण करजे, एटले दीक्षा D) लेजे.” त्यार पछी ते कुमार कहेतो हवो. "हे अंब ! तमारूं कहे सत्य छे. परंतु आ मनुप्यनो भव अनेक Inf| जन्म जरा मरण रूप, तथा शरीर अने मन संबंधि अतिशे दुःखनुं वेदq पटले भोगवQ ते रुप डपद्रवे करीने पराI भव पामेलो एवो, अने अध्रुव कहेता अशाश्वत एवो; अने संव्या समयनां वादलांना रंग सरखो एवा, अने जलना परपोटा सरखो एवो; अने वीजलीना सरखो चंचल एवो; अने सडी जवु. पडी जवु, नाश पामधुं, ए छे | धर्म कहेतां स्वभाव ते जेनो एवो छे. ते प्रथम अथवा पछी जरूर खागवा योग्य छे. एटले मकवोज पडशे. A हवे कोण जाणे आपणा मध्ये कोण पहेलू परलोके जशे? अथवा कोण पछी जशे? एवी खबर पडती नथी. ते कारण माटे तमारी आज्ञाए करिने हमणांज हुं दीक्षा लेवाने इत्थं इच्छु छु." ए रीते कुमारे का. त्यार पछी | फरीने माता पिता ते कुमारने कहेतां हवा. "हे पुत्र! आ तहार शरीर विशेष रूपवालं एg, अने लक्षण xव्यंजन रूप गुणे करीने सहित एवू, अने नाना प्रकारनी व्याधिए करीने रहित एवं, अने सौभाग्यपणाए करीने | सहित एवू अने न हणाएलां एवां, अने उदात्त फहेता मनोहर अने कांत कहेता मनोज्ञ एवां, पांच इंद्रिओ * लशण-हाथ पगनी रेखादिक... - व्यंजन-प्रप तिलकादिक. TOGADAMGUninsuminuMMADHNAAD Jain Education Internal 1110_05 Mww.jainelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित वैराग्यतेमणे करीने शोभायमान एवं, एटलें अखंडित मनोहर पांच इंद्रियोए करीने रूप सौभाग्यादि गुणोने अनुभवीने | JE/ भाषांतर शतकम् RAJE एटले भोगवीने परिणत वयषालो थइने एटले परिपक्क अवस्थावालो थइने पछी प्रव्रज्या ग्रहण करजे." खार पछी ||:// ते कुमार फरीने आ प्रकारे कहेतो हवो. "हे अंब ! हे तात ! जे तमे शरीरनुं स्वरूप का, ते मनुष्य संबंधि शरीर, खलु कहेतां निश्चे दुःखज स्थानक छे, अने नाना प्रकारनी सेंकडो व्याधिओने रहेवावें घर ए, अने हाडका रूप bal | लाकडांथी उत्पन्न थएवं एy, अने नसाजाले करीने विंटाएलं एवं, अने माटीना भांडनी पेठे दुर्बल एवं, अने अशु-RHI | चिना पुद्गलोए करीने व्याप्त एवू, अने सडी जवु, पडी जळू, अने नाश थq ए छे धर्म नाम स्वभाव ते जेनो एवं JI आ शरीर, प्रथम अथवा पछी जरूर त्यागवा जोग्य थशे. ए कारण माटे आवा शरीरमां कोण बुद्धिवंत पुरुष रीझ l | पामे? एटले जे बुद्धिशाली पुरुष होय, ते तेवा शरीरमांरंजित नज थाय." ए रीते कुमारे कडं. त्यार पछी कुमारनां l R| माता पिता फरीने कहेतां हवा. "हे पुत्र! आ तहारा बापदादोधी आवेलु ए, विस्तारवंत धन, कनक, Kal रत्न, मणि, मोती, शंख प्रवालां आदि पोताने वश्य एव॒ प्रधान द्रव्य छे. जे द्रव्य सात पेढी सूधी, अतिशे | || दिनादिकने एटले गरिब लोकोने आपवा मांडयुं होय अने पोते भोगववा मांडयु होय तोपण क्षय न धाय, एटले | खूटी न जाय एवं छे. ते कारण माटे ए प्रकारचें आ द्रव्य ते प्रत्ये पोतानी खुशी प्रमाणे रूडे प्रकारे भो गवीने, पोताने सदृश रूप लावण्यादि गुणोए करीने शोभायमान एवी अने पोताना मननी रुचि प्रमाणे | | चालनारी एवी घणी राजकन्याओ परणीने. तेमनी साथे आश्चर्यकारी एवा, संसार संबंधि भोगसुख भोगवीने 51 mrrma DELIDE For Private & Personal use only Jain Education Interie 2010_05 TAMIL Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७॥ घेराग्य- hall पछी दीक्षा लेज्यो.” त्यार पछी कुमार कहेतो हवो. "हे अंध! हे तात ! तमे जे द्रव्यादिकनुं स्वरूप कह्यु | भाषांतर शतकम् र तेनुं एवी रीते जाणवू के, ते द्रव्य, खलु कहेतां निश्चे अग्नि, जल, चोर राजा, दायाद कहेतां गोत्रीलोकोए | सहित आदिक घणा लोकोने साधारण छे, एटले घणा लोकोने वश्य छे, पण द्रव्य काइ एक जणनी पासे रहेतुं । | नथी, अने अध्रुव कहेता अशाश्वतुं छै. एटले ते द्रव्य काइ निरंतर रहेतुं नथी, अने प्रथम अथवा पछी जरूर त्यागवा योग्य थशे, एटले मूकबुंज पडशे. तथा मनुष्य संबंधि कामभोग पण अशुचि एटले अपवित्र एवा, अने | अशाश्वत एवा, अने वात, पित्त, कफ, शुक्र, कहेतां वीर्य अने शोणित कहेतां रुधिर एटलाओनो छे आश्रय ते | | जेमने एवा, एटले वात, पित्त, कफ, शुक्र, शोणितमय एवा अने अमनोज्ञ कहेतां असुंदर एवा, अने विरूप कहेतां 15 A माठा भूत्र अने पुरीष कहेतां विष्टा तेणे करीने भरेला एवा, अने दुर्गध एवा छे उच्छवास अने निश्वास ते जेमना, JE | एटले उंचोश्वास अने निचोश्वास जेमनी दुर्गध छे एवा, अने मुख लोकोए अतिशे करीने सेवेला एवा, अने निरंतर | साधुजनने निंदवा जोग्य एवा, अने उत्कृष्ट भागे अनंत संसारना वधारनार एवा, अने कडवां फल रूप छे विपाक Ka ते जेमनो, एटले अंते दुर्गतिना फलने आपनार एवा कामभोग छे. इहां कामभोग कहेवे करीने तेना आधारभूत र. एटले तेमने रहेवान स्थानक एवां स्त्री पुरुषनां शरीर जाणवां. ते शरीर पूर्वे कहेला विशेषणोए करीने सहित छे, एज कारण माटे तेमने अर्थ एटले ते कामभोगोने अर्थे कोण पुरुष पोताना जीवितने निष्फल करे ? एटले जे डाह्यो f पुरुष होय ते नज करे." आ रीते कुमारे उत्तर आप्यो. त्यारपछी ते कुमारनां माता पिता, ए प्रकारे विषयने । DAULOUDLADOORDLAGUJA Jain Education Internat 1 10_05 For Private & Personal use only Jww.jainelibrary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६) अनुकूल एवां बहु वचनोए करीने ते कुमारने लोभाववाने असमर्थ थयां. पछी विषयने प्रतिकूल एवा, अने | JE/ वैराग्यशतकम् IDEA संजमना भयने देखाडनार एवां वचनोए करीने आ प्रकारे कहेतां हवा. 'हे पुत्र ! नैर्ग्रथं प्रवचनं कहेतां वीत- HTRA सहित ॥८॥ | रागर्नु कहेल ए, सिद्धांत अथवा शासन ते सत्य छ, कहेतां साचुं छे; अने अनुत्तर कहेना प्रधान छे. अने || ॥८॥ शुद्ध कहेतां दोष रहित छे. अने शल्यकर्त्तन कहेता माया शल्य, नियाण शल्य, अने मिथ्यात्व शल्य, एत्रण शल्यने नाश करनारुं छे. अने मुक्तिनो मार्ग छे. अने सर्व दुःखने नाश करनार एबुं वीतरागर्नु कहेलं प्रवचन छे. ते प्रवचनमा एटले जैनशासनमा रहेला एवाज जीवो सिद्धिपदने वरे छे. एटले वीतरागनी आज्ञाना पालनार एवाज जीवो सर्व कर्मे करीने रहित शय छे. परंतु आ प्रवचन, लोढाना चणा चाववानी पेठे अतिशे l Edil दुष्कर छे अने बेलुना कोलयानी पेठे स्वादे करीने रहित छे. अने में भुजाआए करीने महोटा समुद्र तरवानी || पेटे दुस्तर छे एटले दुःखे तरवा योग्य छे. अने वली आ प्रवचन छे ते तीक्ष्ण खड्गादिने उल्लंघन करवा जे छ, तथा दोरडादिके करीने बांधेली एवी महाशिलादिक वस्तु तेने हस्तादिके करीने धारण करवा जेतुं छे. तथा असिधारा व्रत सेवन करवानी पेठे, एटले जेम खड्गादि, अतिक्रमण करवाने अशक्य छे, तेम आ महाव्रत, पालवू अशक्य छे. वली जैनशासनमा साबुभोने आधार्मिक औदेशिकादि भोगववाने न कल्पे. dl पटले जैनना जे साधु होय तो पोताने वास्ते करेलु ए आदिक बेतालीश दोष सहित वस्तु ग्रहण करे नही. Ki अने हे पुत्र! तुं तो सदाय काल सुखमां उत्पन्न भएलो छु. कोइ दहाडो पण दुःखमा रह्योज नथी. एज SamL2 OLDLIDDLED DOODLDC For Private & Personal use only Jain Education Interne 010_05 Jatil PS Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य-M | कारण माटे तुं शीत कहेतां टाढ अने उष्ण कहतां घाम, क्षुत् कहेनां क्षुधा, पिपासा कहेनां तृषा, दंश कहेतां डांस, मशक कहेंतां मगतरां, अने नाना प्रकारना रोगादि रूप, परिषह, उपसर्गो मत्ये सहन करवाने समर्थ नथी. ते कारण माटे हमण तने दीक्षा लेवाने अर्थे आज्ञा आपवाने अमे इच्छतां नयी. अर्थात हम त | आज्ञा नही आपीए." त्यार पछी कुमार कहेतो हवो. "हे अंब ! हे तात! तमे जे संजमनी दुष्करता देखाडी ते दुष्क रता खलु कहेतां निचे क्लिब पुरूषोने अने कातर पुरुषोने एटले कायर पुरूषोने अने कुत्सित पुरुषोने अने आ लोकने | विषे प्रतिबंधवाला पुरुषोनें एटले आ लोकमांज सुख मानी वेठेला तेवाओने, अने परलोकधी अबला मुख| वाला थएला एवा लोकोने एटले परलोकना सुखना अजाण लोकोने, अने विषयनी तृष्णावाला लोकोने छे. | एटले पूर्वे कला एवा लोकोने संजमनुं दुष्करपणुं लागे छे. पण खलु कहेतां निश्वे धीर पुरुषने अने संसारना भयथी उद्विग्न धएला एवा पुरुषने दुष्कर नथी. एटले संजम पालवो कठण नथी. ते कारण माटे हुं तमारी आज्ञाए करीने हम गांज प्रव्रज्या लेवाने इच्छं छं." त्यार पछी ते माता पिता फरीने कहेतां हवा. "हे बाल ! आटलो हठ तुं न कर. तुं शुं समजे छे ?” त्यारे अतिमुक्तक कुमार कहेतो हवो. "हे अंब ! हे तात ! जे | हुं जाणुं हुं तेज नधी जाणतो, अने जे नधी जाणतो तेज हुं जाणुं छं." त्यार पछी ते माता पिता कहेतां हवां, "हे पुत्र ! आम केम बोले छे?” त्यारे ते कुमार कहेतो हवो. "हे माता पिताओ ! हुं जाणुं छं के, जे जनभ्यो लेने जरूर मरखुं छे. परंतु एटलं नथी जाणतो के, ते क्यारे मरशे ? अथवा किया स्थानमां मरशे ? 「 शतकम् ॥ ९ ॥ Jain Education Interas 2010_05 भाषांतर सहित ॥ ९ ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' अथवा केवे प्रकारे मरशे? अथवा केटले काले मरशे ? ए हुं नथी जाणतो. तथा हुं नथी जाणतो के, किया कौए । ३६ वैराग्य भाषांतर Ht करीने नरकादिकने विषे जीवो उत्पन्न थाय पण आटलं जाणुछ के, पोताना करेला कौए करीने जीव नरका-DELI शतकम् सहित ॥१०॥ दिकोमा उत्पन्न थाय छे." ए रीते कुमारे उत्तर आप्यो. त्यार पछी तेनां माता पिताओ ते कुमारने, संजमने || विषे स्थिर चित्तवालो जाणीने महोटा आडंबरे करीने निकलवानो महोटो उत्सव करतां हवा. ते अवसरे अतिमुक्तक कुमारे स्नान कहेता नहावू, अने विलेपन कहेतां शरीरे चंदनादिकनो लेप करवो, अने वस्त्र आभरणादिकोए । करीने शोभाव्यु छे शरीर ते जेणे एवो, अने माता पितादिक बहु परिवारे करीने परिवरेलो एवो, महोटी शिबि-JE | कामां (पालखीमां) बेसीने नाना प्रकारना वाजिंत्रनो शब्द थये सते ज्यारे नगर मध्ये थइने निकलता हवो, ६ । त्यारे घणा द्रव्यना अर्थि भट्टादि लोको, मनोज्ञ वाणीए करीने आ प्रकारे आशिष देता हवा. के, हे राजकु मार! तु धर्मे करीने अने वली तपे करीने कर्मरूप शत्रु प्रत्ये जीत. वली हे जगतने आनंदना करनार ! तहार कल्याण धाओ. वली तुं उत्तम कहेता प्रधान एवा ज्ञान दर्शन चारित्रोए करीने न जीतेला एवां इन्द्रियो प्रत्ये।। BE जीत. अने अंगीकार करेलो एवो साधुनो धर्म ते प्रत्ये रूडे प्रकारे पाल. वली तुं निर्विघ्नपणे करीने सिद्धि । स्थानकने पाम. ए प्रकारे आशिष दीधी. त्यार पछी ते अतिमुक्तक कुमार ए प्रकारे जाचक लोकोए स्तवना d rd करवा मांडेलो एवो, अने नगरना रहेनार नर नारीओए आदर सहित जोवा मांडेलो एवा, अने जाचक RE लोकोने वांछित दान प्रत्ये आपतो एवो, नगर थकी बहार निकलीने ज्यां श्रीवीरस्वामीजीनु समवसरण छे, - Jain Education intomate For Private & Personal use only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- त्यां आवीने शियिका थकी उतयों. एटले पालखीथी हेटो उतयों. त्यार पछी माता पिता, ते कुमारने आगल || भाषांतर शतकम् | करीने श्रीवीरस्वामीजीनी समीपे आवीने वंदनादि पूर्वक एटले वंदनादि नमस्कार करीने आ प्रकारे कहेतां३६ सहित | हवा. हे स्वामिन् ! आ अतिमुक्तक कुमार अमने वहालो छे, अने अमने मनोज्ञ छे, अने ए अमारे एकज पुत्र || ॥ ११ ॥ Jt छे; परंतु जेम कमल, कादवने विषे उत्पन्न थाय छे, अने वली पाणीने विषे वृद्धि पामे छे, पण कादव अने पाणीए. hd करीने लेपातुं नथी, तेम आ अतिमुक्तक कुमार पण शब्द, रूप, ए के लक्षण ते जेमनु एवा कामोने विषे उत्पन्न dथयो छे, अने गंध, रस, अने स्पर्श ए छे लक्षण ते जेमनुएवा भोगोने विषे वृद्धि प्रत्ये पाम्यो छे, पण ते JE कामभोगोने विषे अने मित्र, ज्ञाति, स्वजनः संबन्धि एवा लोकोने विषे लेपायो नथी. अर्थात् ममताए करीने JE Jt | रहित छे. वली आ कुमार संसारना भये करोने उद्विग्न थयो सतो एटले विरक्त मनवालो थयो सतो आपनी पासे दीक्षा लेवाने इच्छे छे. ते कारण माटे अमे आपने आ शिष्यरूप भिक्षा प्रत्ये आपीए छीए आप पण आ शिष्यरूप भिक्षा प्रत्ये अंगीकार करो. सारे स्वामिए कह्यु, हे देवानुप्रियो ! जेम तमने सुख उपजे तेम. प्रतिबंध करशो नही. एटले ममता करशो नही. लार पछी अतिमुक्तक कुमार भगवंतन वचन सांभलीने | खुशी थयो सतो भगवंत प्रत्ये त्रण प्रदक्षिणा करीने अने नमस्कार करीने उत्तर पूर्व दिशिने विशे एटले , इशान खूणामां जइने पोतानी मेलेज आभरण माल्य अलंकार प्रत्ये मूकतो हवो. ते अवसरे माता, उज्वल वस्त्रे करीने आभरणादिक प्रत्ये ग्रहण करीने आंखो थकी आंसु मूकती थकी अतिमुक्तक कुमारने ए प्रकारे 4SA Jain Education Inter 2011 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यकहेती हवी. हे पुत्र ! पामेला एवा मंजम जोगोने विषे तहारे प्रयत्न करवो. अने न पामेला एवा संजन भाषांतर शतकम् | JE जोगोने पामवाने अर्थे घटना एटले रचना करवी. वली प्रत्रज्या पलवाने विषे पोताना पुरुषपणानो अभि-JE सहित मान सफल करवो, अने प्रमाद तो करवोज नही. ए प्रकारे कहीने त्यार पछी माता पिताओ भगवंत प्रत्ये ॥ १२॥ | नमस्कार करीने परिवार सहित पोताने स्थानके गया. त्यारपछी अतिमुक्तक कुमार, श्रीवीरस्वामी समीपे l | आवीने वंदनादि करीने प्रवर्जित थयो. त्यारपछी श्रीवीरस्वामीए पण पंचमहावत ग्रहण कराववा पूर्वक एटले | |पंचमहाबत ग्रहण करावीने क्रिया कलापादि शीखवाने अर्थे गीतार्थ एवा स्थविर मुनियोने सोंप्यो. त्यार पछी | प्रकृतिए करीने भद्रक एवो, अने विनीत एवो, अतिमुक्तक नामे कुमार श्रमण, एक दहाडो महोटी वृष्टि | JE/ |पडे सते एटले घणो वरसाद पडे सते कारखने विषे पात्रु अने जोहरण लेइने बहार निकल्यो. त्यां जलनो ||| प्रवाह वहेतो देखीने बाल अवस्थाना वश थकी माटीप करीने पाल बांधीने जेम नावनो चलावनार नाव प्रत्ये चलावे छे, तेम आ अतिमुक्तक साधु पात्राने, आ महारी नाव छे, ए प्रकारे कल्पना करीने ते पाणीमां चलावतो सतो रमतो हवो. ते अवसरे स्थविर मुनियो तेनी ते अतिशे अघटीत चेष्टा देवीने ते साधु प्रत्ये हांसी करना होय ने शुं जेम ! एम भगवंत समीपे आवीने भगवंतने ए प्रकारे पूछता हवा. हे स्वामिन् ! आपनो अंतेवासी | Ioe अतिमुक्तक नामे कुमार श्रमण, केटला भवोए करीने सिद्धिपदने वरशे? त्यारे भगवंते कयुं. हे आर्यो! महारो hil अंतेवासी अतिमुक्तक साधु, एज भवमा मिद्विपदने वरशे. ते कारण माटे हे रूडा पुरुषो! तमे अतिमक्तक कमार | - ADDAUNULMULADA ___JainEducation inten 0 10_05 For Private Personal use only J IF Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- श्रमणनी जात्यादिकने उघाडवा थकी हीलना न करो. अने तेनी उचित सेवा न करके करीने निंदा न करशो. अने | भाषांतर शतकम् || मने करीने लोकनी समक्ष गहां न करशो. अंने तेनी अवज्ञा न करशो. वली हे देवानुप्रियो ! ए अतिमुक्तक साधुने | सहित ॥ १३ ॥ ३. अखेदे करीने अंगीकार करो. अने अखेदे करीने तेनी महाय्य करो. तथा भात पाणी लावी आपवारूप विनये करीने 56 ॥ १३ ॥ एनी वैयावच्च करो. जे कारण माटे आ मुनि, भवनो अंत करनार स्वच करा. जे कारण माटे आ मुनि, भवनो अंत करनारज छे. एटले संसारनो उच्छेद करनारज छे. अने | चरम शरीरवालो छे' एटले आ एने छेलं शरीर छे. ए रीते ते ज्ञानवंत एवा स्थविर मुनियोने भगवंते का. त्यार | dl पछी ते स्थविर मुनियो भगवंतने वंदन नमस्कार करीने भगवंतना वचनने विनय पूर्वक अंगीकार करीने अतिमुक्तक RE र कुमार श्रमण प्रत्ये अखेदे करी अंगीकार करता हवा. जावत् वैयावच्च प्रत्ये करता हवा. त्यार पछी अतिमुक्तक मुनि ३६ जे ते पण, ते पापस्थानने आलोवीने नाना प्रकारनी तपश्चर्यादिके करीने संजम प्रत्ये सम्यक् प्रकारे आराधन करीने J अंते अंतकृत केवली थइ सिद्धि प्रत्ये जता हवा. इति अतिमुक्तक मुनिनु वृत्तांत जाणवू. इहां अतिमुक्तक कुमारने | छ वर्षनी उम्मरमां दीक्षा आपी छे. तेनु कारण के, भगवंत पोतेज दीक्षा आपनार छे; माटे तेमां विरोध जाणवो नही. A अश्य कल्ये परस्मिन् परतरस्मिन्वर्षे पुरुषाः चिंतयंति अर्थसंपनि अंय कल्लं परं पगरि । पुरिसा चितंति अच्छसंपत्तिं ॥ UCA. daoung - - Jain Education Internat 2 010_05 For Private & Personal use only Emww.jainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमा LAA अंजलिगतं इव तोयं गलत्आयुः न पश्यंति बराग्यः भाषांतर अलिगयं ३ तोयं । गलतमा नै पिच्छंति ॥२॥ सहित ॥ १४ ॥ अर्थ:-(पुरिसा के०) पुरुष. अर्थात् मूढ पुरुषो जे ते, (अयं के०) आज (कल्लं के०) काल्य (परं के०) पहोर.BE DE एटले आवते वर्ष, (परारि के०) परार्य. एटले तेथी पण आगल्ये वर्ष, [अच्छ के०] अर्थ. एटलै धन तेनी, (संपति Tal०) प्राप्ति तेने [चितंति के०) चितवे छे. एटले विचारे छे. अर्थात् आज मारे संपत्ति थशे, काल्य म्हारे संपत्ति 5 थशे, पहोर महारे संपनि थशे, अथवा परार थशे, एवी अशाये करीने दिवस गमावे छे, परंतु ते पुरुष (अंजलि| गयं के०) अंजलिने विष रहेलं ए, [तोय व के०] पाणी तेनी पेठे (गलतं के०) गलतु. एटले स्रवतुं एवं (आउं के०) || आउखाने (न पिच्छति के०) नथी देखता ॥२॥ भावार्थ:-यली ते मूढ पुरुषो मनमा एम विचारे छे के, महारे आज, काल्य, पहोर अथवा परार्य, धननी घणी प्राप्ति थशे. एम विचार कर्या करे छे. परंतु हाथेलीमा रहेला पाणीनी पेठे क्षणे क्षणे नाश पामता एवा पोताना आउखामा विचार नथी करता ॥ २॥ यत् कल्ये कर्त्तव्यं तत् अद्य एव कुरुध्वं त्वरमाणाः बहुविघ्नं एत्र. मुहूर्त मा अपराह्न · प्रतीक्षध्वं RAG केल्ले कायवं । तें अज्ज चिर्य करेहं तुरमाणी ॥ बहुविग्धो हुँ मुद्दुत्तो मा अवेरएहं पडिक्खेहैं ॥ ३ ॥ DDDDDDLUCLnDLJane DLIDULLABULABULBULUCLEADLODLA D Jain Education Internati 1 0_05 For Private & Personal use only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ।। १५ ।। अर्थ :- हे प्राणियो ! [जं के० ] जे धर्मकार्य ( कल्ले के०) काल्य [कायव्वं के० ] करवा योग्य होय, [तं के०) तेने (अलंचिय के०) आजज (तुरमाणा के०) उतावला [करेह के०] करो. केमके, (मुहुतो के०) मुहूर्त्त. एटले काल विशेष जे ते, [हु के०] निश्चे (बहुविग्धो के०) घणा विघ्नवालो छे. माटे जे धर्मकार्य पहेला पहोरमां करवानुं होय तेने ( अवरह के ० ) अपराह्न एटले पाछला पहोरे करीशुं. एम (मा पडिक्खेह के० ) विलंब न करो ॥ ३ ॥ भावार्थ:- हे भव्य जीवो! जे धर्म संबन्धी काम काय करवानुं होय, तेने उतावलधी आजज करो. केमके सारां काम करवानी वखते, निश्चे घणां विघ्न आवी पडे छे. माटे जे धर्मकार्य पाछला पहोरे करवानुं होय, तेने पहेला पहोरमांज करी ल्यो. अर्थात् जे धर्मकार्य, जे वखते करवं घटतु होय, तेने तेज बखते करी ल्यो ॥ ३॥ इतिखेदे संसारस्वभावस्य आचरणं स्नेहानुरागरक्ता अपि ये पूर्वा दृष्टाः ते अपरा न दृश्यं ही संसारसहावं । चरियं नेहाणुरायैरन्तावि ॥ जे पुवएंहे दिहा । तें अवर्रएहे ने दीसंतिं ॥४॥ अर्थ: - ( संसार सहावं चरियं के० ) संसारनो जे स्वभाव, तेनुं जे आचरण, तेने देखीने हमने, (ही० के०) घणो खेद धाय छे. केमके, (जे के०) जे [ नेहाणुरायरतावि के० ] स्नेहना अनुरागे करीने रक्त एवा पण, अर्थात् प्रेम बन्धने करी बन्धायेला एवा पण, स्वजनादिक जे ते (पुव्वर हे के० ) प्रातःकालने विषे [ दिन के ० ] दीठा, [ते के०] तेज [अवर हे के० ] सांजे (न दीसंति के ० ) नधी देखाता ! ! ॥ ४ ॥ Jain Education Inter2010_05 毛毛眊儿美兆兼美兆、 भाषांतर सहित ॥ १५ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ १६ ॥ Jain Education Inter भावार्थ: - ही इति खेदे !! अहह !!! अहो ! आ संसारनो श्यो स्वभाव छे ? के, जेना स्वभावनो विचार करतां तरतज खेद उत्पन्न थाय छे !! केमके, जे परस्पर प्रेमबन्धने करीने गाढां बन्धायेलां छे, तेवां स्वजनादिक पण जे प्रातःकाले दीठां होय, तेनां तेज स्वजनादिक सांजे देखातां नथी !! एटले स्नेहानुरागे करीने गाढपणे बन्धायेलाने परस्पर विजोग न पडवो जोइए, तोपण संसारनो एवो स्वाभाव छे के, जे प्रथम क्षणमां दीहूं, ते बीजा क्षणमां तेवुने तेनुं नथी देखातुं माटे तेमनो विजोग थाय छे. एटलुंज नहि पण स्थूल विजोग पण थया करे छे ॥ ४ ॥ मा स्वपिथ जागरितव्ये पलायितव्ये कस्मात विश्राम्यथ मां सुअंह जग्गंअधे । पलाई अवंमि की त्रयः जनाः अनुलग्नाः रोगः च जरा तिन्नि जैणा अणुलैग्गा । रोगो अ जंरा वीसंमेह || अर्थः- हे लोको ! (रिंगअब्वे के०) जागवाने ठेकाणे. अर्थात् धर्म कृत्वने विषे [मा सुअह के० ] न सह रहो. | अर्थात धर्म कृत्यने विषे प्रमाद न करो. अने (पलाहअव्वंमि क्रे०) नासवानी जग्याए (कीस के० ) केम [वीसमेह के ] विसामो करो छो ? अर्थात् आ संसार नासवानी जग्या है, तो तेमां निरांते केम बेसी रह्या छो ? केमके, [रोगो के० ] रोग [अ के० ] वली ( जरा के) वृद्धावस्था (अ के०) वली ( मच्चू के०) मृत्यु (अ के० ) एज [तिभि जणा के० ] ऋण 2010 05 च मृत्युः एव अ मैच्चू अं ॥ ४ ॥ भाषांतर सहित ॥ १६ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- जण जे ते (अणुलग्गा के०) तमारी पुंठे लाग्या छे. एटले तमारी केडे पड्या छे. मारे धर्मकृत्यमा प्रमाद न करो ॥५॥ भाषांतर शतकम् | भावार्थ:-हे धर्माधि जीवो ! जेम आ ठेकाणे लोकोक्ति एवी छे के, जेनी पासे धन होय, तेमणे लुटावानी सहित ॥ १७॥ जग्याए जागता रहे, अने नासवानी जग्याए बेसीन रहेवू, तेम धर्मकत्यने विषे प्रमाद न करवो. अने नासवा|| ३८ योग्य एवो जे संसार तेमां बेसी न रहे. शाथी के, रोग, जरा, अने मृत्यु ए त्रण दुष्मनो तमारी पुंठे निरंतर पडे. || लाज छे, माटे प्रमाद छोडीने धर्म करणीमां सावधान रहो. ॥५॥ दिवसनिशाघटीमालया आयुःसलिलं जीवानां गृहीत्वा चंद्रादित्यबलीवर्दी कालएवअरहट्टस्तं भ्रामयतः | दिवसनिसाघडिमालं । आउसलिलं जीआण वित्तणं ॥ चंदाइचबइल्ला । कालरहट्ट भमोडंति ॥६॥ ril अर्थः-(चंदाइच्च के०) चंद्र सूर्यरूप [षडल्ला के०] बलद जे ते (दिवसनिसा घडिमालं के०) दिवस रात्रिरूप KH/ घडानी श्रेणियो वडे (जिआण के०) जीवनुं [आउ के०] आउखा रूप [सलिलं के०) पाणीने [चित्तूणं के०] ग्रहण | ३९ | करीने [कालरहट्ट के०] काल रूप रहेंटने [भमाडति के०] उंचे नीचे भमावे छे. अर्थात् उंचे नीचे फेरवे . ॥ ६ ॥ सार्थ:-चंद्र अने सूर्य ए रूप धोलो ने रातो एवा घणा बलवान दे बलद जे ते दिवस अने रात्रि ते रूप लाल At ने काला घडानी श्रेणियोवडे, जीवोनुं आउखा रूप पाणीने उलेची नांखवाने, काल रूप रहेंटने फेरवे छे; माटे हे भव्य प्राणियो ! आईं नजरे जोहने पण तमने संसार उपरथी उदास भाव केम नथी धतो ? ॥ ६ ॥ Jain Education Intern 11010_05 For Private & Personal use only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा नास्ति कला सत् नास्ति औषधं तत् नास्ति किमपि विज्ञानशिल्प बैराग्य भाषांतर शतकम् सी नस्थि कला ते नैस्थि । उसंह तं नैस्थि किंपि' विनाणं ॥ सहित ॥१८॥ येन धियते कायः खाद्यमानः कालसर्पण जेणे धरिजइ काया । खजंती कालसंप्पेणं ॥ ७ ॥ अर्थ:-हे भव्य जीवो ! [कालसप्पेणं के०] काल रूप सर्प [खनंती के०] खावा मांडेली एवो [काया के०] देह JE / जे ते [जेण के०] जेणे करीने (धरिजइ के०) धारण करीए, अर्थात रक्षा करीए, (सा के०) ते अर्थात् तेवी [कला के०] 15 Jt बहोतेर कला माहिली कोई पण कला [नत्थि के०] नथी (तं के०) ते. अर्थात् तेवु (उसहं के०) औषध [नस्थि के०] RE] नथी. (तं के०) ते अर्थात ते [किंपि के०] कांई पण (विन्नागं के०] विज्ञान. अर्थात् शिल्प चातुरी [नत्यि के०] 25 नथी. अर्थात् पडता शरीरनी रक्षा करे, एवी कोइपण वस्तु नथी. भावार्थः-काल रूप सर्प, आ शरीरनुं भक्षण करो ले छे, ते कालरूप सर्पने निवारण करे एवी कोइ ३६ JE पण कला नथी. तथा काल रूप सर्प दंशैली कायानं झेर उतारवा समर्थ कोड पण औषध नथी, तथा जगतमां अनेक प्रकारनी शिल्प चातुरी छे, पण कोई शिल्प चातुर्य एवं नथी के, जेथी कालरूप सर्पनुं झेर लागेज नहीं. माटे हे are भव्य प्राणियो! मोटा मोटा समर्थ पुरुषोनां वज्र समान शरीरने पण काल रूप सर्प गली गयो छे तो आपणा रांक adl जेवानी काची कायानो श्यो भरुसो ? माटे शीघ्रपणे धर्मकृत्य करी ल्यो. ॥ ७ ॥ Anima LALLALPA ___ JainEducation intendan2010_05 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وفیه و भाषांतर सहित ॥ १९ ॥ धराग्य दीर्घफणींद्रएवनाले महीधराएवकेसरे दिशएवमहादले शतकम् दीहरफर्णिंदनाले । महिअकेसर दिसामहदेलिल्ले ॥ ऊ इतिपश्चात्तापे पिवति कालएवभ्रमरः जना एव मकरंदं पृथ्वी एव कमले पीअई कालभैमरो । जणमयरंद पुहविर्ष उमे ॥ ८॥ अर्थ:-(ओ के०) ओ इति खेदे ! एटले आ घणी खेदकारक वार्ता छे. अर्थात् आ वात जे न जाणे तेने पश्चाचाप घणो थाय छे. (काल भमरो के०) कालरूप भ्रमर जे ते (दोहर के०) दीर्घ एटले महोटुं (फणिंदनाले के०) शेषJE नागरूप छे नाल ते जेनुं एवं, ने (महिअर केसर के०) महिधर एटले पर्वत ते रूपले केसरा ते जेने विषे एबु, ने a (दिसा महदलिल्ले के) दिशा रूप छे महोटां पत्र ते जेने विषे एवं [पुहवी पउमे के०] पृथ्वीरूप कमलने विषे । hd [जणमयरंदं के०] जनरूप मकरदने अर्थात् लोकरूप रसने (पीअइ के०) पीए छे. ॥ ८ ॥ Rail भावार्थ:-लोकमां एवी प्रसिद्धि छे के. भमरो कमलमाथी एवी रीते रस ले के, जेथी करीने ते कमलने लगार मात्र इजा न थाय, तेवी रीते पोताने खप जेटलोज मधुर स्वरे बोलीने थोडो थोडो रस ले छे, परंतु आ JE जग्याए तो तेनाशी तमाम उलटी रीते जाणवा जेवूछे; माटे ते वार्तानो विचार करतां भव्य प्राणीओने तो दयाना PE अधिक प्रणामधीं कंपारो छूटया विना रहेज नहीं ! ! जेम के, कालरूप असंतोषी एवो एक भमरो छे, ते पृथ्वीरूप اونجا واقفا للفحة نطن لا اله الا لمسنا فلما سمینان :CANADAAMRAPALALLAULAULABJada Jain Education Internal 1010_05 For Private & Personal use only Jnww.jainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ २० ॥ Jain Education Inten कमलमांथी लोकरूप तमाम रसने, व्याधि वेदनारूप क्रूरपणुं वापरीने चूशी ले छे.. पटले कोइ मागसने ते ते काल भक्षण कर्या विना रहेतोज नथी. इहां पृथ्वीरूप कमलनुं शेषनागरूप नालवु कयुं, ते लोकोक्तिथी जाणवु एटले लोकमां एवं कहेवाय छे के, आ बधी पृथ्वीने शेषनागे माथा उपर उपाडी लीधी छे. वली ए पृथ्वीरूप कमलमा पर्वतो, ते केसराने ठेकाणे छे, ने दश दिशायो ते महोयं महोटां पांदडांने ठेकाणे छे. आवा महोटा कमलनो रस निरंतर पीतां पण कालरूप भ्रमरो आज सुधी पण तृप्त थयो नथी, ने थतो पण नथी; अने | थशे पण नही. माटे हे भव्य प्राणीयो ! कालरूप भमराना आस्वादनम न अवाय; एवा आत्मस्वरूपने पामवाना साधननां प्रमाद छोडीने उद्यम करो !! ॥ ८ ॥ छायामिषेण कालः सकलजीवानां छलं गवेषयन्सन् पार्श्व कथमपि न मुञ्चति तस्मात् धर्मे उद्यमं कुरुध्वं छायामिसेण कीलो । सयलजीआणं छेलं गवेसंतो ॥ पांसं कहेंबि न मुंचेइ । ती पैम्मे उज्जैमं कुह । ९॥ अर्थः- (छलं के०) छलने (गवेसंतो के०) गवेषणा करतो एवो ( कालो के०) काल जे ते, (छायामिसेण के० ) | शरीरनी छायाने विषे (सयलजीआणं के०) सकल जीवोनुं ( पासं के०) पासुं तेने (कहवि के०) कोइ प्रकारे पण (न | मुंचइ के०) नथी मुकतो, (ता के०) ते हेतु माटे (धम्मे के०) धर्मने विषे ( उज्झमं के० ) उद्यमने (कुणह के ० ) करो |२| भावार्थ :- हे भव्य प्राणियो ! रात्रि दिवस छिद्रने खोलतो, एटले आ प्राणी क्यारे स्खलना पामे के, एने हूं। 2010_05 元兆琵雅毛毛 भाषांतर सहित ॥ २० ॥ . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- 100 पकडी लेउ, एवी वांछाये निरंतर छायाने विषे पकडवाने माटे पछवाडे पडेलो एवो जे काल, ते कोई प्रकारे भाषांतर शतकम् || पण पाछो हठे एवो नथी. एतो जरुर ओंचितो झाली लेशे. ते वखते तमने घणो पश्चात्ताप थशे के, अरेरे? | सहित ॥२१॥ R आपणे काई पण धर्मसाधन करी शक्या नहीं ! माटे जिन प्रणीत अहिंसादिक धर्मने विषे, ज्यां सुधी कालना ॥ २१॥ झपाटामां बरावर नथी आव्या, त्यां सुधीमां कांइ पण प्रयत्न करी ल्यो. ॥९॥ काले अनादौ । जीवानां विविधकर्मवशगानां कोलंसि अणाईए । जीवाणं विविहकम्मवसगाणं ॥ तत् नास्ति संविधान-भेदत्वं संसारे यदेकेंद्रियादित्वं न संभवति ते नत्यि' संविहाणं । संसारे जं न संभवइ ॥ १० ॥ अर्थः-(अणाईए के०) आदि रहित एवा [कालंमि के०] कोलचक्रने विषे परिभ्रमण करता एवा, ने [विविहPal कम्मवसगाणं के०] नाना प्रकारना कर्मने वश थएला एवा (जीवाणं के) जीवोने [संसारे के०] संसारने विषे (जं के०) जे (संविहाणं के०) संविधान, अर्थात् एकेंद्रियादिक भेद [न संभवइ के०] प्राप्त थयेलो नथी संभवतो एम, [तं. Dनस्थि के०] ते नथी. अर्थात सर्वे एकेंद्रियादिक भेद ए जीवने थएला संभवे छे. ॥ १० ॥ ___भावार्थ:-काल, कर्म, जीव, अने संसार ए सर्वेनुं अनादिपणुं छे, माटे आ जीव कर्मना वशे करीने अनादि ULI 2010_05 HT ww.jainelibrary.org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ २२ ॥ Jain Education Interna कालनो कालचक्रने विषे परिभ्रमण करतां करतां संसारने विषे सघला एकेंद्रियादिक भेदने पामी चूक्यो छे. पण एवं न कही शकाय के, अमुक भेद नधी पाम्यो. माटे हे भव्य प्राणियो ! आज तमे अहंकार करो छो, पण तमे तो केटलीएक बखत गधेडा पण था छो, कूतरा पण थया छो, अने वली ज्यारे बोर भूला मोगरी आदिकनी जातिमां उत्पन्न थया त्यारे तो तमने न्हानां छोकरांए पण दाणा साटे वेचाथी लीधा, एटलुंज नही पण उपर माग्यामां पण गया. यावत् विष्टाने विषे कीडापणे पण उत्पन्न थह चुक्या छो. तेना तेज तमे, आज | शेठ शाहूकार बनीने बेठा छो. माटे तमे सर्व प्रकारनुं मान सूकीने धर्मकार्यमा प्रवर्त्तो ॥ १० ॥ ॥ अनुष्टुप्वृत्तम् ॥ मातापितरौ बांधवाः सुहृदः सर्वे पुत्रभार्याः प्रेतवनात्झ्मशानात् निवर्तते दत्त्वामृतंप्रति सलिलांजलि बंधंवा सुहिणो संधे । पिअमाया पुतभारिया । पेअर्वणाउ निअंर्त्तति । दाऊँणं सलिलंर्जलिं ॥११॥ I अर्थः- (सवे के ० ) सर्व एवा (बंधवा के०) बांधव (सुहिणो के०) सुहृद एटले मित्रो तथा [पिअमाया के० ] | माता पिता (पुतभारिया के०) पुत्र तथा स्त्री, ते सर्व जे ते, मरी गयेला मनुष्य प्रत्ये (सलिलंजलि के ० ) पाणीनी (अंजलीने (दाऊणं के०) आपीने (पेअवणाओ के०) श्मशान थकी [निअसंति के० ] पाछा घेर आवे छे. पण मरेला मनुष्यनी संगाथे कोइपण मनुष्य जता नथी. ॥११॥ 2010_05 兆兆 भाषांतर सहित ॥ २२ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धेराग्य भावार्थ:--हे जीव ! आ सघला देहना संपन्धि छे, पण ए कोइ तहार सम्बन्धि नथी केमके, स्वजन 01 भाषांतर शतकम् । तथा मित्रो, माता, पिता, पुत्र, अने स्त्री ए कोइ माणस तहारां सगां नथी. केमके, जे देहनी संगाथे तेमने सहित ॥२३॥ ॥ २३ ॥ Ind संबन्ध हतो, ते देहने वाली कूटीने पछी पाणीनी अंजली आपीने अर्थात् ते फरीथी पाछा घेर आववाना KE नथी, एवी आशा मूकीने श्मशान थकी पोतपोताना स्वार्थने संभारतां पाछां पोत पोताने घेर जाय छे. पण || तेमांनु कोइ वहालं सगं ते जीवनी साथे जतुं नथी. ॥११॥ ॥आर्यावृत्तम् ।। विघटते विउज्यंते सुताः विघटते बांधवाः वल्लभाः च विघटते विहडंति सआ विहंडंति । बंधवा वल्लंहा य विहंडंति ॥ एकः कथमपि न विघटते धर्मः हे आत्मन् जिनभणितः इको केहवि ने विहइ ! धम्मोरे+ जीव जिणभंणिओ ॥१२॥ ४ इहां हे एबुं संबोधन न मुकतां रे एबुं जे अधम संबोधन मूक्युं छे, तेनुं ए प्रयोजन छे के, आ जीवने धर्म विना कोइ पण सहाय्यकारी नथी. तोपण तेने मुकीने अज्ञानताथी बीजाने सहाय्यकारी मानी बेठो छ माटे. DDDDNDvDी DADDDLJADDA Jain Education Internal4514010 05 For Private & Personal use only prww.jainelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ २४ ॥ Jain Education Internat अर्थ :-- (रे जीव के०) हे अज्ञानी जीव ! (सुआ के०) पुत्र तथा पुत्रीयो जे ते (विहडंति के ० ) विघटे छे. अर्थात् तेनो विजोग थाय छे. तेज रीते (बंधवा के ० ) स्वजन जे ते (विहडंति के ० ) छे. अर्थात् स्वजननो पण विजोग थाय छे. [य के० ] वली (वल्लहा के०) बहाली स्त्रीयो पण (विहडंति के०) विघटे छे. एटले तेनो पण विजोग थाय छे, एज रीते सर्व वस्तुओनो विजोग थाय छे, पण ( इक्को के ० ) एक (जिणभणिओ के ० ) जिन|परमात्मा कहेलो (धम्मो के०) धर्म जे ते [कहवि के० ] क्यारे पण (न विहडइ के० ) वियोग पामतो नथी. ॥१२॥ भावार्थ:- हे मुग्ध जीव ! तुं विचार कर के, आ संसारमां तहारं कोण छे ? केम के, पुत्र, स्वजन, अने | वहाली स्त्रीयो इत्यादिक सर्वेनो विजोग थाय छे। एटले तेमने मूकीने तुं जइश, अथवा तने मुकीने ते जशे. माटे ज्यां संयोग छे, त्यां निमाये वियोग छेज. पण एक जिनराजनो कहेलो धर्म एटले जीवने दुःखमां पडतां घरी राखे माटे धर्म कहीए, ते धर्मनो कोइ काले पण विजोग नथी धतो. अर्थात् आ जीवने साधुं सगपण तो धर्मनुंज छे. अनें बीजुं सर्वे सगपण फोगट छे. ॥ १२ ॥ ठाइ ॥ अष्टकर्माण्येव पाशास्तैर्बद्धः जीवः संसार एव चारके बंदिगृहं तिष्ठति अडकम्मेपासबद्धो जीवो संसारचारए अष्टकर्मपाशमुक्तः आत्मा शिवमंदिरे तिष्टति अकम्पासमुको । औया सिमंदिरे ठीइ ॥ १३ ॥ 10_05 我推儿毛毛帳號 भाषांतर सहित ।। २४ ।। . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥ २५ ॥ वैराग्य- अर्थ:--हे आत्मन् ! (अडकम्मपासबद्धो के०) आठ कर्मरूप पासे बंधाणो एवो (जीवो के०) प्राणी जे ते शतकम् | ३८ (संसारचारए के०) संसाररूप बंधिखानाने विषे (ठाइ के०) रहे छे ने [अडकम्मपासमुक्को के०] आठ कर्मरूप | ॥ २५॥ 1 पासथी मूकाएलो एवो (आया* के०) आत्मा जे ते (सिवमंदिरे के०) मोक्ष मंदिरने विषे (ठाइ के०) रहे छे एटले ३ ME एक समयमां बीजा क्षेत्रने न स्पर्श करतो मोक्षने पामे छे. ॥१३॥ | भावार्थ:-हे जीव ! तुं विचार कर के, आ जगत्मा एक पास वडे बंधायेलो मनुष्य पण मूकाई शकतो Id नथी, तो, तुतो आठ कर्म रूप आठ पासवडे बन्धायेलो छु, ने तेमां वली संसाररूप यन्धिखानाना घरमां पडयो छु. तोपण तेमां मिथ्या सुख मानी बेठो छु, पण तेमांथी निकलवानो उद्यम नधी करतो, पण ज्यारे ३ ज्यारे, तेमांधी निकलवानो उद्यम करीने ज्यारे आठ कर्मरूप पासने तोडीश; त्यारेज तु मोक्ष मन्दिरमा जईश. पण ते विनातो तने अविनाशी सुख क्यारे पण मलवानुं नथी. ॥१३॥ विभवः सज्जनसंगः विषयसुखानि विलासललितानि नलिनींदलाष्ट्रोलनशीलः जललव इव परिचंचल सर्व । विहवो सजर्णसंगो। विषयसुहाई विलासलैलिआई ॥ नलिणीदलग्गघोलिर । जललवपरिचंचलं सवं ॥१४॥ JEL *आ जीव ज्यांसुधी कर्मवडे बन्धायेलो छे, त्यांमधी एने महोटा पुरुषो जीव कहे छे. अने जेम जेम कर्मथी मुकातो जाय छे, तेम तेम तेने आत्मा कहीने बोलावे छे. तेवी वात जणावबाने माटे आ गाथामां जीव तथा आत्मा एवा बे शब्दो मृकेला छे. | BULBUDDDDL Jain Education Interna For Private & Personal use only 4Eww.jainelibrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थः-विहवो के०] विभव एटले लक्ष्मी जे ते, तथा (सज्जगसंगो के०) माता, पिता, भाई, भार्या, J: वैराग्य भाषांतर DJ इत्यादिकनो जे सम्बन्ध ते, तथा [विलास के०] विलासे करीने ललिआई के०] सुंदर एवा (विसय सुहाई के०) || शतकम् विषय सुख (सव्वं के०) ए सर्व जे ते (नलिणी के) कमलिनी (पोयणी) तेना दिलाग केला पानडांना अग्रभागने l सहित ॥२६॥ ॥२६॥ hi विषे [घोलिर के०] घुमरातुं अर्थात् रहेलं एवं [जललव के०] पाणीनो बिंदु तेना जेवु (परिचंचलं के०) अतिशे : २ चंचल छे. अर्थात् अल्प वायुथी पण शीघ्रपणे पडी जाय तेवु छे. ॥१४॥ भावार्थ:-आ जीवे मानी लीधेला एवां जे सुखकारी पदार्थ, जेवां के लक्ष्मी, सगां, संबन्धी, तथा अनेक प्रकारना विलासे करीने शोभता एवां पञ्च विषयनां सुख ए सर्वे अतिशे चंचल छे. जेम कमलना पनिडाना अग्र | HE भागमा रहेलं पाणीनुं टीपु थोडी वारमा स्वभावेज नाश पामे छे, तेन ते सघलं सुख पण थोडा कालमा हतुं नहोतुं htथइ जाय छे. माटे हे जीव ! एवा अतिशे अस्थिर विषयसुखने विषे तुं शुं आसक्त थाय छे ! ॥१४॥ तत् कुत्रगतं बलं तत् कुत्र यौवनं अंगस्य चंगिमा शोभा कुत्र तं' कच्छ बलं तं' कच्छ । जुवणं अंगचंगिमा कच्छ ॥ सर्व अनित्यं पश्यत दृष्टं पूर्व नष्टं पश्चात् कृतान्तेन कृत्वा सबमेऽणिचं पिच्छेह । दिन कयंतेणे ॥ १५ ॥ Jain Education Internet 110_05 For Private Personal use only foww.jainelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेराग्य | अर्थ:-हे प्राणियो ! (तं के०) ते (बलं के०) शरीरनुं बल [कच्छ के०] क्यां गयु ? वली (तं के०) ते (जुव्वणं । भाषांतर शतकम् ३८ के.) जवानीपणुं [कच्छ के०] क्यां गयुं ? वली (अंगचंगिमा के०) शरीरन सुंदरपणु [कच्छ के०] क्या गयु ? ते हेतु | JE सहित JE | माटे (कयंतेण के०) काले करीने (दिलुनटुं के०) प्रथमदी, ने पछी नाश पाम्युं एy, [सव्वं के०] सर्व वस्तु (अणि-HE ॥ २७॥ च्चं के०) अनित्य एवाने [पिच्छह के०] अवलोकन करो. अर्थात् विचारी जुओ. ॥ १५॥ ____ भावार्थः-केटलाएक पुरुषोने प्रथम जवानीपणामां घणा बलादिके सहित जोइने पछी तेमने वृद्ध अवस्थामा अति निबल जोडने उपदेश करे के. के. हे प्राणीन ! तारी जवानीपणानी शोभाये महित शरीरनं बलादिक क्या १६ गयु ? अहो ! काले करीने हतुं नहोतुं थइ गयुं !! माटे सर्व वस्तु अनिल छे, एम जाणी रात्रि दिवस करवा मांडेली HEL एवी शरीरनी शुश्रूषा तेने ओछी करो. केमके, तमे गमे तेलु द्रव्यादिकन खरच करीने शरीरनी साचवणी करो, तो पण ते शरीरनी जवानी कदी काले तेवीने तेवी रहेवानी नथी. माटे जेनी सेवा निष्फल न जाय, एवा धर्मनी सेवामां तत्पर थाओ. ॥१५॥ घनानि कर्माण्येथ पाशास्तबद्धः भव एव नगरचतुष्यथानि तेषु विविधाः घणकम्मपासबद्धो । भवनयरचउप्पहेसु विविहाओ ॥ प्राप्नोति विडंबनाः जीवः कः अत्रसंसारे शरणं तस्य पावई विडंबणाओ । जीवो को इच्छे सरणं से ॥ १६ ॥ Jain Education Internet S11010_05 For Private & Personal use only C ww.jainelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JE अर्थ:-[घणकम्मपासबद्धो के०) निबिड कर्मरूप पासाए एटले गांव्योए बंधायेलो एवो [जीवो के०] जीव ३६ वैराग्य भाषांतर de जे ते (भवनयर के०) संसाररूप नगरना (चउप्पहेतु के०) चौटाने विषे. अर्थात् च्यार गतिरूप चौटाने विषे । 'शतकम् सहित memf (विविहाओ के०) अनेक प्रकारनी दुःखदाइ एवी (विडंबणाओ के०) विडंबनाने (पावइ के०) पामे छे. ए हेतु ।। २८॥ माटे [इच्छ के०] ए संसारने विषे (से के०) ते प्राणीने [को के०] कोण (सरणं के०) रक्षण करनार छ ? अर्थात कोइ पण नथी. ॥१६॥ भावार्थ:-हे प्राणिन् ! आ जीव घणां कर्मरूप पासबंधधी बन्धायेलो एवो सतो च्यार गतिरूप संसारना ३६ JE/चोगाना (चौटामां) अनेक प्रकारनी शरीरने तथा मनने दुःखदायक बन्धनादिरूप विटंबनाने पामे छे, खां तने ६ रक्षण करवा कोण समर्थ छ ? अर्थात् ते जीवनी रक्षा करनार धर्मविना बीजु कोइपण समर्थ नथी. ॥१६॥ घोरे गर्भवासे जठरद्रव्यसमूह एव जंबालः कर्दमस्तेनाशुचिबीभत्से घोमि गम्भवास । कलमलजंबालअसुइबीभच्छे । उषितः स्थितः अनतकृत्वोऽनतवारान् जीवः कर्मानुभावेन । वसिओ अणंतखुत्तो । जीवो कम्माणुभावेण ॥१७॥ अर्थ:-[जीवो के०] जीव जे ते (घोरंमि के०) घोर एटले भयानक एवो [कलमल के०] पेटमा रहेला Jain Education Inter 2010-05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JE सहित ॥ २९ ॥ वैराग्य- Ind द्रव्यनो [पदार्थोनो] समूह ते रुप (जंबाल के०) कादव तेणे करीने असुइ के०] अशुचि भरेलो एवो, ने (बीभच्छे भाषांतर शतकम् । के०) वीभत्स. कहेतां कमकमाट भरेलो एवो [गभघासे के०) गर्भवासने विषे (कम्म णुभावण के०) शुभाशुभ ॥ २९ ॥ कर्मना प्रभावे करीने (अणंत खुत्तो के०) अनंतीवार (वसिओ के०) रहेलो छे, पण ते दुःखने भूली जइने फरीधी BE| अनंतीवार गर्भवासमां दुःख भोगवg पडे, एबुं कृत्य करे छे. परंतु फरीथी गर्भवासमा न आव, पडे, एवा उद्यम नथी करतो ए घणुं आश्चर्य छे ! ॥ १७ ॥ ____ भावार्थः-हे महामुग्ध प्राणिन् ! ! आ संसारमा सारा माणसनी एवी रीत छे के, जे जग्याए घणुंज दुःख पडद्यु ३होय, ते जग्याए फरीथी न जाय. पण आ जीवनो तो एवो अवलो स्वभाव छे के, तेज जग्याए वारंवार जवाय एवो उपाय कर्या करे छे, पण ते धकी विराम नथी पामतो. तेने जोइने ज्ञानी पुरुष उपदेश करे छे के, गर्भवासमां | घणुंज कष्ट छे. के, जेजें वर्णन पण बरोबर थइ शकतुं नथी. तोयपण इहां यत्किंचित् कहीए छीए. ते गर्भवास | अनेक प्रकारना मलमूत्रनी दुर्गधथी भरपूर छे. के, जेमां सारी हवा आववानो तो लेशमात्र रस्तोज नथी. ने अनेक प्रकारना सूक्ष्म जंतुओ ते गर्भना कोमल शरीरने घणी वेदना उपजावे छे. ने, ते गर्भने नाशी जवानी जग्या नथी मलती, तेथी वारंवार मृर्जा खाइ तेनी ते वेदना सहन करे छे. वली त्या अनेक प्रकारनी रंधण धाय छे तेनी वेदना, JE तथा जठराग्निथी थयेली उष्ण वेदना, इत्यादिक कमकमाट भरेली अनेक वेदनाओने सहन करतो उधे माथे नव मास सुधी लटकतो हतो. माटे हे जीव ! ते दुःखना दिवस ते अनंतीवार भोगव्या तोपण तुं केम भूली जाय छे ? CDDDDDDDDOm ___JainEducation interna t io_05 For Private Personal use only LLE w.jainelibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥३०॥ ३६ अने फरीथी पाछां तेनां तेज दुःख पामवाना उपाय केम कर्या करे छे ? ॥ १७ ॥ वैराग्य चतुरशीतिः किल लोके शाखे योनीनां प्रमुखानि शतसहस्राणि लक्षाणि विद्यते शतकम् चुलसीइ किर लोएँ । जाणीणं पमुहसयसहस्साई ॥ एकैकस्यां योनौ च जीवः अनंतकृत्वः समुत्पन्नः इकिकम्मि अ जीवो । अगंतखुत्तो सप्पन्नो ॥ १८ ॥ अर्थः-लोए के०] लोकने विषे (जोणीणं के० जीवनी उत्पनिनां स्थानक (चुलसीइ के०] चोराशी (पमुह के०) प्रमुख सयसहस्साई के०] लाख, एटले चोराशी शब्दनें प्रमुख कहेतां अग्रेसर करीने लाख शब्द जोडवो. अर्थात् चोराशी लाख, जीवने उपजवानां स्थानक छे. (किर के०) निश्चे, एटले ए वात शास्त्रमा कहेली छे. ते चोगशी लाख योनिने विषे [जीवो के०] जीव जे ते (इक्विक्वम्मि के०) एकेक योनिने विषे [अके] वली (अणतखुत्तो के०) अनंतीवार [समुप्पन्नो के०] उत्पन्न भयो छे ॥ १८ ॥ ___ भावार्थ:-हे जीव ! तु चोराशी लाख जीवाजोनीने विषे अनंतीवार भ्रमण करी आव्यो छु. ने, ते ते जीवाKI जोनीने विषे अनेक प्रकारनां छेदन भेदननां दुःख, तें अनंतीवार सहन कर्या, तोयपण ते उत्पत्तिस्थानमाथी | कंटालो पामीने, धर्मकृत्य करवाने विषे तुं प्रीति केम जोडतो नथी ? ॥ १८ ।। SAHARASH W in Education Internati 0.05 For Private Personal Use Only ww.jainelibrary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥३१॥ और मातापितृवंधुभिः संसारस्थैः पूरितः लोकः बहुयोनिनिवासिभिः नच ते त्राणां पुनः शरणं पुनः शतकम् मायापियवंधूहिं । संसारच्छेहिं पूरिउं लोउं ॥ बहुजोणिनिवासीहि । नये ते ताणं न सरणं चं ॥१९॥ ॥३१॥ अर्थः-(संसारच्छेहिं के०) संसारने विषे रहेलां एवां, ने (बहुजोणी के०] घणी एवी योनी एटले चोराशी २ लाख योनि, तेने विषे (निवासीहि के०] निवास करीने रहेलां एवां [मायापियबंधुहिं के०] माता पिता ने JE बन्धु, तेमणे करीने (लोउं के०) लोक जे ते (पूरिओ के०) पूरेलो छे. (ते के०) ते सर्वे (च के०) वली ता-JE हरं (ताणं के०) रक्षण करनार, अने (च के०) वली ताहरे (सरणं के०) शरण करवा योग्य (नय के०) Idl नधीज. केमके जे पोतेज बन्धनमा पड्या होय, ते सामाने बन्धनथी शी रीते छोडावे ? ॥१९॥ भावार्थ:-हे जीव ! आ जगत्मा रहेला सर्वे जंतु कदाचित् तहारं पालण पोषण करवा माटे, माता, पिता तथा बन्धुरूपे थयां छे, ने तेमणे करीने आ सर्व लोक पुरेलो छे, परंतु ते सर्वेथी पण आज सुधी |तहारं रक्षण थइ शक्यु नथी. माटे ते ताहरे शरण करवा योग्य पण नथी, कारण के, संसारना महा Je// दुःखरूप प्रवाहमां खेंचाता प्राणियोने, जेमां सारो कर्णधार [नावनो चलावनार] छे, एवी नौका [नाव] रुप' | जिनधर्म जे तेज, शरण करवा योग्य तथा ग्रहण करवा योग्य छे, पण माता पितादिक शरण करवा ] योग्य नथी ॥ १९॥ ____JainEducation intermaNPL10.05 For Private & Personal use only Marww.jainelibrary.org ION Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ ३२ ॥ Jain Education Interna १८ जीवः व्याधिविलुप्तः जीवो वाहिविलुतो । आकुलीभवती सफरो मत्स्यः इत्र निर्जले सर्फेरो ईव निर्जले तडप्फर्डई ॥ 2010 05 सकल: अपि जन: पश्यति कः शक्तोऽस्ति वेदनाविगमे सलो वि जंणो पिच्छे । 'को सँको वे अणविगमे ॥ २० ॥ . अर्थ – [ वाहि के० ] व्याधिये करीने (विलुत्तो के०) उपद्रववालो एवो (जीवो के०) जीव जे ते (निज्जले के०) जल रहित प्रदेशने विषे ( सफरो इव के०) माछलानी पेठे (तडफडई के०) तडफडे छे, एटले आकुल व्याकुल थाय छे. ते प्रकारना रोगे करीने पीडाता प्राणीने (सयलो वि के०) सकल एवो पण (जणो के०) जन. एटले लोक | जे ते (पिच्छड़ के०) देखे छे, परंतु ते जीवनी (बेअणाविगमे के० ) वेदनानो नाश करवाने विषे [को के० ] कोण पुरुष [सक्को के ० ] समर्थ होय ? अपि तु कोइ पण समर्थ न होय ॥ २० ॥ भावार्थ:--आ जीव अनेक प्रकारना व्याधि वडे ग्रस्त थड़ने ज्यारे जलविनाना माछलानी पेठे तडफडे छे, ते | वखत ओ मा ! ओ बाप ! इत्यादिक सामाने अतिशे करुणा उत्पन्न धाय एवा पोकार करे छे; त्यारे तेनी वेदनाने | लेशमात्र ओछी करवाने कोइ पण समर्थ यतुं नथी. उलटा तेना मनने बीजी वेदना उत्पन्न थाय, एवी रीतना करुणा भरेला शब्दो वापरीने अने औषधादिकना घणा खरचमां नांखीने अने आंखोमां आंस लावीने. उलय तेने भाषांतर सहित ॥ ३२ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- || वधारे गभरामणमां नाखे छे, अने पोते ज्यारे निराश .थाय छे, त्यारे निसासा मुकीने छेवटे तेने धर्मनुं शरण भाषांतर शतकम् ।। बतावे छे, पण तेमांथी कोइथी कांइपण दुःख लइ शकातुं नथी. माटे हे जीव ! परिणामे धर्मनुं शरण तो करवुज सहित ॥ ३३ ॥ ३५ पडे छे, तो प्रथमधीज तुं धर्मनुं शरण कर. कारण के जे धर्मना प्रभावधी तहारे फरीथी एवं दुःख भोगवयु पडे नही, IIE ॥३३॥ | माटे तेवा धर्मने कर. ॥ २०॥ ___मा जानीहि हे जीव व पुत्रकलत्रादि मम सुखहेतुर्भविष्यति मी जाणसि जीवे तुमं । पुत्तकलेताइ मज्झ सुहेहेऊ ॥ निपुणं गाढं बंधनं एतत् संसारे संसरतां निउँणं बंधण मेयं । संसारे संसरंताणं ॥ २१ ॥ ___ अर्थः-(जीव के०) हे प्राणिन् ! (पुत्तकलत्ताइ के०) पुत्र तथा स्त्री इत्यादिक जे ते [मज्झ के०] महारे (सहPा हेऊ के०) सुखनु कारण थशे, एम (तुमं के०) तुं [मा जाणसि के] न जाणीश. केमके, (संसारे के०) संसारने विषे JE (संसरंताणं के०) नरक तिर्यच इत्यादि रूपे भ्रमण करता एवा जीवोने [एयं के०] ए पुत्र कलत्रादिक जे तेज, उलटा PE (निउणं के०) अतिशे गाढ एवा [बंधणं के०] बंधनरूपे थाय छे. ॥ २१ ॥ भावार्थ:-अरे रे जीव ! तहारी शी विपरीत बुद्धि थइ छे ? के, दुःखनु कारण छे, तेनेज तुं, एकांते सुखनुं Jain Education Interne 4161010_05 For Private & Personal use only C ww.jainelibrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण मानी बेठो छु ! केमके, संसारने विषे स्त्री पुत्रादिक एज महोटुं बंधन छे. ते बन्धनने तुं एम जाणे : बेराग्यछे के, एथी महारे सुख थशे, परंतु तेथी कदि पग तहारे सुख थवान नथी; कारण के, तेनने विषे गाढ प्रीति भाषांतर शतकम् सहित ॥३४॥ । राखवाथी नरकने विषे जवू पडे छे. तथा तिर्यच गतिने विषे गघेडा कुतरादिकना निःशंकरणे विषय भोगववाना | hd अवतार धरवा पडे छे. अने त्या त्या अनेक प्रकारनां दुःख सहन करवां पडे छे. तेनुं क.रग एज छे के, आ महारी स्त्री, आ महारो पुत्र, इत्यादिक मम स्वभाव करवाथी एवां फल मळे छे. ने आ भवमां तेनुं पालन पोषण करवामा |JE रात्रि दिवस गमावे छे. पग एन विचार नथी करतो के, आज बधो दिवस गयो, तथा आज बधी रात्री गइ, पण | तेमां केटली घडी में महारा आत्मानुसाधन कर्यु ? एवो विचार तुं केम नथी करतो ? ॥ २१॥ जननी भवांतरे जायते जाया स्त्री जाया माता पिता च पुत्रः चकारात्पुत्रःपिता जणी जायइ जाया । जाया माया पिया य पुत्तो ये ॥ अनवस्थाऽस्ति संसारे कर्मवशात् सर्वजीवानां अणवत्था संसारे । कम्मर्वसा सबजोवाणं ॥ २२ ॥ अर्थः-(संसारे के०) संसारने विषे (कम्मवसा के०) कर्मना वशथकी [सव्वजीवाणं के०] सर्व जीवोनी (अणPE वत्था के०) अनवस्था. एटले एक जातनी स्थिति नथी रहेती. कारण के (जणणी के०) माता जे ते, भवांतरे (जाया के०)। ३६ TOMATONTINrnDAMAMANAL DADDDDDDDDY Aamtasopn.pLDC-CD ملفات من الاعمال مد های ویرا _JainEducation intem- ML10_05 For Private Personal use only Ja JEI Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- Tal| स्त्रीरूपे, अने [य के०] वली [जाया के०] स्त्री जे ते, भवांतरे [माया के०] मानारूपे अने (य के०) वली (पीया के) 11. भाषांतर शतकम् । पिता जे ते, भवांतरे (पुत्तो के०) पुत्ररूपे पण (जायइ के०) थाय छे. अर्थात् आ जीवनी एक सरखी स्थिति नथी । ॥ ३५॥ रहेती. इत्यादि अनवस्था जाणवी. ॥ २२ ॥ ॥ ३५॥ ___ भावार्थ:-हे जीव ! संसारमा सर्वे जीव कर्मने वश छे, माटे तेमनु स्वरूा सदाकाल एकरूपे रहेतुं नथी. एज गंसारनो विषम स्वभाव के. कारण के, जे माता छे, ते भवांतरे मातारूपेज नयी थती, परंतु तेज माता स्त्रीरूपे थाय छे. अने जे स्त्री एटले पोतानी भार्या छे ते भवांतरे भने जे स्त्री पटले पोतानी भार्या के ते भवांतरे मातारुपे थाय छे. पण भार्या रूपे उत्पन्न नयी थती, अने जे पिता छे ते भवांतरे पितारूपेज नथी थतो, परंतु पुत्ररूपे पण उत्पन्न थाय छे. माटे जेना उपर तु आज प्रीति राखीने 30 तहारो बधो जन्मारो तेनुज भरण पोषण करवामां पशुनी पेठे आ मनुष्यभवने एले गमावे के; पण एम विचार नथी करतो के, एज महारां केटलीएक वखत शत्रु थइने तेओए मने छेदन भेदन, ताडन तर्जन, घातपातादिक अत्यंत || वेदना उपजावी हशे; तोपण हुं तेना उपर सरागभावे करीने उलटो रात्रिदिवस तेनीज चिंतामा रहीने महारं धर्म- 12 ध्यान मूकीने शुं करवा खराब थ छं? एवो विचार तुं लेशमात्र पण करतो नधी. कारण के, तुं आखो जन्मारो तेमने माटे कटी कटीने मरी जडश, तोय पण जो तेमना कर्ममां सुख नथी. तो तं केम करीने सखी का तेमना कर्ममां जो द्रव्यादिकनो लाभ नथी, तो तु तेमने क्यांची लावीने आपीश ? तेम छतां कदापि तुं कुड, कपट, छल भेद, प्रपञ्च, विश्वासघात अने अन्यायादिक अनेक प्रकारनां कुकर्म करीने, महोटा मेरुपर्वत जेवडो माथे पापरुप ه للا منافقا من نفحات DD करीने सुखी करीश ? तथा TOT.r Jain Education Internal 2010_05 | w w.jainelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार भरीने, तु द्रव्य मेलवीने तेमने आपीश, तोयपण तेमनी पासे ते रहेवानुनथी. अने जो तेमना भाग्यमां वैराग्य भाषांतर LE द्रव्यादिक पदार्थ छे, तो तुकाइपण नही आपे, तोयपण ते महोटा कोटिध्वज थशे; माटे केवल तेमनेज माटे/ शतकम् सहित पोतानुं धर्मध्यान चुकवू, ते ठीक नहीं ॥२२॥ आ बावीशमी गाथामां आ जीवने भवांतर आश्रीने अनेक प्रकारना संबन्ध धाय छे, एम कयु. परंतु आने आ भवमांज अनेक प्रकारना संबंध थया छे, तेनी कथा नीचे प्रमाणे जाणवी. ॥ कथा २ ॥ मथुरा नगरीने विषे कुबेरसेना एवे नामे एक गणिका [वेश्या] रहेती हती. ते एक दहाडो पोताने गर्भ उत्पन्न | थवा थकी अतिशे खेद पामी, स्यारे तेनी माता कुट्टीनी, तेणीए तेने खेदवाली जोइने, तेनी पीडा दूर करवाने | JE/ अर्थे वैद्यने बोलायो. ते वैद्य नाडी जोइने तेने रोगरहित जाणीने ए प्रकारे का के, आना शरीरमा कोइपण रोग | २८ ID नथी. फक्त पेटने विषे पुत्र पुत्रीरूप जोडलं उत्पन्न धयुं छे. ए कारण माटे एने खेद वर्ते छे. त्यार पछी वैद्यने विदाय | JE hi करीने ते कुटीनी, पुत्री प्रत्ये कहती हवी. आ गर्भ तहारा प्राणनो नाश करनारो छे, ते कारण माटे राखवा जोग्य नथी, एतो पाडवा जोग्य छे. ते अवसरे वेश्या कहेती हवी. क्लेश (दुःख ) पण सहन करीश, परंतु मारा गर्भने || कुशल रहो. एम कहीने पछी ते वेश्याए गर्भनी वेदना सहन करीने अवसरे पुत्र पुत्रीरूप जोडलं प्रसन्यु. त्यारे वली Jain Education Interne 410_05 For Private & Personal use only 30ww.jainelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकोनुं सम्यक् प्रकारे प्रतिपा वैराग्य- || कुहिनी कहेतां तेनी मा, कहेती हवी. हे पुत्री! आ छोकरांनु जोडलं तहारा जवानीपणाने नाश करनारं धशे; भाषांतर शतकम् || ए कारण माटे आ जोडलं विष्टानी पेठे त्याग करीने, आजीविकांनु कारण एवं पोतानुं जबानीपणुं राख. त्यारे ३८ सहित ॥ ३७॥ | वेश्या कहती हवी. हे मातः! जो एम छे तो दश दिवस सुधी विलंब करो, पछी तमार कहेलं करीश. त्यार पछी तेनी माताए आज्ञा आपी. त्यार पछी ते वेश्याए दश दिवस सधी धवरावीने ते बालकोनं सम्यक प्रा लन करीने अगीयारमे दिवसे एक जणर्नु कुबेरदन, अने एक जणी, कुबेरदत्ता ए प्रकारे वे जणनां नाम पाडीने 1 pa पछी तेमना नाम सहित एवी बे वीटीयो करावीने ते बे जणनी आंगलीयोमां घालीने पछी एक लाकडानी पेटीमां ते २ वे जणने मांही मृकीने संध्या समये यमुना नदीना प्रवाहने विषे ते पेटीने बहेती मूकी दीधी. त्यार पछी ते पेटी जलमां वहेती थकी अनुक्रमे करीने दिवसनो उदय थए सते, शौर्यपर नगरे आवी. त्यां स्नान करवाने अर्थ आवेला एवा बे शेठना पुत्रो ते पेटीने आवती देखीने, तत्काल लेइने एक जणे तेनी मध्ये एक बालक अने बालिकाने जोइने, न तेमनी मध्ये जे पुत्रनो अर्थि हतो, तेणे पुत्र लीधो. अने बीजो पुत्रीनो अर्थि हतो, तेणे बालिका लीधी. ए प्रकारे ते एक एक बालक लेइने पोतपोतानी स्त्रीने आप्यु. पछी मुद्रिकामा लखेला अक्षरने अनुसारे तेमनु नाम पाडयु. ३ सार पछी ते कुबेरदत्त अने कुबेरदत्ता एवे नामे दे बालक, ते शाहुकारोने घेर अतिशे उद्यमे करीने महोटां धयां.JE HE पछी अनुक्रमे करीने जोयन अवस्था पाम्यां, त्यारे ते बे बालकोनुं सरखं रूप जाणीने, ए वे शाहुकारो ते वे जणनो मांहो माहे पाणीग्रहणनो उत्सव करता हवा. एटले लग्ननो उत्सव को. लार पछी ते स्त्री भरतार, एक दहाडो JainEducation InternadalT1010-05 For Private & Personal use only sonww.sainelibrary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E/ सोगठांबाजी रमवा बेठां, ते अवसरे कुबेरदत्तना हाथथकी ते नामांकित मुद्रिका कोइक प्रकारे निकलीने कुबेरदत्तानी JE आगल पडी. लार पछी तेणीए ते मुद्रिका पोतानी मुद्रिकानी साथे सरखी आकृतिवाली, अने एक देशमां घडेली, भाषांतर शतकम् सहित अने सरखा नामवाली एवी देखीने मनने विषे कुबेग्दत्तने पोतानो भाई छे, एम निश्चे करीने ते बे वीटीयो कुबेर ॥ ३८ ॥ दत्तना हाथमां घाली. ते अवसरे कुबेरदत्त पण ते वींटी जोवा थकी तेमज तेने पोतानी बहेन छे, एम निश्चे करीने । अतिशे खेद पाम्यो. त्यार पछी ते बेजणे पण पोताना विवाहना कार्यने अकार्य मानतां एटले आखोटुं धयं ! एम ३८ जाणतां एवां पोतानो संदेह निवारवाने माटे पोत पोतानी माताने सम खवरावीने अतिशे आग्रहे करीने पोतपोतानं | स्वरूप पूछयु. ते अवसरे तेमनी माताभोए ते बे जगनी आगल मंजूषामांथी (पेटीमांथी) कहाड्या लांथी मांडीने / सर्व पण वृत्तांत कयुं. त्यार पछी कुबेरदत्त माता पिताने कहेवा लाग्यो के, तमे अमने जोडले जन्मेला जाणीने पण | Ki| आबुं अकार्य केम कर्यु? त्यारे ते कहेवा लाग्यां के, तहारा सरखी कन्या अने तेना सरखो वर क्यांहि अमने मल्यो | RE नहीं; तेथी सरखां शोभादि गुणवालां तमने जाणीने तमारा बेनोज माहोमाहे विवाह कयों. परंतु हजु सूधी काइJ पण बगडयुं नथी. जे कारण माटे तमारा बेर्नु एक करपीडनज थयुं छे. एटले फक्त एक हाथनोज मिलाप थयो छे, पण मैथुनकर्म थयुं नथी. ते माटे तुं खेदन करीश. तने बीजी कन्या परगावीशं. त्यार पछी कुबेरदत्ते का.. तमारूं | Ka वचन महारे प्रमाण छे, परंतु हमणां तो हुं व्यापार करवाने माटे परदेश जवानी इच्छा राखुं छु. ए कारण माटे मने | | आज्ञा आपो. पार पछी ते शेठ शेठाणीए आज्ञा आपी, पछी कुबेरदत्त, ते वृत्तांत पोतानी बहेनने कहीने, घणांक Jain Education Interne 2010_05 For Private & Personal use only J HE Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य- nd क्रियाणां लेइने, दैवयोग थकी पोताने उत्पत्तिनुं स्थानक एवी मथुरा नगरीए गयो. त्यां ते निरंतर पोताने उचित भाषांतर शतकम् व्यापार करतो सतो, एक दहाडो कोइक माठा कर्मना जोगथकी अद्भूतरूपे करीने शोभायमान एवी, पोतानी माता सहित ॥ ३९॥ कुबेरसेना वेश्याने देखीने, कामे पीडीत धयो सतो, ते वेश्याने बहु द्रव्य आपीने, पोतानी स्त्री करीने निरंतर तेनी | JE ॥ ३०॥ HE संगाथे विषय संबंधी सुख भोगवतो हवो. त्या अनुक्रमे करीने तेने एक पुत्र थयो. हवे शौर्यपुरने विषे ते कुबेरदत्ता, माताना मुखथकी मूलथकी पोतानी ते प्रवृत्ति सांभलीने, तत्काल वैराग्य प्रत्ये पागी सती आर्या (माध्वी)नो संजोग valथये सते दीक्षा ग्रहण करीने, घणां महोटां तप करीने, विशुद्ध अध्यवसायना योग थकी थोडा कालमांज, तेणीए अवधिज्ञान उत्पन्न कयु. लार पछी ते साध्वी, अवधिज्ञानना बले करीने पोताना भाईनुं स्वरूप जोती सती मयुरा 3t JE नगरीने विषे पोतानी माता संगाथे लागेलो एवो, अने पुत्रसहित एवो, तेने देखीने कर्मनी गतिने धिक्कार करती ) पटले धिक्कार पडो कर्मने !!! एम कहेती सती पोताना भाईने अकारजरूप महोटा पापरूप कादव थकी उद्धारवाने a एटले काढवाने, पोते मथुरा प्रत्ये आवीने, कुबेरसेना वेश्यानेज घेर जइने, धर्मलाभरूप आशिष देइने तेनी पासे पोताने उतरवावें स्थानक माग्यु. ते अवसरे कुवेरसेना पण ते आर्याने नमस्कार करीने एम कहती हवी. हे महासती! Jहुं वेश्या छु, पण हमणां एक भरतारना संजोगथकी निश्चे कुलस्त्री थइ छु. ते कारण माटे तमे सुखे करीने महारा3E at घरनी समीपे पापरहित एवा आश्रगने ग्रहण करीने, अमने रूडा आचारमा प्रवर्तावो. त्यार पछी कुवेरदत्ता साध्वी पण पोताना परिवारसहित तेणीए आपेला उपाश्रयमां रही. हवे ते वेश्या, निरंतर त्या आवीने, ते बालकने | CADEMPLE ततmmmmm Jain Education Interne 4511010_05 For Private & Personal use only W ww.jainelibrary.org TUE Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीनी आगल भूइ उपर लोटतो मूकती हवी. ते अवसरे अवसरनी जाण एवी जे साध्वी; ते आगामी कालमां भाषांतर JE लाभ जाणीने ते यालकने आ प्रकारे बोलावती हवी. हे बालक! तुं महारो भाई छु. ॥१॥ तुं महारो पुत्र छु.॥२॥JE शतकम्म सहित ॥४॥ तुं माहारो दीयर छु. ॥३॥ तुं महार। भाईनो पुत्र छु, एटले भत्रिजो छु. ॥४॥ तुं महारो काको छु. ॥५॥ तुं महारा ॥४०॥ pril पुत्रनो पण पुत्र छु. तथा जे तहारो पिता छे, ते महारो भाई छे. ॥१॥ अने महारोपिता छे. ॥२॥ अने महारा पितानो l पिता, एटले महारो वडाउओ छे. ॥३॥ माहारो भरतार छे. ॥४॥ महारो पुत्र छे. ॥५॥ अने महारो ससरो पण छे. ॥६॥ 3 तथा जे तहारी माता छे, ते महारी माता छे. ॥१॥ अने महारा पितानी माता छ. ॥२॥ अने महारा भाईनी स्त्री छे. JE ॥३॥ अने महारी बहु छे. '४॥ अने महारी सासु छे. ॥५॥ अने म्हारी शोक्य पण छे. ॥६॥ ए रीते कहीने साध्वी | ते बालकने वारंवार योलावे छे. त्यार पछी एक दहाडो कुबेरदत्त तेनुं वचन सांभलीने, आश्चर्य पाम्यो सतो, ते साध्वीने कहेतो हवो. हे आर्ये! वारंवार आयु अजुक्त शुं बोलो छो? सारे साध्वी कहेती हवी. हुं अजुतुं नथी बोलती. जे कारण माटे आ बालक एक मातापणा थको भाई छे, एटले तेनी अने महारी एक माता छ, तेथी महारो 9 भाई थाय छे. ॥१॥ अने महारा भरतारनो पुत्र छे, माटे महारो पुत्र थाय छे ॥२॥ अने महारा भरतारनो नहानोJE भाई छे, माटे महारो दीयर छे. ॥३॥ अने महारा भाईनो पुत्र छे, माटे महारो भत्रीजो छे. ॥४॥ अने महारी माताना पतिनो भाई छे, माटे महारो काको लागे छे ॥५॥ अने महारी शोक्यना पुत्रनो पुत्र छे, माटे महारो पात्रो PE लागे छे ॥६॥-ए प्रकारे बालकनी संगाथे पोताना छ संबंध देखाडीने, वली कहेती हवी. जे आ बालकनो पिता छे, ३ Join Education Intem o10:05 For Private Personal use only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Puraute बेराग्य Jha ते महारे एक मातापणा धकी भाई छे, एटले तेनी अने महारी एक माता हे, माटे भाई पाय छे ॥१॥ अने महारी भाषांतर शतकम् मातानो भरतार थयो, तेथी महारो पिता धाय छे ॥२॥ अने महारा काकानो पिता थयो, तेथी महारो बडाउओ सहित ॥४१॥ ॥ ४१॥ थयो ॥३॥ अने प्रथम मने परण्यो छे, माटे महागे भरतार थाय छे ॥४॥ अने महारी शोक्यनो पुत्र थाय छे, माटे महारो पुत्र पण धाय के ॥५|| अने महारा दीयरनो पिता थाय, माटे महारो ससरोके ६॥-ए प्रकारे बालकना पिता। Parl कुबेरदत्तनी साथे पोताना छ संबंध कहीने, वली कहती हवी. जे आ बालकनी माता छे, ते मने पण जगनारी छ, it K माटे महारी पण माता छे. ॥१॥ अने महारा काकानी माता छे, तेथी महारी दादी लागे छे ।।२।। अने महारा भाइनी | स्त्री थइ, तेथी महारी भोजाइ थाय छे ॥३॥ अने महारी शोक्यना पुत्रनी स्त्री थइ, माटे महारी बहु थइ ॥४॥ अने | 30 महारा भरतारनी माता थइ, तेथी महारी सासु थइ ।।५।। अने महारा भाईनी बीजी स्त्री थइ, माटे महारी शोक्य JE धइ ॥६॥ ए रीते आ बालकनी माता कुबेरसेना वेश्यानी साथे पोताना छ संबंध देखाड्या. ए प्रकारे आ अढार | संबंध कहीने ते साध्वी, ते संबंधोनी खातरी करवाने अधे, पोते व्रत ग्रहण कर्यु ते अवसरे राखेली पोतानी वीटी कुबेरदत्तने आपती हवी. लार पछी कुबेरदत्त पण ते बोटी देखीने सर्व संबंधन विरुद्धपणुं जाणीने, तत्काल वैराग्य र पामीने, पोतानी निंदा करतोसतो पोतानी शुद्धिने अर्थे चारित्र ग्रहण करतो हवो. अने वली महा तप3t It करतो हवो. तथा कुबेरसेना वैश्या पण ते प्रवृत्ति सांभलवा थकी प्रतिबोध पामी सती श्रावकनो धर्म अंगीकार | करती हवी. त्यार पछी कुबेरदत्ता साध्वी, ए प्रकारे तेमनो उद्धार करीने पोतानी प्रवर्तिनी पासे गइ, एटले पोतानी | كاملة وفقا لما قالت منال العالم __JainEducation IntemNA010_05 For Private & Personal use only Janww.jainelibrary.org Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गुरुणी पासे गइ. अनुक्रमे ए सर्व जीवो, पोतानो धर्म सम्यक् प्रकारे आराधन करीने सद्गतिनां भजनार थयां. वैराग्य Indभाषांतर JE अर्थात् रूडी गतिमां गया. ए प्रकारे अढार संबंध उपर कुवेरदत्तनुं दृष्टांत कह्यु. आ एक भवने आश्रीने संबंध शतकम् देखाड्या. अनेक भवनी अपेक्षामां तो प्राये करीने सांव्यवहारीक जीवोने एकएक संबंध पण अनंतीवार थया छे. ॥ ४२ ॥ ॥ ४२ ॥ ते प्रकारे श्री भगवती सूत्रना बारमा शतकना सातमा उद्देशमां कयुं छे, तेनो अर्थ इहां लखीए छोए. - हे भगवंत! आ जीव सर्व जीवोना मातापणे करोने, पितापणे करीने, भाईपणे करीने, बहेनपणे करीने, स्वीपणे करीने, पुत्रपणे करीने, पुत्रीपणे करीने, पुत्रनी स्त्रीपणे करीने सामान्यथकी शत्रुपणे करीने, वैरिपणे करीने एटले | शत्रुभावना अनुबंध सहितपणे करीने, घातकपणे करीने, एटले मारनारपणे करीने, अने ताडन करनारपणे करीने, Ke प्रत्यनीकपणे करीने एटले प्रतिकूलपणे करीने, अने कार्यना उपघातपणे करीने, एटले अमित्रसहायीपणे करीने, | राजापणे करीने, युवराजषणे करीने, यावत् सार्थवाहपणे करीने, दासपणे करीने एटले घरनी दासीना पुत्रपणे करीने, ३ प्रेष्यपणे करीने एटले चाकरपणे करीने, भृतकपणे करीने एटले दुकालादिकने विषे अन्न साटे लीधेला तेपणे करीने, IBE कर्षणादि लाभना भाग ग्राहकपणे करीने, अन्य पुरुषोए उपार्जन करेला अर्थना भोगकारी नरपणे करीने, वली || arl कला शीखववा योग्यपणे करीने, अने वली द्वेष करवा योग्यपणे करीने पूर्व उत्पन्न भयो छे ? ए रीते गौतमस्वामीए भगवंतने पछयं. त्यारे भगवंत कहेता हवा. गौतम! हा! अनेकवार अथवा अनंतीवार आ जीव सर्व जीवोनी माता धइ, पिता थयो, भाई थयो, ए रीते उपर कह्या प्रमाणे पूर्व सर्व संबंध करी चुक्यो छे. एज प्रकारे सर्व जीवो Jain Education Intern 1201005 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य-dil पण आ जीवाना मातादिकपणे करीने, अनेकवार, तथा अनंतीवार पूर्व उत्पन्न थया छे. ए रीते सर्व जीवोने मांडो भाषांतर शतकम् | मांहि सर्व संबंध थइ चुक्या . इति संसारनी अनवस्था उपर कुबेरसेना गणिकानुं दृष्टांत तथा श्री भगवती सहित ॥ ४३॥ सूत्रना पाठनो अर्थ जाणवो. ॥४३॥ । अनुष्टुपवृत्तम् ।। न सा जातिः न सा योनिः न तत् स्थानं न तत् कुलम् ने सा जाई - सी जोणी । न "तं ठाणं ने "तं कुलं । न जाताः न मृताः यत्र सर्वे जीवाः अनन्तशः ने जाया नै मुआ जत्थ । सव्वे जीवा अगतसो ॥२३॥ अर्थः-(जत्थ के.) ज्यां (सव्वे के०) सर्व (जीवा के०) जीव जे ते (अणंतसो के०) अनंतीवार (न जाया के०) R- नथी उत्पन्न थया, तथा (न मुआ के०) नथी मरण पाम्या, एवी [सा के०] ते अर्थात् तेवी कोइ [जाई के०] जाति 30 जे ते (न के०) नधी. अने (सा के०) ते अर्थात् तेवी कोइ (जोणी के०) योनी जे ते (न के०) नथी, अने (तं के०)/JE D ते अर्थात् तेवू कोइ (ठाणं के०) स्थान जे ते [न के०] नथी. अने [तं के०] ते. अर्थात् तेवु कोइ (कुलं के०) कुल जे ते [न के०] नथी. एटले सर्वे जीवोने पूर्व कहेलां सर्वे स्थानको अनंतीवार थयां छे. ॥२३॥ Jain Education Interna 10.05 For Private & Personal use only c ww.jainelibrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित वली आ अधिकारने विशेषे जाणवानी मरजी होयं तो. श्रीभगवतीसत्रमा बारमा शतकना सातमा उद्देशामाथी वैराग्य भाषांतर JE बोकडानुं दृष्टांत जोइ लेजो. ॥४४॥ ॥ आर्याहत्तम् ।। HE|| ४४॥ तत् किमपि नास्ति स्थानं लोके वालाग्रकोटीमात्रमपि तं किंपि नत्थि ठाणं । लोएं वालग्गंकोडिमित्तपि ॥ यत्र न जीवाः बहुशः सुखदुःखपरंपरां प्राप्ताः जस्थ ने जीवा बहसो। सुहदुःखपरंपरं पत्ता ॥२४॥ अर्थ-(जत्थ के०) जे स्थानने विषे (जीवा के०) जीव जे ते (सुह दुख परंपरं के०) सुख दुःखनी परंपराने (बहुसो के०) घणीवार (न पत्ता के०) नथी पाम्या. (तं के०) ते. अर्थात् तेवु (किंपि के०) कोइ पण (लोए के०) लोकने विषे | 1) (वालग्ग के०) वालनो अग्रतेनो (कोडिमित्तंपि के०) प्रांतभाग मात्र पण, अर्थात् किंचित्मात्र पण (ठाणं के०) JE । स्थान जे ते (नस्थि के०) नथी. अर्थात् आ जीव, सर्वे स्थानकमा जइ आव्या छे. ॥२४॥ REL भावार्थ-व्यवहार राशीने पामेला जीवोने अनंतो काल थइ गयो छे, माटे ते जीवोने सर्व जाति आदिकने विषे ३ अनंतीवार उत्पत्ति धइज हशे? एम संभावना करीए छोए. केमके, ए अभिप्राय तो बहुश्रुतनेज गम्य छे. अर्थात् ते Jain Education Intem 2 010-05 For Private & Personal use only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥ ४५ ॥ Jain Education Interna अभिप्राय तो बहुश्रुत जाणे. हे जीव ! तुं अनंतीवार सारी सारी जातिमां तथा सारी सारी योनिमां उत्पन्न थयो छे, | अने सारा सारा स्थानमा तथा सारा सारा कुलमां उत्पन्न थयो छे, अने तुं त्यां अनेक प्रकारे जन्म मरण पाम्यो छे; परंतु विचारी जोतां तो तुं जेवो, तेवोने तेबोज छे. एटले तहारुं स्वरूप तो निश्वे नयमते करीने अछेद्य, अभेय, अजर, अमर, ज्ञानरूप, सुखरूप अने सत्तारूप एवं छे. तेने तुं बिसरी जइने, देहादि परभावमां आसक्त थइने पंच | प्रकारना विषयसुख भोगववानी तृष्णा हजु सुधी तने जती नथी. परंतु तुं एम वांच्छा राखे छे के हुं सारी सारी | जाति आदिकमां जहने सारा सारा विषय भोगवुं. पण ते विषयनां सुख ते अनंतीवार भोगवीने वमन कर्या छे, तोयपण तेनेतेज भोगनी इच्छा राखीने वातांशी (वमन करेलाने खानारो) केम थाय छे ? वली ए विषयसुखने भोगवीने कांइ तृस थवातुं नथी, पण उलटी तेनी तृष्णा जेम बलता अग्निमां घी होमे, ने तेनी ज्वाला वृद्धि पामे, | तेम विषयतृष्णा वृद्धि पामशे. माटे हे जीव ! तुं एम विचार के, हुं सर्व ठेकाणे जड़ने सर्व जातिनां सुख दुःख अनंतीवार भोगवी आव्यो छं, पण कोई ठेकाणे नथी जड़ आव्यो एम नथी. एवं विचारी विषयसुखधी विराम पामीने | तुं तहारा आत्मखरूपना अविनाशी सुखमां मन था. आ वे गाधानो भेगो भावार्थ छे. ॥ २३ ॥ २४ ॥ || आर्यावृत्तम् ।। सर्वाः ऋद्धयः प्राप्ताः सर्वेऽपि स्वजनसंबन्धाः साओ रिकीओ। पत्ता संवेवि सय संबंधा ॥ 010_05 भाषांतर सहित ॥ ४५ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यः शतकम् ॥ ४६ ॥ Jain Education Inter संसारे तस्मात् विरम ततः ऋद्ध्यादिभ्यः यदि जानासि तदा आत्मानं सुखिनं संसारे । ता विरमसु । ततो जड़ मुसि अप्पणं ॥ २५॥ अर्थ - (संसारे के०) संसारने विषे (सव्वाओ के ० ) सर्व एवी (रिद्धीओ के ० ) ऋद्धियो जे ते. तथा (सच्चेवि के० ) सर्व एवा पण (सयणसंबंधा के०) स्वजन संबंध जे ते (पत्ता के०) पाम्यो छे (तो के०) ते कारण माटे (जड़ के ० ) जो ( अप्पाणं के०) आत्माने (मुणसि के०) जाणे छे, तो (तत्तो के०) ते ऋद्धिआदिक थकी (विरमसु के ० ) विराम पाम. | अर्थात् निवृत्ति पाम ॥२५॥ 2010_05 भावार्थ- हे आत्मन्! संसारने विषे अनादि कालथी भ्रमण करतां आ जीवे देव मनुष्यादिकनी सर्वे समृद्धियो पामी छे, तथा सर्वनी साधे पोतानो माता पिता भाई भार्यादिक संबंध जोडायो छे; माटे तेमां तहारे मोह राखवो | घटतो नथी. केम के, जे स्त्री छे, ते पराभवनुं स्थानक छे, तथा जे बंधुजन छे, तेज बंधन छे. तथा जे विषयसुख छे, | तेज विष छे. (झेर छे.) ए प्रकारे जे तहारा शत्रु छे, तेनेज तुं मित्र जाणीने तेने विषे मोह राखीने बेठो छे. ते कारण। माटे एक पोताना आत्म स्वरूपनुंज साधुं सुख मानीने, ते ऋद्धि, स्वजन, इत्यादिकनुं कल्पित सुख मानीने अर्थात् तेने दुःखरूप जाणीने ते सर्व थकी निवृत्ति पाम्य. एक: बन्नाति कर्म एकः वधबंधमरणव्यसनानि एंगो बंधेइ कम्मं ॥ एंगो वहबंधमरणवसणाई || 兆毛毛孔美美美美美 भाषांतर सहित 11 8 11 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य विडहते भवे भ्रमति एक एव कर्मभिर्वजितः सन् भाषांतर शतकम् विसहइ भवंमि भमंडइ । एगुंचिअ कम्मवेलविओ ॥२६॥ सहित ॥४७॥ -(एगा के०) एकलो. अथोत् सहाय्य रहित एवो जीव जे ते ( कम्मं के.) ज्ञानावरणीआदि कर्मने | | ॥४७॥ JI (बंधइ के० ) आत्मानि संगाथे घांधे छे. तथा ( एगो के०) एकलोज भवांतरने विषे ( वह के० ) ताडन. अने (वंE] Patil | ध के० ) बंधन, अने ( मरण के० ) पाणनो वियोग, अने ( वसणाई के०.) आपत्ति, तेमने (विसहइ के० ) सहन 8 Kal करे छे. वली (एगुचिय के० ) एकलोज आ जीव ( कम्मवेलविओ के० ) कर्मवडे ठगायो सतो (भवंमि के० ) PH संसारने विषे (भमडइ के० ) भमे छे. ॥ २६ ॥ . | भावार्थ:-हे जीव ! जे वखत तहारो जन्म थयो, ते वखत ते एकलेज घणुंज कष्ट सहन कर्यु, पण ते वखत Vil तहारुं दुःख मटाडवाने माटे, तने कोइए सहाय्य करी नहीं. अने जे वखते तुं मरण पामीश, ते वावते ते मरणनी || | वेदना पण, तहारे एकलानेज सहन करवी पडशे. अने पछी ज्यारे नरकादिक भवांतरने विषे जईश. त्यारे त्यांनी VE वेदना पण, तहारे एकलानेज सहन करवी पडशे; प्रण जेने अर्थ एटले देहने अर्थे, स्त्रीने अर्थे, पुत्रने अर्थे, तथा 30 PE संबंधीने अर्थे ते अनेक प्रकारनां पाप कर्या छे, परंतु, तेमांनु कोई पण तहारी वेदनानो भाग लेवाने आवशे नही. JE | एवीजरीते बीजा भवोमां पण कर्मवडे ठगायेलो तुं, एकलोज कष्ट भोगवीश. अर्थात् तहारां करेला कृत्यने तुंज | vil भोगवीश. पण ते कष्ट भोगववाने वीजो कोइ पण आवशे नही. ॥२६॥ Jain Education Intern 2 010_05 For Private & Personal use only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् अन्यः न कुरुते अहितं हितमपि आत्मा करोति नैव अन्यः वैराग्य भाषांतर अन्नो नै कुर्णइ अहियं । हियपि अपी करेई नहु अन्नो ॥ सहित ॥४८॥ आत्मकृतं सुखदुःखं भुजक्षि ततः कस्मादऽसि दीनमुखः । ।। ४८॥ अप्पकैयं सुहहुँख्खं भुंजैसि ता कीस दीणमुंहो ॥ २७ ॥ ___ अर्थ-हे प्राणिन् ! ( अन्नो के० ) अन्य जे ते ( अहियं के० ) अहित (अनिष्ट ) ने (न कुणइ के. ) नथी । Rell करतो. परंतं आत्माज को के. अने (हियंपिके) हितने पण, ते (अप्पा के) आत्माज (करेड के) करे JE पण (अन्नो के०) अन्य कोइ (नहु के०) नथीज करतो. (ता के०) ते कारण माटे ( अप्पकयं के ) आत्मानुं करेलु जे (सुखदुखं के०) सुखदुख, तेने (भुंजसि के० ) पोते आत्माज भोगवे छे; माटे तुं (दीणमुहो के०) दीनमुखE वालो (कीस के०) केम थाय छे ? अर्थात् तुं बीजाओनो दोष शु करवा देखे छे ? ॥२९॥ vie भावार्थ-हे जीव ! तुं एम विचारे छे के, फलाणाये महारुं बगाडयुं, एम धारीने तेना ऊपर द्वेष करे छे. अने । फलाणाये महारं सुधार्यु, एम धारीने तेना उपर राग करे छे, पण तेमांनु कोइ तहारू बगाडतुं पण नथी, ने सुधारतुं | पण नथी; परंतु ते बगाडनारो अने सुधारनारो, ते तहारो आत्माज छे. अर्थात् सुख पण तहारो आत्मा करे छे, ३६ अने दुःख पण तहारो आत्माज करे ; माटे दुःख आव्ये सते दीनमुखवालो थइने, बीजानो दोष शुं करवा देखे छ? Jain Education Inter 2010-05 For Private & Personal use only | Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥४९॥ वैराग्य Re वली श्रीउत्तराध्ययननसूत्रना वीसमा अध्ययनमा कयु छे के, वैतरणी नदीनो पमाडनार पण आ आत्माज छे, अने शतकम् | कुटशाल्मलि वृक्षनी वेदनाने पमाडनारो पण आआत्मा छ, अने कामधेनु गायने पमाडनारोपण आ आत्माज छे, अने |J// नंदनवन तथा देवलोक अने मोक्ष तेने पमाडनारोपण आआत्माजळे, वली आ आत्मा कोइअपेक्षाये कर्ता छे अने कोइ | ६|| अपेक्षाए अकर्ता छे. एज रीते सुख दुःखनो कर्ता अकर्ता पण आत्माज छे. वली मित्र तथा अमित्र पण आत्माज छ, | pril अने सदाचार अने दुराचारने करनारो पण आ आत्माज छे. एम जाणीने कोइना उपर राग द्वेष करवो नहीं. ॥२७॥ | बहुआरंभेण उपार्जितं वित्तं अनुभवंति हे जीव स्वजनगणाः बहुआरंभविढत्तं । वित्तं विलसति जीव सयणगणा ॥ तेन आरंभेण जनितं पापकर्म अनुभविष्यति नरके पुनः त्वं एव तऋणियपावकम्मं । अणुहवास पुणो तुमं चे ॥२८॥ ___अर्थ-( जीव के० ) हे प्राणिन् ! (सयणगणा के० ) माता, पिता, भाइ, स्त्री, पुत्रादिक स्वजननो समूह जे ते, [ बहुआरंभ के] ते खेती आदिक घणा आरंभे करीने [विढत्त के० ] उपार्जन कयु एवं. जे [वित्तं के० ]धन, ते प्रत्ये अर्थात् ते धने करीने, तेओ [विलसंति के०] विलास करे छे. अर्थात् ते धनर्नु फल ते स्वजनादिक JE E भोगवे . [ पुणो के. ] वली | तऋणिय के० ] ते आरंभे करीने उत्पन्न धयु एवं, जे [ पावकम्मं के० ] पापकर्म, । तेने [ तुमं चेव के० ] तुं एकलोज (अणुहवसि के० ) अनुभव करीश. अर्थात् नरकादिकने विषे ते पापर्नु फल ___JainEducation intemaatb10_05 For Private & Personal use only ww.jainelibrary.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित तुं एकलोज भोगवीश. ॥ २८ ॥ वैराग्यभावार्थ-हे जीव ! तें अनेक प्रकारे जीवहिंसा तथा कूडकपट छलभेद प्रपंचादिक केटलाक अनर्थ करी, तथा भाषांतर शतकम् Mar नीच सेवादिक घणां अकर्त्तव्य करी, तथा अनेक प्रकारे परदेशमा भमीने, तथा लडाइ प्रमुखमां मरणांत कष्ट माथे । ॥५०॥ न लेइने. तथा पोताना स्वधर्मनो पण त्याग करीने तथा रात्रि दिवस शरीरनु सुख पण न गणीने, धन उपार्जन कर्युः परंतु ते धनने स्वजन तथा ज्ञाति आदिक लोक, तहारो उपकार न गणतां, उलटा तने दयावीने तथा तने तिरस्कार | JE करीने, तथा मेहेणां मारीने, अने अनेक प्रकारनी युक्तिवडे करीने, एटले उंदरनी पेठे फुकी कुंकीने तेओ खाइ जाय | JE छे. अर्थात् धोले दहाडे भर्या शेहेरमां ते स्वजनादिक चोर, तने लूटी ले छे. अने ते धन उपार्जन करतां जे पाप | थयु, तेना फलने तो नरकादिकने विषे, तुं एकलोज भोगवीश. पण बीजु कोइ भोगववा आवशे नही. माटे हे भव्य PE प्राणिन् ! काइक विचार करीने न्यायधी धन उपार्जन करीने तेने काइक तो सारा मार्गमां वापर ! ॥२८॥ अथ दुखिताः तथा बुभुक्षिताः इति यथा चिंतिताः डिभाः अर्ह दुखिआइ तह । भुखियाइ जहे चिंतिआइ डिंभाइ ___ तथा स्तोकमपि न आत्मा विचिंतितः अतस्त्वां हे जीव किं भणीमः तह योवपि ने अॅप्पा । विचिति'ओ जीवे कि' भणिमो ॥२९॥ अर्थ (जीव के०) हे जीव ! तुं मोहने वश थइने ( जह के० ) जेम ( डिभाइ के० ) आ महागं बालक जे ते Jain Education Interna . 010.05 Cal Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ ५१ ॥ Jain Education Interna 兆毛兆兆兆的 ( अह के० ) हवे ( दुःखिआइ के० ) दुःखियां छे. एटले टाढमां ओढवा पाथरवादिक वस्त्र नथी, तेथी पीडा पामे छे. ( तह के० ) तेमज ( भुखिआइ के० ) महारा बालक भूख्यां छे. एम (चित्तिआइ के० ) ते बालकोनुं तुं | रात्रि दिवस चितवन करे छे, परंतु (तह के ० ) तेवी रीते, तें ( अप्पा के० ) आत्मा जे ते ( थोपि के० ) थोडो पण ( न विचितिओ के० ) नथी चितवन कर्यो. माटे तने (किं भणिमो के० ) शुं कहीए ? अर्थात हे मूर्ख ! तने केटलो ठपको देइए ? एटले ते थोडो पण आत्मानो विचार नथी कर्यो. के, महारा आत्मानी शी गति थशे ? एवो विचार लगारमात्र पण तुं करतो नथी ।। २९ ।। भावार्थ - हे जीव ! तुं मोहने वश धइने रात्रि दिवस पारकी चिंता करया करे छे. के, आ महारां बालक, तथा आ महारी स्त्री इत्यादिक स्वजन भूख्या छे, तरण्यां छे, तथा तेमने अन्न वस्त्रादिकनुं दुःख छे. इत्यादि अनेक प्रका रनी चिताने रात्रि दिवस कर्या करे छे. परंतु तुं त्हारा आत्मानी चिंता करतो नथी के, में महारा आत्मानुं साधन | केटलं कर्यु ? एटले आत्मा परभवे सुखी थाय, एवं काम में रात्रि दिवस मध्ये केली घडी कर्यु ? एवो धोडो पण |तहारा स्वार्थनो विचार तुं करतो नथी. केवल रात्रि दिवस पारकुंज वैतरुं कर्या करे छे, माटे तुं मूर्ख छे; तेथी तने केटलो उपदेश देइए ? केम के, उपदेश तो योग्यनेज थाय छे. 2010_05 क्षणभंगुर खर्णभंगुरं शरीरं संरीरं जीवः अन्यः च शाश्वत स्वरूपः । जीवो अन्नो अ सासयस रूवो 兆北兆 भाषांतर सहित ॥ ५१ ॥ j. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ ५२ ॥ Jain Education Intern 兆美兆兆儿。 कर्मवशात् अनयोः संबंध: कम्मैवसा संबंधो निर्बंधो मूर्छा एवं शरीरे कः तव निबंध ईछ को तुझं ॥३०॥ 1 अर्थ - हे आत्मन् ! (खणभंगुर एटले क्षणमां नाश पामवाना स्वभाववालुं एवं ( शरीरं के० ) आ शरीर छे. अके० ) वली (अन्नो के०) शरीर थकी जूदो एवो, अने ( सासयसरूवो के ० ) शाश्वत छे स्वरूप ते जेनुं, एवो (जीवो के० ) जीव छे, तेने (कम्मवसा के० ) कर्मना आधीनपणाथी शरीरनी साथे (संबंधो के ० ) संयोग थयो छे; माटे ( इच्छ के० ) ए शरीरने विषे ( तुज्झ के० ) तहारे (को के० ) क्यो ( निब्बंधो के० ) अनुबंध के ? एटले ए शरीरने विषे तहारे शी मूर्च्छा छे ? ॥ ३० ॥ भावार्थ- हे जीव ! तुं अछे, अभेद्य, अजर, अमर, ध्रुव, अनंतज्ञानमय, अनंतदर्शनमय, अनंतवीर्यमय, ज्योतिः स्वरूप, पवित्र, अलिंग अव्यक्त, निर्लेप, निरंजन, अने आनंदमय एवो तुं निश्चनय मते छे; परंतु अनादि कालथी कर्मना वशे करीने, अनित्य अने अशाश्वत एवं अने त्वचा, मांस, हाडकां, रुधिर, नसो, मेद एटले हाडकां उपर | रहेली चामडी, अने मळ एटले हाडकांमां रहेलं मांस, अने मल सूत्र, ने दुर्गंध ने विभत्स (बिहामणी) एवी वस्तुए भरेला चामडाना कोथला रूप आ शरीर छे, तेवा शरीरने विषे हे जीव ! तुं कर्मना वशथकी बंधाएलो छे. तेने विषे महारापणुं मानी लेइनें, एटले आ शरीर ते हुं हुं. एम धारीने तेना उपर ममस्वभाव राखीने शुं करवा मिथ्या हेरान थाय छे ? इहां प्रसंगानुसारे शरीर उपरथी मूर्छा उतरवाने माटे, विचारवा जेवुं एक दृष्टांत लखीए छीए. 2010_05 -- 兆光美美美扎美爽儿 भाषांतर ।। ५२ ।। . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य भाषातर शतकम् ॥ ५३ ॥ | जेम कोइ पुरुषे सरकारनो अपराध को होय, तेणे करीने तेने सखन मजूरी साथे, महा दुःख दाइ बंधी:- || । खानामां, अमुक वर्षनी टीप मारीने पूर्यो होय, तेम तने पण तहारा कर्मे, पूर्वे लखेली अशुचि वस्तुए करीने भरेलो, अने दुर्गधमय शरीररूप पुरुषनी आकृतिवालो तथा स्त्रीनी आकृतिवालो चामडानो कोथलो, तेमां तने अमुक मुदत | ॥ ५३॥ सूधी पूर्यो छे; तो पण तेवा शरीरने विषे तुं एवो ममत्व धारण करे छे के, हुं शेट, हु शेठाणी, हुं राजा, हुं राणी, Id हुं ब्राह्मण, हुं ब्राह्मणी, इत्यादिक कल्पित नाम ठरावीने तथा ते कोथलानो रंग, कालो धोलो देखीने तेमां रूपवान | र कुरूपवाननी कल्पना करीने, तुं मोह पामे छे; परंतु एम नथी विचारतो के, आ महारा शरीरमा शेठ ते कियो ? हाथ शेठ ? पग शेठ ? के, माधुं शेठ ? एम खरी रीते विचारिश तो सर्व कल्पना मात्र न मालुन पडशे. माटे || KI एवी रीते वस्तुगते विचारीने, तुं शरीर उपरथी मूर्छा उतार. किंबहुना ? आ अधिकारने विषे श्री आचारांगजी | I | सूत्रमा विशेष प्रकारे कर्तुं छे, त्यांची जोइ लेवु. ॥ ३० ॥ . कुतः आगतं कुत्र चलितं त्वमपि कुतः आगतः कुत्र गमिष्यसि कह ऑयं. कह चलियं । तुमपि कह आगओ केहं गमिही अन्योन्यमपि युवां न जानीयः .हे जीव कुटुंबमिदं कुतः तब अन्तःकरणात् अन्वेंन्नपि ने याह जोवे कुर्डवं केओ तुज्झै ॥६१॥ अर्थ-(जीव के० ) हे आत्मन ( कुटुंब के० ) आ माता पिता भाइ स्त्रीयादि कुटुंब ( कह आयं के० ) Jain Education Inter 1010_05 For Private & Personal use only A l Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ ५४ ॥ क्यांथी आव्युं छे ? अने ( कह चलिये के० ) क्या गयुं ? एटले अहिंथी मरीने क्यां गयुं ? अने (तुमपि के० ) तुं पण ( कहआगओ के०) क्यांथी आव्यो ? अने ( कहं गमिहि के०) क्यां जइश ? एम (अन्नुन्नपि के० ) परस्पर एटले | एक बीजाने पण ( नयाणह के० ) नथी जाणतो. माटे (तज्झ के० ) तहारुं कुटुंब ( कओ के० ) क्यांथी ? अर्थात् | एक बीजाने जाण्या वगर आ कुटुंब महारुं छे, एम मानी बेठो छु; ते मिथ्या छे. ॥ ३१ ॥ भावार्थ- हे जीव ! जेना उपर तने घणो मोह छे, ने महारां करे छे, ते तहारां माता पिता स्त्रीयादिक केइ | गतिमांथी आव्यां छे ? ने केइ गतिमां जशे ? अने तु पण केइ गतिमांथी आव्यो छे ? ने केइ गतिमां जइश ? ते | संबंधी तने कांइ पण खबर नथी. एटले जेंम परबने विषे कोइ क्यांथी आव्युं ने कोड़ क्यांथी आयु, ए रीते ते | ते सव आवीनें एकठां मछे छे. पछी तेओ पाणी पीने सउ सउने मार्गे वेराइ जाय छे. तेम आ भवरूप परवने विषे कुटुंबरूप सर्व लोक पण, कोइ नारकीमांथी, कोइ तिर्यचमांथी, कोइ मनुष्यमांथी अने कोइ देवलोकमांथी, एम सउ | सउनी गतिमांथी आवीने भेगां धयां छे. तेओ पोतपोताना कर्मने अनुसारे सुख दुःख दुःख भोगवीने, पोतपोतानां | करेलां कृत्यने अनुसारे चाल्यां जाय छे. परंतु तेमने राखवाने माटे तुं अनेक प्रकारना उपाय करीश, तोय पण ते रही शकवानां नथी. ते कारण माटे तेमने तुं एम मानी बेठो छु के, आ महारुं कुटुंब छे, पण ते वस्तुगते तहारुं कुटुंब छेज नही. परंतु तहारुं साधुं कुटुंब तो ज्ञान, दर्शन, चारित्रादिक आत्मगुण हे ॥ ३१ ॥ आ अधिकारने विशेष जाणवानी मरजी होय तो, श्रीआचारांगजी सूत्रना प्रथम श्रुतस्कंधना प्रथम अध्य Jain Education Inter 2010_05 भाषांतर सहित ॥ ५४ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् यनना, प्रथम उद्देशामां जोड़ लेजो. वैराग्यक्षणभंगुरे शरीरे मनुजभवे आभ्रपदलसदृक्षे भाषांतर खणभंगुरे संरीरे मणुअंभवे अप्भपडलसारित्थे ॥ सहित सारं एतावन्मात्रं यद्यस्मात् क्रियते शोभनः धर्मः +॥ ५५॥ सारं इत्तियंमत्तं । जें कीरई सोहणो धम्मो ॥३२॥ अर्थ-हे आत्मन् ! (खणभंगुरे के०) क्षण क्षणमां नाश पामतुं ए, (सरीरे के) शरीर सते, तथा (अभडल D/सारित्थे के०) मेघना समूह जेवा एटले जेम वायराथी मेघ शीघ, नाश पामे छे, तेम थोडा कालमां नाश पामे एवा (मणुअभवे के०) मनुष्यभवने विषे (जं के०) जे (सोइणो के०) सारो. एटले पांच आश्रवधी विराम पामवा रूप ( धम्मो के० ) जिनप्रणीत धर्म जे ते ( कीणइ के० ) करीए. [इत्तियमित्तं के०] एटलं मात्रज ( सारं के० ) सार छे. | अर्थात् आ संसारमा जेटलं धर्मसाधन थागछे, एटलंज सार छे. ॥३२॥ भावार्थ -हे भव्य जीव ! देवादिक भवनी अपेक्षाए थोडा काल रहे एवो, आ मनुष्यभव छे, तेमां वली आ शरीर छे. तेवा क्षणिक शरीर वडे, जेटली घडी तुं धर्मसाधन करीश, एटली वारनोज तहारो मनुष्यभव लेखानो छे. जेम कोइ घर बलतुं होय, ने तेमांधी जेंटलो सामान काढी लीधो, तेटलोज आपणो छे; तेम नाश पामता / शरीरथी जेटली घडि तुं तहारा आत्मानुं साधन करीश, एटलीजवार तहारो मनुष्यभव जाणवो. अने बाकी नो Jain Education in 2010 05 For Private & Personal use only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित पशुना जेवो निरर्थक जाणवो. एटले जेम पशु छे, ते आहार, उंघ अने मैथुन तेणे करीने पोतानो जन्मारो गमावे वैराग्य भाषांतर Kछे, तेम तहारो पण व्यर्थ जन्मारो गयो जाणवो. ॥३२॥ शतकम् ॥ अनुष्टुपवृत्तम् ।। जन्मदुख्खं जरादुख्खं रोगाः च मरणानि च । जन्मदुख्खं जरादुख्खं । रोगा ये मरणाणि य ॥ अहो आश्चर्ये दुःखरूपः निश्चये संसारः यत्र संसारे क्लिश्यंति जंतवः अहो दुखो हु संसारो । जर्छ कीसंति जंतुणो ॥३३॥ अर्थ- अहो के०] अहो इति आश्चर्य ! एटले आ वात आश्चर्यकारी छे. अथवा (अहो के० ) हे जीव ! ए | vil र प्रकारे जीवनुं संबोधन करवू. आ संसारमा पर्यटन करता प्राणियोने कोइ एवो पदार्थ नथी के, जे दुःखदायक | न होय. अर्थात सर्वे पदार्थ दुःखदायक छे. शुं शुं दुःखदायक छे, ते देखाडे छे. (जन्म दुख्खं के०) जन्म संबंधी | दुःख, एटले आ जीवने जन्मती वखते घणुंज रुःख थाय छे. तथा ( जरा दुरुग्वं के०) वृद्धावस्था संबंधी दुःख, एटले | A/ IMI घढपणमां अनेक प्रकारनां दुःख प्राप्त थायछे. ( य के.) वली (रोगा के० ) अनेक प्रकारना व्याधि उत्पन्न थाय छ II Kil ( य के.) बली ( मरणाणि के.) अनेक प्रकारे मरणनी वेदना थाय छे, माटे (हु के० ) निश्चे. (जळ के. जे संसारने || विषे (जंतुणो के ) पाणी जे ते (कीसंति के० ) क्लेश पामे छे, ते (संसारो के० ) संसार जे ते (दुख्खो के० ) ___JainEducation inter 2 010_05 For Private & Personal use only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 केवल दुःखरूपज छे, अर्थात् आ संसारमा काइपण सुख नथी ॥ ३३ ॥ भाषांतरवैराग्य- भावार्थ-हे आत्मन् ! तुं विचार कर के, आ जीव ज्यांची जन्मे छे, त्यांथी ते मरणपर्यंत केवल दुःखमांज सहित शतकम्। वर्ते छे. केमके, जन्मती वखते दुःख घणुं पडे छे. ते विषे शास्त्रमा का छे के, अग्निवडे तपावोने लालचोळ करेली I साडात्रण क्रोड सोयो, शरीरमा रहेली एवी साडात्रण कोटि रोमराय तेने विषे चांपतां जेटली वेदना थाय, तेथी hdln ५७ ॥ Kril आठगुणी वेदना गर्भने विषे थाय छे. तथा जन्मती वखतनी बेदना तो, काइ कही शकाय तेवी नथी. | जेम जतरडामां घालेला सोना रुपाना तारने, जेम बलात्कारे खची काढे छे, ए दृष्टांते माताना योनियंत्रमाथी निकलतां, माताने तथा पोताने अतुल वेदना थाय छे. तेवी रीते मरणर्नु दुःख पण जाणी लेवु. हवे जन्म अने मरण ए बे दुःखोनी मध्ये रहेला दुःखोजें वर्णन करोंए छीए. बाल्यावस्थाने विषे ते बालकने बोलतां न आवडवाथी तेने जे वेदना थइ होय, ते वेदना मटाडवाना उपचारने वदले उलटी तेने वधारे वेदना थाय, तेवा उपचार करवामां आवे-d छे. जेम के, ते बालकनुं माथु दुःखतुं होय, तेनो उपचार मूकीने पेट दुःखतुं मटाडवानो उपचार करे छे, इत्यादि. Pवली जवानीमां एटले मानीलीधेली सुखनी अवस्थामां पण, संसारना समस्त सुखनी प्राप्ति नथी. कदापि पराणे एक सुखनी प्राप्ति थाय छे, तेवामां बीजां बे दुःख उभा थाय छे. जेम कोइ वस्तुनो धडो करवा माटे, कांइ पण चीज न जडवाथी, चोमासामा उत्पन्न थएलां आशरे दश पंदर देडकां लेइ, पांचशेरीनो घडो करे छे, तेवामां ते घडो कांइक ओछो थवाथी जेवामां बीजं एक देडकुंलेवा जाय छे, तेवामां बे देडका कुदी जाय छे. वली बेने पकडवा जाय JainEducation Inter 2 010_05 For Private &Personal use Only REw.jainelibrary.org Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ و वैराग्य زنانه ॥ ५७ केवल दुःखरूपज छे, अर्थात् आ संसारमा कांइपण सुख नथी ॥३३॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! तुं विचार कर के, आ जीव ज्यांची जन्मे छे, त्यांथी ते मरणपर्यंत केवल दुःखमांज भाषांतर सहित शतकम् वर्ते छे. केमके, जन्मती वखते दुःख घणुं पडे छे. ते विषे शास्त्रमा को छे के, अग्निवडे तपावीने लालचोळ करेली IFI साडात्रण क्रोड सोयो, शरीरमा रहेली एवी साडात्रण कोटि रोमराय तेने विषे चांपतां जेटली वेदना थाय, तेथी |Nail | आठगुणी वेदना गर्भने विषे धाय छे. तथा अन्मती वखतनी वेदना तो, काइ कही शकाय तेवी नथी. जेम जतरडामां घालेला सोना रुपाना तारने, जेम बलात्कारे खची काढे छे, ए दृष्टांते माताना योनियंत्रमाथी निना लतां, माताने तथा पोताने अतुल वेदना थाय छे. तेवी रीते मरणर्नु दुःख पण जाणी ले. हवे जन्म अने मरण ए IN वे दुःखोनी मध्ये रहेला दुःखोजें वर्णन करोंए छीए. बाल्यावस्थाने विषे ते बालकने बोलतां न आवडवाथी तेने जे II Iovi वेदना थइ होय, ते वेदना मटाडवाना उपचारने वदले उलटी तेने वधारे वेदना थाय, तेवा उपचार करवामां आवे छे. जेम के, ते बालकनुं माथु दुःखतुं होय, तेनो उपचार मूकीने पेट दुःखतुं मटाडवानो उपचार करे छे, इत्यादि. वली जवानीमां एटले मानीलीधेली सुखनी अवस्थामां पण, संसारना समस्त सुखनी प्राप्ति नथी. कदापि पराणे एक सुखनी प्राप्ति थाय छे, तेवामां बीजां दुःख उभां थाय छे. जेम कोई वस्तुनो धडो करवा माटे, काइ पण चीज न जडवाथी, चोमासामा उत्पन्न थएलां आशरे दश पंदर देडकां लेइ, पांचशेरीनो घडो करे छे. तेवामां ते घडो | कांइक ओछो थवाथी जेवामां बीजं एक देडकं लेवा जाय छे, तेवामां बे देडका कुदी जाय छे. वली वेने पकडवा जाय Jain Education Inter 2 010_05 For Private & Personal use only HIw.jainelibrary.org Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ।। ५९ ।।। Jain Education Inten गयुं नथी के, तमारुं कां करीए ! वली घरना खुणाने विषे खांसी खातो खातो एक तूटमूट खाटलीमां पडयो रहे छे वली जवानी अवस्थामां पुत्रादिकनें पालन पोषण करेलां, ते एवी आशाए के, तेओ वृद्धावस्थामां महारी चाकरी करशे, तोयपण ते स्त्री, पुत्र, पुत्रनी स्त्रीयो, इत्यादि ते पण ते डोसाथी न सहन थाय तेवो पराभव करे छे, अने वली मोढेथी बोले छेके, आ डोसो मरतोए नथी अने मांचो मूकतो पण नथी. वली ते डोसानी घरमा रहेला माणसोज निंदा करे छे, एटलुंज नही परंतु ते वृद्ध पोतेज; पोताना देहनी निंदा करे छे. ते उपर टीकामां लखेलुं काव्य तथा तेनो अर्थ लखीए छीए. ॥ वैतालीयवृत्तम् ॥ वसंततमस्थिशेषितं शिथिलस्नायुघृतं कलेवरम् ॥ स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते किमु कान्ता कमनीय विग्रहा ॥ १ ॥ अर्थ- वृद्धावस्थाथी जेना बधा शरीरनी त्वचा (चामळी) मां करचोलीयो वली गइ छे, तथा शरीरमां केवल हाडकाज देखाय छे अने नाळियो पण शिथिल थइ छे, एवा बेढंगा कलेवरने जोड़, ए वृद्ध पोते पोतानी मेले ते शरीरनी निंदा करे छे; तो जेतुं शरीर सुंदर छे एवी स्त्रीयो निंदे, तेमां तो शुंज कहेवुं ? ॥ १ ॥ वली ते वृद्धावस्थाना दुःख उपर टीकामा कथा लखेली छे, तेनो अर्थ लखीए बीए. 2010_05 भाषांतर सहित 11 48 11 ww.jainelibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा ३ वैराग्य क्रौशांबी नगरीने विषे घणा धनवालो, अने घणा पुत्रवालो एवो, एक धनो नामे सार्थवाह हतो. तेणे एकलेज | भाषांतरशकम्त सहित नाना प्रकारना उपाये करीनें, धन उपार्जन कयु. ने ते सघलं धन, दुःखवाला बंधुजन, तथा स्वजन, Vil of तथा मित्र, तथा स्त्री, अने भाइ आदिक सर्वे संबंधीओना भागने अर्थ वापर्यु. त्यारपछी ते धनो कालना परिपाक- ॥ ६ ॥ K पणाथी वृद्धावस्थाने पाम्यो. तेना सघला पुत्रो तेनुं सारी रीते पालन पोषण करवानी योग्य कलामां कुशल हता. | संसार संबंधि सघला कामनी चिंतानो भार तेणे ते पुत्रो उपरज नांख्यो हतो, तोयपण ते पुत्रो एम योले छे के, X. अमने आ पिताजीएज आवी सुंदर अवस्थाने पमाडया छे; तथा सर्वे लोकना अग्रेसर कर्या छे, तथा तेमणे अमारो l बह उपकार को छे. ए रीते पोतानुं सारं कुलीनपणुं, ते पुत्रो जणावता हता. पछी कोई कार्य प्रसंगे ते वृद्धनी II |स्त्रीयो पोनाना स्वामीनी चाकरी करती हती. तेमां पण शरीर चोलीने स्नान कराव, भोजन करावq इत्यादिक | जे काले जेम करवू घटे, ते तेम निरंतर करती हती. तेम करता करतां केटलाएक दिवस गया. पछी वृद्धपणुं वृद्धि | पाम्युं, एटले आखा शरोरनी इंद्रियो स्वाधिन न रही, अने सर्वअंग कंपवा लाग्यां, अने नेत्रादिकमांधी पाणी गलवा | मांडयु. त्यारे हलवे हलवे ते स्त्रीयादिकोए, ते वृद्धनी चाकरी घटाडवा मांडी. केमके, वृद्धपणुं तो वधवा लाग्युं माटे | | वली ते वृद्ध चित्तना अभिमानवळे करीने, वृद्धावस्थानां दुःखरूप समुद्रमां पडयो. वली ते वृद्धना दीकरानी स्त्रीयो | एम कहे छे के, आडोसानुं वइतरुं कूटवानुं ते अमारा कर्ममा क्यां सुधी घाली मूक्यु हशे ? ते काइ मालम पडतुं 2010 05 O Jain Education Inter IV ww.jainelibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य - नथी. त्यारे तेमना स्वामीओ (डोसाना पुत्रो) वली ते स्त्रीयोने समजावीने डोसानी चाकरीमा वलगाडे छे. त्यार | | पछी एक दिवसे ते सर्वे स्त्रीयो, संप करीने पोतपोताना भरतारने कहे छे के, तमारा पितानी अमें घणी घणी | भाषांतर शतकम् | चाकरा कराए छोए, तायपण ते वृद्धपणामा चाकरी करीए डीप तोयपण ते बद्धपणामां दिनी विकलताथी. अमारी कोली चाकरीता जगने वदले. उलटोBAPER सहित | अपजश आपे छे, माटे तमने जो अमाझं कयुं मानवामां न आवतुं होय, तो बीजा कोइ माणस पासे ते डोसानी || ॥ ६१ ॥ चाकरी करावो, एटले खबर पडशे. पछी ते पुत्रोए तेमज कयु. त्यार पछी केटलाएक दिवसे पूछयु के, हे पिताजी | ॥ ६१ ॥ K. केम हवे सारीरीते चाकरी थाय छे ? त्यारे ते डोसो बोल्यो के, भाइ ! शुं कहुं महारुं मन जाणे छे, कांइ कहे* वानी वात नथी. एवीरीते डोसानु बोलवू सांभळीने, ते सर्वे स्त्रीयो पोताना पतिने कहेवा लागी के, तमे अमारुK का नहोता मानता, पण हवे जख मारीने मान्यु !! इत्यादिक रीते बोलीने, ते डोसाना अवगुण पोताना पतिना |K Invi हृदयमां सारीरीते ठसाव्या. ते पुत्रो पण ते स्त्रीयोनुं कहेवू मान्य करीने, पोताना पितानो तिरस्कार करवा लाग्या. In ए रीते च्यारे तरफनुं दुःख भेगुं थवाधी, ते डोसाए पोको मृकवा मांडी. ते सांभलीने ते स्त्रीयो बोली के, आपणा ससराने अन्न पचतुं नथी, ने वगर विचार्यु खा खा करे छे, तेथी चुक आवती हशे. माटे लावो ! |N देवता वडे शेकीए. पछी ते स्त्रीयो पण लुगडांना डुचा सारो पेठे उना करीने जेम डाम दे, तेम डोसाने शेके छे; तेथी ते डोसाने घणी पीडा थवाथी डोसो ना ना कहेतो जाय छे, तोपण पराणे पराणे शेके जाय छे, अने मनमा | विचारे छे, आ डोसाए लोकमां अमारी बहु फजेती करी छे, माटे फरी फरीने आवो लाग मलवानो नथी. एम ___JainEducation IntemanALo1005 | ww.jainelibrary.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् ॥ ६२॥ ॥३२॥ ते डोसाने बहु पराभव करे छे. त्यारपछी ते डोसो पण आर्तध्याने करी थोडा दिवसमा मरण पाम्यो. ए रीते वृद्धावैराग्य- वस्थानु दुःखः जाणवू. भाषांतरवली ते वृद्धावस्थाना दुःखना वर्णन बोजु काव्य, टीकामां लख्युं छे, ए लखीए छीए. सहित ॥शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ॥ | गात्रं संकुचितं गतिविगलिता, दन्ताश्च नाशं गता !! दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव ह्यसते, वक्रं च लालायते ॥ Dवाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते । धिक् कष्टं जरयाभिभूतपुरुष, पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥२॥ ____ अर्थः-वृद्धावस्थामां शरीर संकोचाइ जाय छे, एटले शरीरे करचलीओ वले छे. अने गति पण विकल थाय छे, एटले ज्यां पग मूकवो धारयो होय, त्यां न मूकातां बीजें ठेकाणे मुकाइ जाय छे. अने दात पण पडी जाय छे. अने | Ki आंखे झांख आववाथी बराबर देखातुं नथी. अने रूप पण दिवसे दिवसे घटतुं. जाय छे. अने मुखमाथी | र लाळ चूए छे, वली बांधवजन पण, ते वृद्ध- कई करता नथी. अने परणेली स्त्री पण, सेवा करती नथी. माटे जराए || (वृद्धवस्थाए ) करीने पराभव पामेला पुरुषने धिक्कार थाओ ! ! ! केम के, पुत्र पण ते वृद्धनो तिरस्कार करे छे. It M माटे ए वृद्धापणानुं जीवq ते केवल कष्टरूप जाणवू. ॥२॥ वली कर्तुं छे के, जेम ते वृद्धनी पोतानां घरनां माणसो निंदा करे छे, तेम ते वृद्ध पण पोताना घरना माणसोना K अनेक दोष प्रकट करीने तेओनी निंदा करे छे. वली ते वृद्धे पूर्वे एटले जवानी अवस्थामां धर्म को हतो तेथी केटलाएक Jain Education Intern For Private & Personal use only J Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ InM लोक ते वृद्धनो निर्वाह करता हता, ते पण आ वृद्धावस्थामा तेनु दुःव नाश करवाने समर्थ थता नथी जेम कोइ-15 वैराग्य- माणस नौकामां (वहाणमा) बेठो होय, तेवामां ते नौका भरदरिया वच्चे भांगी जाय, त्यारे तेमां बेठेला माणसोने ! भाषांतर शतकम् | जेम दुःख थाय, तेम दुःख थाय, तेम आ वृद्धने पण महाय्यता न मळवाथी, तेवू दुःख थाय छे. तथा जे वृद्धने | THE जोवाथी बीजाने पण करुणा उत्पन्न थाय, तेवो ते वृद्ध दुःखी थाय छे. इत्यादि विस्तार श्रीआचारांगजीसूप्रथी । IN जाणवो. वली शास्त्रमा कर्जा छे के: ॥ अनुष्टपवृत्तम् ॥ सव्वे जीवावि इच्छंति । जीविउं न मरिजउं ॥ तम्हा पाणिवहंघोरं । निग्गंथा वजयतिणं ॥ ___ अर्थ:-सर्वे वृद्धावस्थानुं जे दुःख कयु, तेथी मरणनी वेदनानुं दुःख अत्यंत जाणवू माटेज शास्त्रमा कहां छे के, Jd सर्वे जीवो जीवबुं वांछे छे, पण कोइ जीवो मरवं इच्छता नथी. एटलाज माटे निग्रंथ महामुनिओ घोर एवा प्राणिol वधनो त्याग करे छे. ___ वली एज अधिकारने विशेष जाणवाना अधि पुरुषोए, श्रीआचारांगजीसत्रमाथी जोइ लेवू. वली गाथामां | च शब्दनुं ग्रहण कर्यु छे तेथी द्रव्य संबंधी पण घणुंज दुःख छे ते देखाडे छे. अर्थानामर्जने दुःख-मर्जितानां च रक्षणे ॥ आये दुखं व्यये दुखं धिगर्थ दुःखसाधनम् ॥ T JainEducation intoodi w w.jainelibrary.org o 10.05 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ ६४ ॥ Jain Education Inter अर्थ संसारने विषे मनुष्योने वे प्रकारना प्राण छे. तेम एक अंतःमाण, ने बीजो बहि:प्राण. तेमां अंत:| प्राण तो प्रसिद्ध छे, अने यहि प्राण ते धन छे. केमके, प्राण जतां जेवुं दुःख थाय छे, तेयुंज दुःख धन जतां पण थाय छे, एटलाज माटे ज्ञानी पुरुषोए आ दुःखनी पंक्तिमा धनने पण गण्युं छे. केमके, (अर्थानां के०) धन मेलवतां | पण दुःख थाय छे तेमज उपार्जन करेला धनने साचववामां पण दुःख छे, माटें धन आव्ये पण दुःख छे, अने गये | पण दुःख छे. अर्थात् ते धनज दुःखदायक छे. माटे दुःखनुं साधन एवा धनने धिक्कार थाओ ! ! ॥ ४ ॥ एरीते जन्म, जरा, रोग, मरण अने धन, ते संबंधी दुःखनो विचार करवो, पण अंधपरंपराए न चालबुं. ए उपदेश. || आर्यावृत्तम् ॥ यावत् न इंद्रियाणां हानिः जावे ने इंदियेहाणी | यावत् न रोगविकारा जीव ने रोगविओरा । 2010_05 यावत् न जराराक्षसी परिस्फुरति जॉब नं जरख्वंसी परिप्फुरई ॥ यावत् न मृत्युः समाश्लिष्यंति जीव ने मंच्च समुल्लिअई ॥ ३४ ॥ अर्थ - हे जीव ! (जाव के०) ज्यां सुधी ( इंदियहाणी के० ) इंद्रियोनी हामी, एटले इंद्रियोनुं क्षीणपणुं (न के०) नथी थयुं, तथा (जाव के० ) ज्यां सुधी ( जरख्खसी के० ) जरारूप राक्षसी (न परिप्फुरई के० ) नथी, प्रकट थइ, तथा (जाव के०) ज्यां सुधी ( रोगविआरा के०) रोग विकार ( न के० ) नथी प्रकट थया तथा (जाव के० ) 无儿无號 भाषांतर सहित ॥ ६४ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ।। ६५ ।। Jain Education Interna ० ] मृत्यु जे ते (न समुल्लिअई के० ) नथी उदयमां आव्युं, त्यां सुधीर्मा शक्तिने न गोपवतां तहाराथी बने तेलं धर्मसाधन करी ले, नहिं तो पछीथी तने घणोज पश्चात्ताप थशे. ॥ ३४ ॥ [ भावार्थ:- हे प्राणिन् ! ज्यांसुधी तारी इंद्रियोनी शक्ति भरपूर के. अने ते शक्तिने जरारूप राक्षसीए भक्षण नथी करी, अने ज्यांसुधी रोग विकाररूप शत्रुए, कायारूप नगरमां घेरो नथी घाल्यो, अने ज्यांसुधी कालना सपाटा बरोबर नथी आव्यो, त्यांसधी तुं जेटलं आत्म साधन करयुं धारीश, तेटलं बनी शकशे. माटे जेम बने तेम प्रमाद मूकीने जलदीधी धर्म साधन करय || ३४ ॥ वली भर्तृहरीए पण कधुं छे के: - ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ॥ यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावज्जरा दूरतो । यावच्चेन्द्रियशक्तिप्रतिहता, यावत् क्षयो नायुषः ॥ आत्मश्रेयसि तावदेव विदुवा, कार्यः प्रयत्नो महान् । प्रोद्दीप्ते भवने हि कूपस्वनंन, प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ १ ॥ अर्थ:- (यावन के०) ज्यां सुधी आ शरीररूप घर साजुं छे, तथा ज्यांसूधी जरा नथी आवी, तथा ज्यां सूची इंद्रियोनी शक्ति नाश नथी पामी, तथा ज्यांमधी आउखु पूरु नथी धयुं त्वां स्रुघी पंडित पुरुषे पोनाना कल्याणने अर्धे महोटो प्रयत्न करवो. अर्थात् रात्रि दिवस परलोके सुख धाय, एवाज साधनमां प्रवर्ततुं. केम के, कोइ एवं विचारे. के, हालतो जुवानी अवस्था छे, माटे हालमां संसारनां सुख भोगवीने, पछी वृद्धावस्थामां धर्मसाधन करीशुं. पण हे सज्जनो ! जेम (प्रोही के ० ) घर अतिशे पळवा मांड्युं, त्यारे जे कूबो खोदवानो उद्यम करवो, ते केवो कहे 2010 05 भाषांतर सहित ॥ ६५ ॥ 3: . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैराग्यशतकम् भाषांतर सहित वाय ? एटले घर बलवा मांड्या पछी कूवो खोदी पाणी कहाडी घर होलवायज नहीं. तेम वृद्धावस्थामा बधुं धर्मसाधन करीशु, एम धार, ते सिद्ध थायज नहीं. केम के, वृद्धावस्थाना स्वाभाविक दुःखथी, धर्मसाधन बनी शकवू घणुंज कठण छ, माटे धर्मसाधन करवामां प्रमाद न करवो ।। वली ए वातने मूल ग्रंथकार पण जणावे छे. यथा गेहे प्रदीप्ते कूप खनयितुं न शक्नोति कोऽपि जहे गेहेंमि पलिते । कूवं खणिउं नैं सर्कए कोई ॥ तथा संपाप्ते मरणे धर्मः कथं क्रियते हे जीव तह संपत्ते मरणे। धम्मो केह कीरऐं जीवें ॥ ३५॥ अर्थ:-हे जीव ! (जह के.) जेम गेहंमि के०] घर ( पलित्ते के ) बलवा मांडये सते (कोइ के०) कोइपण. | एटले समर्थ होय ते पण (कूवं के० ) कूवाने (खणिओ के०) खोदवाने. अर्थात् कवो खोदी पाणी काढीने, बलता | घरने होलववाने (न सक्कए के० ) न समर्थ थाय, (तह के ) तेम ( जीव के०) हे जीव ! (मरणे के० ) मरण | (संपत्ते के०) प्राप्त थए सते एटले मरण नजीक आव्ये सते (धम्मो के०) धर्म जे ते (कह के०) किये प्रकारे (कीरए | के०) करी शकाय ? ॥ ३५॥ berg Jain Education Inter Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भावार्थ:-हे आत्मम् ! ज्यारे ( जुवानी अवस्थामां ) तहारे धर्म करवानो अवसर हतो, त्यारे तुं बीजे चाले |KA वैराग्य* चढी गयोः एटले विषयीजीवनी संगते पशनी पेठे फोगट अवस्था गमावी. अने हवे ज्यारे शरीरनी शक्ति क्षीण भाषांतर शतकम् सहित * थवाथी नकामा जेवो थयो, अने वली ज्यारे तने कुतरानी पेठे तहारां स्त्री पुत्रादिके तिरस्कार कर्यो, त्यारे तुं ॥ ६७ ॥ | sal पराणे धर्मसाधन करवाने तत्पर थयो; पण हे मृढ जीव ! तुं एटलं विचारतो नथी के, हवे महाराथी शुं बनवान ||॥ ६७ ॥ छ? जेम च्यारे तरफथी घर बलवा मांडयु.अने तेने होलघवाने माटे,जाणे कवो खोदी पाणी काढीने, ते बलता घरने । होलवु. इत्यादिक विचार जेम फोकट छे, तेम शरीरनु सामर्थ्य गया पछी, धर्मसाधन करवानो विचार ते व्यर्थ छे, | एम देखी तुं विचार के. धर्मसाधन तो नानपणमाथीज, अभ्यास करता करतां प्राये घणे कालेज सिद्ध थाय छे. | जेम कुवाना कांठा उपर पाणी काढवानी जग्याए पत्थरो अथवा लाकडं पडयुं होय, तेमां पण कोमल एवा दोरडावडे, घणे काले करीने घसाराथी उंडा कापा पडे के, पण तेवो कापो पाडवाने. कदापि लोढानी सांकळथी आखोर दिवस घसे, तोय पण तेवो कापो न पडे. तेम तुं बाल्यावस्थाधीज विषय कषाय ओछा करवाने माटे धर्मसाधनमां वर्तवानो अभ्यास कर ॥ ३५॥ रुपं अशाश्वत एतत् विद्युल्लतावचंचलं जगति जीवितं रुवमऽसासयमेय । विद्युलयाचंचलं जैए जीअं ॥ ___Jain Education intera l010_05 For Private & Personal use only IMGww.jainelibrary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग्य. संध्यानुरागसदृशं क्षणरमणीयं च तारुण्यं भाषांतर शतकम् संझा|रागसरिसं । खणरमणीअं च तारुनं ॥ ३६ ॥ अर्थः-हे आत्मन् ! ( एयं के०) आ (रुवं के०) शरीरनुं सुंदरपणुं जे ते ( असासयं के० ) अशाश्वतुं छे. केम ॥६८॥ ॥ ६८॥ के, रोगादिके करीने सनत्कुमार चक्रवर्तिना शरीरनी पेठे नाश पामे छे. वली (जए के०) जगन्ने विषे (जी के०) | जीवित जे ते (विद्युलयाचंचलं के०) वीजलीरूप लतानी पेठे चंचल छे. एटले जेम वोजली क्षणमात्र देखाइने पछी २५ नाश पामे छे. तेम जीवित पण थोडा कालमा नाश पामे छे. अने( च के०) बली (तारुन्नं क०) जवान | जे ते (संझाणुरागसरिसं के० ) संध्याकालना नाना प्रकारना रंग सरखं एटले संध्याकाले आकाशमां I PK पंचवर्णा अभ्रपटलाना रंग उत्पन्न थाय छे, तेना जेवू ( खणरमणीअं के० ) क्षणमात्र सुंदर देखाय ते, छे ।। ३६ ।। . भावार्थ-जेम संध्याकाले अनेक प्रकारना वादलांना रंग थायछे, ते क्षणनात्र देखाइने वायुना प्रयोगथी नाश al Ka पामे छे. वली जेम जलकमल ( पुंडरीकादि कमल ) अने स्थलकमल ( गुलायनां फूल आदि ) केवां सुंदर प्रफुल्लिम देखाय छे ? परंतु तेज फल, बेत्रण दिवसमां एवां करमाइ जाय छे के, तेनो काइपण शोभा रहेती नथी: तेम | जुवानी अवस्थामां पण शरीर, पुष्पनी पेठे खोलेलं देखाय छे, अर्थात् मोहनुं कारण थइ पडे छे. परंतु तेन तेज शरीर, वृद्धावस्थामां एवं नठारं थइ जाय छे के, तेना सामु जोवू पण बहुधा गमे नहीं ! माटे एवी तरुणावस्थामा शरीरनो शो मद करवो? | Jain Education Inte 2010-05 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य आ शरीरनी सुंदरतानो अहंकार न करवा आश्री सनत्कुमार चक्रवत्तिनी कथा दीकामा जणाव्याधी लखीए छीए । भाषांतर शतकम् कथा. सहित . भरतचक्रवत्तिना जेवी सद्विवालो सनत्कुमारनामा चक्रवर्ती राजा हतो. सनत्कुमारनो वर्ण अने रूप अनुपम ॥ ६९॥ हता. एक वेला सुधर्मसभामां ते रुपनी स्तुति थइ, ते वात कोई वे देवोने रुची नहि. पछी तेओ ते शंका टालवाने ॥ ६९ ॥ | विप्ररुपे सनत्कुमारना अंतःपुरमां गया. सनत्कुमारनो देह ते वेला खेल भर्यो हतो, तेने अंगे मर्दनादिक पदार्थानु REI मात्र विलेपन हतु, एक नहानु पंचियुं पहेर्यु हतुं, अने ते स्नानमंजन करवा माटे बेठो हतो. तेवामां विप्ररूपे आवेला | देवता, तेनुं मनोहर मुख, कंचनवर्णी काया अने चंद्रना जेवी कांति, जोइने बहु आनंद पाम्या. जरा माथु धुणाव्यु, Dr एटले चक्रवर्ति ए पूछयुं. तमे माथु केम धुणाव्यु ? देवोए कयु. अमे तमारं रूप अने वर्ण निरिक्षग करवा माटे बहु । If अभिलाषी हता, स्थले स्थले तमारा वर्णरुपनी स्तुति सांभली हती. आज ते वात अमने प्रमाणभूत थइ, एथी | hi अमे आनंद पाम्या, माटे माथु धुणाव्यु के, जेंवु लोकोमां कहेवाय छे, तेवुज रुप छे. एथी वली विशेष छे, पण ओछु । नथी. सनत्कुमार, शरीरना वणनी स्तुतिथी प्रभुत्व लावी घोल्यो. तमे आ वेला महारु रुप जोयुं तो भले, परंतु ID हुं ज्यारे राजसभामां वस्त्रालंकार धारण करी केवल सज्ज थइने, ज्यारे सिंहासन उपर बेसु छु, त्यारे महारु रुप अने । महारो वर्ण जोवायोग्य छे. अत्यारे तो हुँ खेलभरी कायाए बेठो छु, जो ते वेला तमे महारु रुप वर्ण जुओ लो ril अदभूत चमत्कार पामो, अने चकित थई जाओ. पछी देवोए का. त्यारे अमे राजसभामां आवीरों, एम कहीने | Jain Education Intern 10 05 For Private & Personal use only Doww.jainelibrary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैराग्यKI त्यांथी चाल्या गया, त्यारपछी सनतकुमारे उत्सम अने अमूल्य वस्त्रालंकारो धारण कर्या, अनेक उपचारधी भाषांतर जेम पोतानी काया विशेष आश्चर्य ने उपजावे तेम करीने ते राजसभामां आवी सिंहासन उपर बेठो. आज शतकम् सहित | समर्थ मंत्रियो, सुभटो, विद्वानो अने अन्य सभासदो योग्य आसने बेसी गया छे, राजेश्वर चामरछत्रयी अने खना ॥७ ॥ IN खमाथी विशेष शोभी रह्यो छे. ( वधाइ रह्यो छे.) त्या पेला देवताओ पाछा विप्ररूपे आव्या. अद्भुत रुप वर्णथी।" | आनंद पामवाने बदले जाणे खेद पाम्या छे ! एवा स्वरूपना तेओए माथं धुणाव्यं. चक्रवत्तिए पूछयं, अहो ब्राह्मणो! गइ वेला करतां आ वेला तमे जुदा रुपमा माथु धुणाव्यु, एनुं शुं कारण छे! ते मने कहो. अवधिज्ञानानुसारे विनय का के, हे महाराज ! ते रुपमा अने आ रुपमा भूमि अने आकाश जेटलो फेर पडी गयो छे. चक्रवतिए ते वात | स्पष्ट समजवा पूछयुं, त्यारे ब्राह्मणे का. अधिराज ! प्रथम तमारी कोमल काया अमृततुल्य हती, पण आ वेलाए झेररूप छे. तेथी ज्यारे अमृततुल्य अंग हतुं, त्यारे आनंद पाम्या हता. आ वेला झेरतुल्य छे, त्यारे खेद पाम्या | अमे कहीए छीए ते वातनी सिद्धता करवी होय तो, तमे हमणां तांबुल थुको, तत्काल तेना उपर मक्षिका बेसशे | अने ते परधाम प्राप्त थशे. सनत्कुमारे ए परीक्षा करी तो सत्य ठरी. पूर्व कमना पापनो जे भाग, तेमां आ कायाना | मद संबंध मेलवण थवाथी ए चक्रवर्तिनी काया फेरमय थइ गइ. विनाशी अने अशुचिमय कायानो आवो प्रपंच जोइने सनत्कुमारना अंतःकरणमां वैराग्य उत्पन्न थयो के, केवल आसंसार तजवा योग्य छे. आवीने आवी अशुची | खी. पत्र. मित्रादिना शरीरमा रहेली . ए सघलं मोहमात करवायोग्य नथी. एम योलीने, ते छ खंडनी प्रभता Jain Education in 2010_05 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर REI नो त्याग करीने चाली निकल्यो. ए जाणीने अहं ममत्व न करवो. बैराग्य गजकर्णवचंचलाः लक्षम्यः त्रिदशचापसदृशं चंचलं शतकम् सहित गयकन्नचंचलाओ । लथिओ तिअसचावसारित्थं ।। विषयमुखं जीवानां बुध्यस्व रे जीव मा मुद्यस्त्र विसयसुहं जीवाणं । बुझसु रे जीवं मा मुंज्झं ॥ ३७ ॥ अर्थ:-(जीवणं के०) जीवोनी (लथिओ के०) लक्ष्मीयो जे ते (गयकन्न चंचलाओ के०) हाथीना कान जेवी 24 चंचल छे. अने (विसयसुहं के०) विषयसुख जे ते (तिअसचावसारित्यं के०) इंद्रना धनुष (आकाशमा लीलां पीलांpal धनुषनी आकृतिवालां वादलां देखाय छे ते) सरखां चंचल छे. ए हेतु माटे (रे जीव के०) हे मृढ जीव ! (बुझसु के०) Ka बोध पाम. अने(मामुन्झ के०) मोह न पाम. केम के, फरीथी आवी मनुष्य देहादिक सामग्री मलवी घणीज दुर्लभ माटे धर्मने विषे बोध पाम. ॥३७॥ भावार्थ:-रे आत्मन् ! जे लक्ष्मीओने देखीने तुं अहंकार धारण करे छे के, आ लक्ष्मी जीवतां सुधीमां महारी पासेथी जवानीज नधी; परंतु ए लक्ष्मीयो हाथीना काननी पेठे चंचल छे. केम के, थोडा काल उपर से जेओने मोटा dil | धनाढ्य दीठा हता, तेओज कर्मना वश थकी थोडा कालमां दरिद्र थएला तहारा जोवामां आवे छे. माटे लक्ष्मीओk CADEMONOCADDELhor एमपीएससीमार Jain Education Inter 2 010_05 For Private & Personal use only pw.jainelibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | स्थिरपणुं नधी. बली जीवोनां शब्दादिक विषयसुख पण इंद्रधनुषनी पेठे एटले आकाशना लीला पीला रंगनी पेठे | KT पैराग्य भाषांतर शीघ्र नाश पामे तेवां छे. एटले वस्तुगते विषयनां सुख झांझवानां पाणी जेवां, तथा धूमाडाना वाचका जेवां अस.. सहित त्य छे. माटे हे जीव ! मनथी मानी लीधेलां विषयसुखने तथा लक्ष्मीने असत्य जाणी, श्रीजंबृकुमारनी पेठे धर्मसाधन करवाने तत्पर था !! ॥३७॥ ॥ ७२॥ कथा ५ राजगृही नगरीने विषे रुषभदत्त नामा शेठ तेनी धारिणी नामे भार्यानी कूखमां जंबुस्वामीनो जीव, जे पूर्व भवे | पांचमा ब्रह्मदेवलोकने विषे तिर्यक जंभक जातिमा महर्दिक देवता हतो. ते त्यांथी (देवलोकथी ) चवीने, पत्रपणे | आवीने उपन्या. त्यारपछी माताए स्वप्नमा जंबुक्ष दीठो, पछी ज्यारे ते कुमारनो जन्म थयो, त्यारे तेनो महोत्सव | करीने जंबृकुमार एबुं नाम दीधुं. अनुक्रमे युवान अवस्था पाम्यो. त्यारे श्री सुधर्मगणधरनी पासे धर्मदेशना Kal सांभलीने वैराग्य पाम्यो, त्यारे श्री सुधर्मस्वामीने का के, हे भगवन् ! हुं चारित्र लेइश, पण महारा माता पिताने | P पूछी आयु. एम कहीने पाछो घर तरफ आवे छे, एटलामा मार्गमा आवतां जंत्रथी उपडेलो पत्थर, पोतानी पासेथी | निकल्यो देखीने विचारवा लाग्यो के, हमणा जो मने आ तोपनो गोलो लागी जात, तो हुँ अव्रतिपणामां मरण पामत ! एवं जाणी श्री सुधर्मस्वामीनी पासे पाछो आवीने, ते कुमारे समकित मूल जे वार व्रत छे, ते बारे लीधां. एटले अंगिकार कर्या. तेमां चोथा व्रतमा एटली मर्यादा राखी के, कदापि माता पिताना कहेवाथी स्त्रीयो परणवी Jain Education inte inelibrary.org 201005 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् * पडे तो तेने परj, पण स्त्रीयोनी साथे भोग भोगवू नही. एवो त्याग करीने, फरी घेर आवी मात पिताने कयु के, al भाषांतर हे माता पिता !! मने आज्ञा आपो, हुं श्री सुधर्मस्वामी पासे दीक्षा लेउ. त्यारे माता पिताए कहुँ के, हे पुत्र ! | दीक्षा पालवी घणी करो एवीरीते घणो घणो समजाव्यो. तोपण जंबकमारे मान्यं नही. त्यारे माता पिताए 16] कडं के, हे पुत्र ! आठ कन्याओ साथे तहारं सगपण करेलं छे, माटे तेने परणीने पछी दीक्षा लेजे. ते सांभली ||6|॥ ७३ ॥ | जंबकुमार मौनपणुं धारण करी रह्या. त्यारपछी माता पिताए, आठ कन्याओना पिताओने का के, अमारो पुत्र | वैराग्यवान् थयो छे, माटे तमारे दीकरीओ परणावधानी मरजी होयतो भले परणावो. पण ते कन्याओनो त्याग र | करीने जो दीक्षा ले, तो अमारो दोष कहाडशो नही. ते सांभली सर्व शेठिया कहेवा लाग्या के, अमे नही परणावीए. पण शेठीआओनी दीकरीओए कहां के, अमे तो जंबूकुमारनेज परणीशु, पण बीजाने परणवानो त्याग छे. त्यारे शेठियाओए पोतानी पुत्रीओने का के, एतो दीक्षा लेशे. तोपण दीकरीयोए को के, ए दीक्षा ले तो भले पण अमे तो एनेज परणीशं. पछी ते एक रात्रीमा आठे कन्या परण्या, अने रात्रि शय्या उपर बेसीने सर्व स्त्रीयोने कमु के, हुं तो प्रभाते दीक्षा लेइश. केमके. आ संसार सर्व अनित्य छे, कोइ कोइनी साथे आवनार नथी. त्यारे स्त्रीओए का के, हे स्वामिन् ! तमे हमणां दीक्षा लेशो नही, हमणां तो जे संसार सुख मल्यु छे, ते सारी रीते भोगवीने पछी दीक्षा लेजो, नहि तो कर्षणीना न्याये पश्चात्ताप करशो. जेन कोइ मारवाड देशनो Masall कर्षणी, पोताने घेर घउं वावीने पछी मेवाडमां पोताने सासरे गयो, त्यां तेनी सामुए सारा Jain Education Inter 1 010_05 For Private & Personal use only [A nyw.jainelibrary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥ ७४ ॥ Jain Education Inter रोटा करने थालमा सूक्या. उपरथी शेलडी मूकी. ते शेलडो कर्षणीने घणी सारी स्वादिष्ट लागी पछी ज्यारे पोताना साला पूछ के आ शेलडी तमने क्यांथी मली ? एटले तमारे घेर क्यांथी आवी ? त्यारे सालाए कहूं के, ए अमारा घरमा नीपजे छे. बनेवीए पुछयुं. ते केवी रीते निपजे हे ? त्यारे साडाए शेलडी वावचानो विधि देखायो पछी कर्षणी जाण्यं के, महारे घेर पण हुं बाबीश. एम निर्धार करो घेर आवीने प्रथम जें घउनुं खेत्र वायुं तु, तेने उखेडी नाखवा लाग्यो. त्यारे लोकोए कं के, आ तुं शुं करे छे ? तेणे कां के, हुं एमां शेलडी बावीश. त्यारे लोको कहेवा लाग्या के, आ देशमां पाणी नथी, माटे शेलडी थशे नही. तेम छतां जो तने शेलडीज वाववानी इच्छा होय तो, एकवार जे आ घउनी खेती करेली छे ते कपावी ले, पछी शेलडी बनावजे. एवं लोकोनुं कहेतुं तेणे मान्युं नही, अने शेलडी चावी, ते थोडी उगी, एकलामां कुत्रामां पाणी खूटी पडयुं, तेथी जे उगेली शेलडी हती ते पण सुकाइ गड़. त्यारे पश्चाताप करवा लाग्यो. तेम हे स्वामिन ! तमे पण छतु सुख मूकीने बीजा नवा सुखनी चाहना करो छो तो पछी पस्ताशो !! एवी स्त्रीयोनी वाणी सांभली जंबूकुमारे कथं के, पूर्वोक्त दृष्टांते पचात्ताप नही करूं. परंतु जो नही समजशो तो तमेज पस्तावो करशो. हु तो ललितांग कुमारनी पेठे तमारा फंदमां नही पहुं. तेनी कथा कहुं हुं ते सांभलो. एक नगरमा एक शेठनो पुत्र ललितांग कुमार एवे नामे महा रूपयंत पुत्र हतो, तेने एक दिवसे ते नगरनां राजानी रूपवती नामा राणी छे, तेणीये दीठो. त्यारे एकांते बोलावीने तेनी साथै संसार संबंधी भोगविलास करवा लागी. एटलामां राजा पण त्यां आव्यो. त्यारे भयभ्रांत धइने, राणीए ते ललितांग 2010_05 भाषांतर सहित || 98 || Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य भाषांतर सहित ॥ ७ ॥ Rai कुमारने, खालमा उतार्यो. अने विचार्यु के, पछी कहाडीश. हवे राणीतो राजानी साथे रमवा लागी गइ, अने । J ललितांग खालमा भूखे मरतो कोइ अन्य आवीने एठवाडो नांखे ते खाय, अने एठन पाणी पडे ते पीए. एवी शतकम् रोते च्यार महिना पर्यंत खालमां पडी रहो एम पण कहे छे. "तत्व केवली गम्य" त्यारपछी ललितांगना मावापे । ॥७५ ॥ hd घणोये जोयो, पण जड्यो नही, तेथी शोक करवां बेठां. एटलामा वर्षाद आव्यो तेथी खालमां पाणी भरा'. ते पाणी कहाडवा सारु खाल उघाडी, ते खालना पाणीनी साथे ललितांग पण तणातो तणातो नगरनी महोटी खालमा जइ पडयो. तेने लोकोए देखीने तेना माता पिताने जइ का. माता पिता जइ खालमांथी कहाडी घेर लइ गया, त्यां मुळ खाइने पडी रह्यो शरीर पीलं पडी गयुं, हाडकां नीकली आव्यां, माता पिताए घणा प्रकारमा तैलादिक मसली जागतो कर्यो, त्यारे कांडक सावचेत थयो. पछी औषधोपचार करता करतां घणा दिवसे तेनो शरीर सारं थयु, त्यारे वली कपडा प्रमुख पहेरीने बजारमा फरवा नीकल्यो. तेने राणीये देखीने बोलाव्यो. ते योल्यो के, हवे हुँ | तमारा फंदमां पहुं नही. ॥ इति ॥ ललितांग कथा ॥ एवी रीते आठे स्त्री योए जुदी जुदी आठ कथाओ संसारना सुखनो त्याग न करवो, ते आश्रयधी जंबुकुमारने कही, अने जंबुकुमारे पण फरी संसारनी असारता वतावनारी जुदी जुदी आठ कथाओ आटे स्त्रीयोने कही. ते कथाओ इहां ग्रंथ वधवाना भयथी लखी नथी. जो जाणवानी aal मरजी होय तो श्री जंबुचरित्रमा जोड़ लेज्यो. त्यारे स्त्रीयो प्रतिबोध पामी. एवामां एक प्रभवो नामे चोर पांचसे चोरने साथे लेईने, जंबूकमारना घरमा आन्यो. तेणे सर्वने विद्याना बलथी अवस्वापिनी निद्रा मूकी, तेथी सर्वने J JainEducation Intern 0 10_05 For Private & Personal use only 10 w jainelibrary.org ! Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥ ७६ ॥ Jain Education Inters निद्रा आवी गह, परंतु जंबूकुमारने निद्रा न आवी पछी ताळां उघाडवानी विद्याथी भंडार उघाडीने, नवांक्रोड सोना महोरोनी गांठडियो बांधी ने लेइने चालवा मांडया, एटलामां जंबूकुमारने, यद्यपि द्रव्य उपर मूर्छा तो बिलकूल नथी, तोपण एवो विचार आव्यो के, महारे तो प्रभाते दीक्षा लेवी छे, अने आ चोर लोको जो द्रव्य लेइ जशे तो लोक कहेशे के, जुओ भाइओ ! एनुं धन सर्व चोर लेइ गया, तेथी ए माथु मुंडावे छे. एवी रीते धर्मनी निंदा थशे, ते वात सारी नही. एवं चितवीने नवकार गणवा लाग्या, तेथी पांचसें चोरोना पग स्थंभाइ गया. हमारे प्रभ'वाने विचार यो के, आते शुं थयुं ! त्यारे जोवा लाग्यो तो जंबूकुमारने जागता दीठा. त्यारे प्रभवे जाण्युं के, एनी पासे को महा जोरावर विद्या छे, एवं जाणीने जंबूकुमारने कहां के, महारी विद्या तमे ल्यो, अने तमारी विद्या | मने आपो. त्यारे जंबूकुमारे कछु के, महारी पासे कोईपण विद्या नथी. वली बीजी विद्या महारे जोड़ती पण नथी. महारे तो मात्र नवकार मंत्रनो आधार छे. एवो धर्मोपदेश दोघो. त्यारे प्रभवे कनुं के, आ नवी परणेली स्त्रीयोनो त्याग करीने तुं दीक्षा लेजे. तेने जंबूकुमारे कछु के, हे प्रभवा ! संसारमां सुख छेज क्यां? के जेने हुं भोगवं. संसारनं सुख तो मधुविदुआ समान छे, तेनी लालचे जीव संसारमां रझळे छे. जेम कोई एक पुरुष भूलथी उजड अटवीमां जइ एडयो, तेनी पछवाडे एक हाथी दोडयो, त्यारे ते नाशतो भागतो, एक वडनी शाखामां जड़ लटकी रह्यो. हवे शाखानी नीचे एक कूवो छे, तेमां प्यार सर्प पोतानुं मोढुं फाडीने बेठा छे, तथा एक अजगर पण मोढुं फाडीने बेठो छे, तथा ते वडना थडने हाथी घुणावी रह्यो छे, तथा जे शाखामां ते पुरुष लटके छे, ते शाखाने एक कालो 2010 05 भाषांतर सहित ॥ ७६ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् भाषातर सहित ॥ ७७ ।। 1. अने बीजो (९)घोलो एवा ये उंदरो कापी रह्या छे. वली तेनी उपर एक मधमाखीनो मधपुडो छे, तेनी (१०)मक्षिकाओ उडी उडीने | ते पुरुषना शरीरने चटका मारी रहेली छे. एटलामां ते मधपुडामांथी मधनुं एक (११) टीपु टपक्युं, ते पेला पुरुषनी जीभने जइ लाग्युं, त्यारे ते पुरुषे उचुं जोवा मांडयुं तो तेणे दीर्छ के, मधपुडामांथी ए मधुबिंदु पडे छे; एवं जाणीने ते टीपानी नीचे महोई उघाडं राखीने लटक्यो, अने टीपाना स्वादमा मग्न थयो थको पोताना उपर पूर्वोक्त अनेक जातनां दुःख पड्यां छे ते सर्वे भूली al गयो, एटलामां एक (१२)विद्याधर आवीने कहेवा लाग्यो के, हे पुरुष ! तहारुं दुःख देखीने मने दया आवे छे; माटे आव! महारा (१३) विमानमां बेशी जा. हुं तने दुःखमाथी काढवा वांछु छ. त्यारे ते पुरुष बोल्यो, हे विद्याधर ! आ एक टीपू मधनुं महारा मुखमा आववा द्यो, पछी हु आपनी साथे विमानमां बेशी चालु, एम एक टीपु आव्युं, वली पण का के, आ बोजु टीपु आवे तो चालु. ए रीते एकेक टीपाना स्वादमा लोभाणो थको ते विकट स्थानने छोडे नही, त्यारे विद्याधरे जाण्यु के, एतो एवोज मूर्ख छे, लोभी | छे, ए काइ दुःखमांथी निकलशे नहीं. एबुं जाणी तेने त्यांन मूकी विद्याधर चाल्यो गयो. तेम हे प्रभवा ! । अबसर क्या तो फरी संसारमा पड्या, ने मनुष्य अवतार मलयो महा दुर्लभ छे. एवां वचन सांभळीने प्रभवो चोर पण प्रतिबोध पायो, अने बोल्यो के, हे जंबू ! तुं पण तहारी साथे दिक्षा लेइश, पछी जंबूकुमारे पोताना माता पिताने प्रतिबोध दीधो, तथा प्रभवे पण पांचसे | चोरोने प्रतिबोध दीधो, एम सर्व मली प्रभाते नवाणुक्रोड सोनैया धर्मक्षेत्रोमां खरची नांखीने उत्तम उत्सवसहित पांचसेंने सत्तावीश | १ जीव. २ संसाररूप अटवी. ३ कालरूप हाथी. ४ आउखारूप शाखो. ५ भवरूप कवो. ३ च्यार कषायरूप सर्प. ७ करकरूप on अजगर. ८ हाथी. ९ दिवस एरूप बे उदरो. १० सर्व कुटुंबरूप मक्षिकाओ. ११ विषयसुखरूप मध टीपु. Jain Education Interin 1010 05 For Private & Personal use only . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ।।७८॥ जनोनी साथे, श्रीमंयूकुमारे श्रीसुधर्मस्वामी पासे दिक्षा लीधी, ए रीते लक्ष्मी अने विषयनां सुख त्याग करवा माटे, जंयूकुमारनु । वैराग्यशतकम् SED दृष्टांत कत्यु, आ मधुबिंदुभाना दृष्टांतनो सिद्धांत एटले उपनय धणो प्रसिद्ध छे, तोपण किंचित् टीका करीने देखाड्यो छे.. यथा संध्याया शकुनानो संगमः यथा पथि च पथिकानां ॥ ७८॥ जैह संझाए सउणा । ण संगमो जंह पंहे अ पहिआणं ॥ स्वजनानां संयोगः तथैव क्षणभंगुरः जीव सययाण संजोगो" । तहेवं खणभंगुरो जीवें ___ अर्थः-हे आत्मन् ! [जह के०] जेम [संझए के०] संध्याकालने विषे (सउणाण के०) पक्षियोनो ( संगमो के. ) संगम थाय छे, I Pा के०] वली [जह के०] जेम [पहे के०] मार्गने विषे [पहिआण के०] मार्गे जनार लोकोनो समागम थायछे, एटले मार्गमा जनार लोकोनो समागम तथा पक्षियोनो समागम जेम थोडा कालनो छे, [तहेब के०] तेमज [जीव के०] हे जीव ! (सयणाणं के०) ael स्वजननो (संजोगो के०) संयोग जे ते (खणभंगुरो के०) क्षणभंगुर छे. एटले क्षणमां नाश पामवाना स्वभाववालो छे. ॥३९॥ ...भावार्थः-जेम संध्यासमये अनेक प्रकारनां पक्षियो च्यारे दिशा तरफथी आवीने एकठयं मले छे, अने प्रातःकाले तेज पक्षियों पोत पोतानाकर्मने अनुसरीने चारे दिशा तरफ उडी जाय छे. तेम आ संसारने विषे अनेक प्रकारना जीवो चारे गतिमी आवीने, आ मनुष्यभवमा एकठा थया छे. अने तेज जीवा, पातानु आयुष्य पूर्ण करीने, पाछा कर्मानुसारे चारे गतिमा जता रहे RSSOORDINDOR Jain Education Int 2 010_05 For Private & Personal use only ANTyww.jainelibrary.org Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य छे. तथा जेम मार्गने विषे, कोइ किये गामथी, कोइ किये गामयी आवीने भेगा थाय छे, पछी त्यां थोडीवार विश्राम करीने, एक शतकम् | टले भातु खाइने पाछा सर्वे पोतपोताना योग्य स्थानक प्रत्ये जता रहे छे. पण तेओ एक ठेकाणे वेशी रहेता नथी; तेम आ भाषातर सहित IN संसारी जीव पण, कोइ कइ गतिमांधी, कोइ कयि गतिमांथी, आवीने एकठा थाय छे. त्यां पोतपोताना कर्मानुसारे सुख दुःख | ॥ ७९ ॥ भोगवीने, पछी पाछा पोतपोताने योग्य गतिमा जता रहे छे. पण कोइ कोइना झाल्या रहेता नधी. वली जेम चारे दिशाएथी | ॥ ७९ ।। 5 आवेला मनुष्योनां नाम जूदां जदा छे, तेमां चारे गतिमाथी आवेला अने एक घरमा रहेला एवा जीवोनां नाम पण जूदां जूदां - कल्प्यां छे. तेमां कोइ माता कहेवाय छे, कोइ पिता, कोइ भार्या, कोइ भाइ, कोइ पुत्र, कोइ पुत्री, इत्यादि कल्पनाए करीने नाम | PA ठराव्यां छे. तेमां तुं महोटो मोह धारण करे छे, अने तेने सुखे सुखी, अने तेने दुःखे दुःखी थाय छे. परंतु हे मूढ जीव ! JI तुं एटलु विचारतो नथीं के, आ जूठा संबंधने साचो संबंध मानीने शुं करवा हेरान थउ छ ? माटे हे जीव ! एवा जूठा संबंधने | जूठो मानीने, तेना उपरथी मोह उतारीने, आत्म साधन करवाने विषे उद्यमवंत था! ॥३९॥ ॥ उपजातिवृत्तम् ।। निशाबिरामे जागरितः सन् परिभावयामि गृहे मदीप्ते किं अहं स्वपिमि निसाविरामे परिभावयामि । गेहँ पलिते किमऽहं सुयामि दात आत्मानं उपेक्षे यत् धर्मरहिताः दिवसान् ममयामि तत् डज्झैतम ऽपाणमु वर्खयामि । जै धम्मरहिओ दिअहा गामामि ॥३९॥ ww.tainelibrary.org. Jain Education Inte l 2010 05 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ:-हे जीव ! तने एवो विचार केम नथी आवतो के, हुं, (निसाविरामे के०) रात्रि विराम पामे सते एटले पाछली चार वैराग्यघळो रात्री रहे सते जागीने (परिभावयामि के०) आवो विचार करुं के (जं के०) जे हुं (धम्मरहिओ के०) धर्म रहित थयो सतो भाषांतर शतकम् सहित I (दिअहा के०) दिवसोने (गमामि के०) फोकट केम गमावू छु !!! अने वली (गेहे के०) शरीररूप घर (पलित्ते के०) बलवामांडे | ॥८ ॥ | सते (अहं के०) हु (किं के०) श्या माटे (सुयामी के०) मृइ रहुं छु ! अने (भऽजगत के०) दाझता एटले शरीररूप घरनी साथे | | बली मरता एवा (अप्पाणं के०) आत्मानी (उबखयामि के०) उपेक्षा केम करुं छु !!! अर्थात् देहनी साथे रहेला बलता आत्मानी Kा रक्षा केम नथी करतो !! इत्यादि आत्मभावना तुं केम भावतो नथी ? ॥ ३९॥ भावार्य.-शास्त्रने विषे सर्व हत्याओ करतां आत्महत्या महोटी गणी छे. एटले जाणी जोइने आत्मानु बगाडवू, अर्थात् छती/09 सामग्रीए पण आत्मसाधन न करवू, अने रात्रि दिवस देहादिक परभावमांज रच्यु पच्यु रहेg; ते शु आत्मानी घात करी न कहे| वाय ? अर्थात् आत्महत्याज कहेवाय !! माटे वयो रात्रि दिवसतो संसारना वेगमां चढी जतां कांइ पण विचार न आब्यो, पण | पाछली च्यार घळी रात्रे उठीने, जरा निर्मल चित्तवालो थइने, बीना बधा विचार रहेवा देइने, हे आत्मन् ! तुं तहारा आत्मानो II विचार कर, इहां पाछली च्यार घडी रात्रे उठीने विचार करवानें ग्रंथकार लखे छे, तेनो अभिप्राय ए छे के, जेम स्त्रीयो घंटीये Is दलमा मांडे छे, पछी दलतां दलता एटले फेरवतां फेरवतां ते घंटीने एवा वेगमां लावे छे के, ते वखते जो घंटी फेरववी मूकी दे, तोपण वेगना जोरथी ते फेरच्या बिना पांच सात आंटा फरी जाय छे. तेम आ जीव पण वधो दिवस संसारना कामनो एवो K वेग लगाडे छे के, ते रात्रे लांबो थइने मूए छे, तो पण ते कामनां स्वप्न आवे जाय छे. ते स्वप्न, दिवसे करेला कामना इच -- ww.jainelibrary.org Jain Education Inte 010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥८१॥ |रका छे. ते हचरका घणुं करीने पाछली रात्रे शांत पडे छे; माटे ते अवसर शुभ ध्यान करवानो शास्त्रकारे जणाच्यो छे, माटे तुं एवो विचार कर के, आ यधा मनुष्यभवना अमूल्य दिवसो धर्म विना फोकट माछे ? अने आ महारुं शरीर पण जरारूप अग्निनी झारवडे बलवा मांडयुं, तेनी साथ रहेलो जे आत्मा, ते पण बलवा मांड्यो छे, तो ते आत्माने तुं केम बलवा दे छे? परंतु आत्माज्ञानवडे देहधकी आत्माने जुदो समजीने तुं देहना भाव जे जड, दुःख अने मिथ्याभाव तेने देहने विषेज समज, अने आत्माना भाव सत्, चित् अने आनंदरूप एटले सच्चिदानंदरुप तेने तुं आत्मभावे समज. एटले जे देह छे, ते सडी जाय, पडी जाय, यावत् विध्वंस थइ जाय तेवा छे. अने जे आत्मा छे ते तेथी उलटो छे. एटले सडी जाय तेवो, पडी जाय तेवो, यावत् विध्वंस थइ जाय तेवो नथी. एवी रीते आत्मानुं अने देहनुं स्वरूप जूनुं समजीने तें जे देहने विषे मिथ्या अहंपणुं मान्युं छे, ते तथा देह संबंधी पदार्थोने विषे मिथ्या ममत्व मानेलो छे, तेने खोटो जाणीने ते बेनो त्याग करवाने विषे प्रयत्नवंत था. ए उपदेश. Jain Education Inter010_05 ॥ अनुष्कृष्टुत्तम् ॥ व्रजति रजनी न सा याया जाजा वच्चै प्रतिनिवर्त्तते रयणी ने सॉ पभिनियंतइ ॥ भाषांतर सहित ॥८१॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥८२॥ अध कुर्बतो जंतोः अफलाः अम्मं कुणगणस्स । अहली अर्थ :- हे आत्मन् ! (जाजा के०) जे जे (रयणी के०) रात्री (बजाइ के०) जाय छे, (सा के०) ते ते (पडिनिपत्त के०) पाछी आवती ( न के० ) नथी. आ जग्याए दिवस ग्रहण नथी कर्यो, तोपण उपलक्षणथी ग्रहण करवो. एटले गया दिवस पण पाछा आवता नथी. केमके [ अहम्मं के० ] अधर्मने (कुणमाणस्स के ० ) करतो एवो जे तुं, ते तहारी (राईओ के०) रात्रीयो जे ते (अहला के०) अफल, एटले निष्फल ( जंति के०) जाय छे. अर्थात् अध करीने तहारा मनुष्यभवना रात्री दिवस व्यर्थ जाय छे. ॥ ४० ॥ Jain Education Inter 2010_05 भावार्थ:-आ जीवनो जेटलो वखत धर्मसाधन करवामां जाय छे, तेथलोज बखत ज्ञानी पुरुषोए सफल गण्या छे, अने बाकीनो रात्री दिवसनो जे काल एटले धर्मसाधन विनानो जे काल, ते पशुती पेठे निष्फल जाय छे, केमके, पशुने विषे आहार, निद्रा, भय अने मैथुन विगेरे जेवी रीते छे. तेवीजरीते तहारे दिषे पण छे. माटे तहारो जन्मारो पण धर्मसाधन विनानो पशु जेवो समजवो. याति रात्रयः जंति" राईओ ॥ ४० ॥ यस्य अस्ति मृत्युना सख्यं यस्य च अस्ति जेस्स ऽतिथे मच्चुणा संख्खं । जस्सं वे ऽथि पलायन मृत्योः सकाशात् पलायणं ॥ भाषांतर सहित ॥८२॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् भाषांतर सहित ८॥ فرقة यो जानाति न मरिष्यामि केवलिवाक्यात् सः निश्चये कांक्षति श्वधर्मः स्यादितिनान्यैःकार्य जो जाणे नै मरिस्सामि। "सो हूँ के खे सुऐं सियाँ ॥४१॥ ॥८३॥ अर्थः-हे जीव! (जस्स के०) जे पुरुषने (मबुणा के०) मृत्यु संगाथे (सरुवं के०) मित्रता (अछि के०)छे. (व के.) वली (जस्स के०) जे पुरुषने (पलायणं के०) मृत्यूथी नासी जळु ( अस्थि के०) छे. वली (जो के०) जे पुरुष (जाणे At के०) रम जाणे छे के, (मरिस्सामि के०) हुं मरीश (न के) नही. (सो के०) ते पुरुष (हं के०) श्वः आवती काले धर्म साधन करीश, ए प्रकारे (सिया के०) स्यात् एटले कदाचित् (कंखे के०) आकांक्षा करे. एटले इच्छा करे, ते प्रमाणे | Id छे. परंतु एवी रीते कोई पुरुषने कोई दिवस पण थयुं नथी के, महारे मृत्युनी साथे मित्रता छे; माटे महारे तो कदि | | मरवू नही पडे ! तथा कोई पुरुषने एम थतुं नथी के, हुं बलवान छ माटे मृत्युथी नाशीने बचीश. तथा कोईना मनमा | एम नथी थतुं के, हुं क्यारे पण नही मरूं, तो पण ते प्राणी धर्म संबंधी कार्यमां शीघ्रता करवाने ठेकाणे आवती काले | HE थशेज तो ! एवीरीते प्रमाद, केम करतो हशे ! ! ॥ ४१ ।। भावार्थः- इहां अभूत उपमा अलंकारे करीने उपदेश करे छे, एटले आवो वस्तु कोइ दिवस निपजी नथी, ते कदाचित् जो निपजे, तो ते आश्चर्यकारक कहेवाय आ जीवना मनमां थाय छे के, आजतो धर्मसाधन नहो करीए, पण आवती काले करीशु. पण केम जाण्यं के, तुं आवती काल सुधी जीवीश? माटे आवती काले जीव السنة في فلان بالفول Jain Education Interne t o_05 For Private Personal use only M ainelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् वानुं तो कोण मनमां जाणे के, जेने मृत्युनी साथे खरी भाईबंधी होय, एटले ते मृत्युने पोतानी आज्ञामा राखी | वैराग्यशकतो होय, तो ते पुरुष कदापि एम धारे के, आजनुं काल्य करीशुं, तो ते युक्त छे. तथा कोई बलवान् पुरुष, भाषांतर सहित मृत्युना झपाटामां न आवतां, एवी कोई पर्वतनी गुफामां पेशी जाय के, ते मृत्युना हाथमाज न आवे ! जो एवो || ॥८४॥ 56 शक्तिवान् होय, तो ते पुरुष कदापि आज करवानं काल्य करीशं.एम विचारे तोते यक्त. तथा कोडपुरुषकोड केवल ज्ञानी I ॥८४॥ महाराजनी पासेथी जाण्यु होय के, हुतो कोहकाले मरवानाज नथी, तो ते पुरुष कदाचित एम धारे के, हुं आज कर- 19 | वार्नु काल्य करीश, तो ते पण युक्त छे. परंतु उपर लखेली सर्व वातो कोइकाले थई नथी, वर्तमान कालमांथती, नथी | अने आगामी कालमा थशे पण नहीं. तोयपण एवी मिथ्या कल्पना मनमा करीने हे, जडबुद्धि जीव ! तुं बीजा | संसारना कामनो प्रमाद करवो छोडी दइने, फक्त धर्म साधन करवामां केम प्रमाद करे छे ? ॥ ४१ ॥ ॥ आर्यावृत्तम् ॥ दंभेन सूत्रोद्वेष्टनं यथा कुर्वतस्तथा व्रजति निश्चये रात्रयः च दिवमाः च दमकैलिअं करिती । चंति है राईउ य दिवसा ये ॥ ___ आयुः लघुकुर्वतः गताअपि न पनः निवर्त्तते आउस संविलंता । गयांवि ने पुणो नियतंति ॥ ४२ ॥ _JainEducation interC 010_05 For Private Personal use only Jaww.jainelibrary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥८५॥ Jain Education Inten अर्थः- हे आत्मन्! (दंडकलिअंके०) दंड जेम सूत्रनी कलाना (करिता के०) करे छे. एटले कोलिआदिक नीच लोको फालका उपर चढेला सृतरने जेम लांबा दंडवडे करीने उकेले छे, अर्थात् लुगडं बनवाने माटे लांबो ताणो करवाने अंत्यजो फालका उपर चढेला सूतरने लांबा दंडना लसरकावडे करीने झपाटा बंध उकेले छे, तेम (आउसके) आयुष्य (सविता के०) उकेलता एवा (राइओ के) रात्रिओ, (य के०) अने (दिवसा के०) दिवसो जे ते (वञ्चन्ति) जाय छे. (य के० ) अने वली ( गयावि०) गया एवा जे दिवस तथा रात्रिओ, ते (हु के०) निश्चे (पुणो के ० ) फरीथी ( नियति के० ) पाछां आवतां ( न के० ) नथी । ४२ ।। 'भावार्थ:- एक कालरूप चांडाल छे, ते दिवस रात्रिनुं जघुं आवधुं ते रूप, दंडना लइकरवडे करीने मनुष्यना आयुष्यरूपी सुतरना पिंडने शीघ्रपणे उकेले छे. एटले आउखाने जलदी घटाडे छे. माटे हे आत्मन! ते आउखामांथी गयेला रात्रि अने दिवस कदि पण पाछा आवता नथी. जेम आ ग्रंथ छपावीने प्रसिद्ध यानी तिथि विक्रम संवत १९४७ ना कार्तिक शुदि ५ ( ज्ञानपंचम) ने सोमवार हतो, हवे ते वर्षनी तेज तिथि, वार, आ आखा जन्मारामां फरीथी आववाना नथी. तेम हे भव्य जीवो! आ गएला दिवस रात्रि पण तेनी पेठे पाछा आववाना नथी. एटले गया तो गयाज ! एवं जाणीने आ धर्मकार्य तो काले करीशुं. एम नही करतां, ते धर्मध्यान प्रमादरहित प आजज कर. ए उपदेश ॥ ४२ ॥ 2010 05 भाषांत सहित ॥८५॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥उपजातिवृत्तम्॥ वैराग्ययथा इहलोके सिंहः इव मृगं गृहीत्वा मृत्युः नरं नयति निश्चयेन अंतकाले भाषांतर शतकम् सहित जैहे हे सीहो वे मियं गहाय । मच्चू नेरे णेई हुँ अन्तका ॥८६॥ न तस्य माता च पिता च भ्राता काले तस्मिन जीवितभागधारकाः भवन्ति ॥८६॥ नै तस्सै माया वै पिया वे भाया । कालेमि तमि ऽसहरा भवन्ति ।। ४३ ॥ ___ अर्थः-(इह) आ लोकने विषे (जह के०) जेम (सीहो के०) सिंह (मयं) मृग जे तेने (व० के) जेन [व शब्द PM नो अर्थ इव जाणवो ] (गहाय के०) ग्रहण करीने एटले पकडीने नाश करे छे तेम (ह) निश्चयथी (मच्चूके०) मरण | 5 जे ते (नरं के०) मनुष्यने (अंतकाले के०) आयुष्य पूरुं थये (णेइ) लेई जाय छे. (तस्स के०) ते माणसने (तमि के०) | त (कालम्मि के०) समयने विषे एटले मरणनी वखते (माया के०) माता जे ते (व के०) वली (पिया के०) पिता जे ते (व के०) वली (भाया के०) भाई जे ते (असंहरा के०) अंशमात्र पण धारण करवाने, एटले लगारमात्र पण | JE रक्षण करवाने ( न भवन्ति ) समर्थ नथी थतां ॥ ४३ ।। भावार्थ:-हे जीव गमे तेवो धिरजवालो मनुष्य होय, तो पण अंतकाले मरणनी घणी वेदनाथो ते माणस hd Ka मृग जेवो निर्बल थई जाय छे, त्यारे तेने सिंहरूप काल पकडीने लइ जाय छे. ते वखते मनुष्यनां माता पिता, भाई | इत्यादि कोइपण लगारमात्र राखवा समर्थ धता नथी. एटले गमे तेटला उपाय करे, तो पण तेने राखी शकतानथी । Jain Education Inte 2010_05 For Private & Personal use only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य ॥८ ॥ ॥ आर्याह तम् ।। जीवितं जलाबदुसमं संपत्तयः तरंगलोलाः भाषांतर शतकम् सहित जी जलबिंदुसम । संपत्तीओ तरंगलोलाओ ॥८॥ स्वमसम च प्रेमं यत् जानीपं तत्तथा कुरुष्य सुमिणयसमं च पिम्मं । जं जाणंसु त करिज्जैतु ॥ ४४ ॥ . अर्थ:-हे आत्मन् ! (जीअं के०) जीवq (जलबिंदुसमं के०) जलबिंदु जेवूछे, एटले डाभना अग्रभाग उपर रहेला P जलना बिंदु समान चंचल छे. तथा (संपत्ति के ) संपत्तिओ जे ते (तरंगलोलाओ के०) ममुद्रना तरंग जेवी | चंचल छे. एटले एक ठेकाणेथी बीजे ठेकाणे तुरत जती रहे तेवी छे. (च) बली (पिम्मं के०) स्त्रीयादिकनो प्रेम जे || ofl ते (सुमिणयसमं के०) स्वप्न समान छे. एटले क्षणमा नाश पामे तेवो छे. ते कारण माटे (ज के०) जो (जाणसु के) Toil Kए प्रकारे खरी रीते, जो अंतःकरणथी अस्थिरपणुं जाणतो होय, तो (करिज्जासु के०) जाण्या प्रमाणे कर. एटले | | अप्रमादपणे धर्मसाधन कर. ॥ ४४ ॥ भावार्थ:-लोकोमा चालतुं घणु पोपटियुं, ज्ञान देखीने ग्रंथकार उपदेश करे छे. हवे पोपटियुं ज्ञान एटले शु? | जेम कोइ माणसे एक पोपटने भणाव्यु के-विल्लि (बिलाडी] आवे तो तरत उडी जवू, एवीरीते शीखव्युं. त्यार | पछी ते पोपट पण ते वाक्यनो वारंवार अभ्यास करीने, तेरीते बोलवा लाग्यो. परंतु ते विचाराने एम खबर नथी Jain Education in 2010_05 For Private Personal use only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् सहित - के, बिल्लि ते शु? अने उडी जर्बु ते गुं? पछी एक दिवस ते पोपट जेवो पांजरामाथी निकल्यो, तेवोज बिलाडीए वैराग्य* झाल्यो. तोयपण ते पोपट पूर्वे शिखवेला वाक्यने बोले जतो हतो, ते बखतेज ते पोपटनी डाक मरडी नांखी माटे || भाषांतर Avi हे भव्य जीवो ! कहो ! ते पोपटनुं ज्ञान के कहे वाय? तेम आ सर्वे लोको मुखे एम योले छे के, जलना बिंदु जेj0 ||८८॥ चंचल छे, एवु बोले छे तोय पण जीववाने माटे अनेक प्रकारना न करवाना योग्य एवा घगा उपाय करे छे, अने वली ॥८८| | एम बोले छे के, आ संपत्तिओ पण पाणीना तरंगनी पेठे अस्थिर छे, परंतु तेज संपत्तियोंने राखवाने माटे, सन्मा- 1 | |गने विषे वापरवामांज घjज कृपणपणु करे छे, अने वली एम बोले छे के, स्त्रीयादिकनो जे प्रेम छे ते स्वम समान || छे, एवीरीते योले छे, परंतु ते स्त्रीयादिक पदार्थोनो ज्यारे नाश थाय छे त्यारे खरा अंतःकरणथी लावे रागे पोको | मूकीने रुदन करे छे, माटे हे भव्यप्राणीओ! तमे विचारो के, आ ज्ञान के कहीए? माटे ग्रन्थकार एम कहे छे के, | जो एम तमे जाणो छो, एटले पूर्वे कहेली त्रण वस्तुने अतिशे जो चंचल जाणो छो तो पूर्फ कहेला पोपटिया ज्ञान | ने मुकीने, तमे खरा अंतःकरणथी अनुभव ज्ञान करो, एटले तनारा कह्या प्रमाणे तमे वर्तों, अर्थात् ते खोटाने असत्य जाणीने, अने एक जिनराजना धर्मने सत्य जाणीने, तेने विषे उद्यम करो. ॥ रथोद्धतावृतम् ॥ संध्यारागश्च जलबुबुच तदुपमे जोविते च जलबिंदुचंबले संझरागजलबुभुओवेमे । जीविरं यं जलबिंदुचंचले Jain Education Intel 2010-05 For Private & Personal use only Al Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेराग्यशतकम् ॥८९॥ यावने च नदीवेगसंनिभं पापजीव किं इदं न बुध्यसे जुवणे ये नइवगसंनिभे । पावजीव कि मिय ने घुझसे ॥ ४५ ॥ भाषांतर ME अर्थ-(संझराग के०) संध्या समयनो रंग, तथा (जलबुब्बु के०) पाणीनो परपोटो. (ओवमे के०) ए बेनी छे || सहित all उपमा ते जेने एवं, (य के०) अने ( जलबिंदु चंचल के० ) डाभना अप्रभाग उपर रहेला पाणीना बिंदु जेवू चंचल | ॥८९॥ ५एवं, (जीवोए के०) जीवित सते (य के०) वली [नइवगसंनिभे के०] नदीना वेगने तुल्य ए (जुम्वणे के०) यौवन | सते (पावजीव के०) हे पापजीव ! (न बुज्से के०) तुं नथी बोध पामतो (इयं के०) ए ते (कि के.) !! एटले JE एते केटलुं वधु आश्चर्य छे !!!॥ ४५ ॥ or भावार्थ-आ संसारमा बधी आशाओ करतां जीववानी आशा घणी महोटी छे. केमके, आ जीवने ज्यारे । | छेलीवारे श्वास उपडे छे, अने डचकां आवे छे, तो पग हजु हुँजीवीश, एवी आशा रह्या करे छे; माटे कोइ | Re विद्वान पुरुष- आयु वचन छे केः जीर्येते जीर्णवयसः ।' पुंसः केशरदावपि || __जीविताशा धनाशा च । कुमारीव विवर्द्धते ॥१॥ ___ अर्थ-जीर्ण थइ छे अवस्था ते जेनी, एवा पुरुषना केश तथा दांत जीर्ण थाय छे. एटले वृद्धावस्थामां माथाना | केश धोला थाय छे. एटलुंज नहि पण केटलाक नाश पण पामे छे. अने दांत पण शिथिल थाय छे. एटलुज नहि DDDDLERS __Jain Education Intem X 010_05 IACI PClujainelibrary.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण पडी जाय छे. त्यारे पोतानुं जवानीपणुं देखाडवाने माटें; मूछोमा ज्यारे पलियां आवे छे त्यारे तेने खुंटावी बेराग्य भाषांतर 15 नांखे छे. एम करतां ज्यारे वधारे धोलां आवे छे, त्यारे तेने गलेफ चढावे छे. एटले काला रंग वडे रंगे छे. तथा शतकम् सहित दांत पडी जाय छे, त्यारे जवानीपणु देखाडवाने माटे जनावरना हाडकाना बनावेला दांतनी बत्रीशी मुखमां घलावे ॥९ ॥ | के. एम करीने पराणे पराणे जीवनपणुं लाववा जाय छे तो पण जवानी पाछी आवती नथी. अने न गमतुं एवं ॥९॥ वृद्धपणु प्राप्त थाय छे, सारे पण जीववानी आशा तथा धननी आशा, कुमारी कन्यानी पेठे दिन दिन प्रत्ये वृद्धि | पामे छे. एटले तेने कोइ डोसो कहीने बोलावे, तो ते वचन माथु काप्या जेवु लागे छे. शाथी के, एने जीववानी आशा घणी छे. माटे एटलाज माटे मूल ग्रंथकार घणां हटांत आपी जीवित तथा जवानीपणानु अतिशे अस्थि-06 टेके. के. संध्याकालना लाल, लीला, पीला, भभकादार रंगना जेवं जीवित जणाय छे. पण ते रंग घडि | बे घडिमां नाश पामे छे, एवं जीवित अस्थिर छे. वली तेथी वधारे अस्थिरपणुं देखाडवाने बीजु दृष्टांत कहे छे. के, पाणीना परपोटा जेवू जीवित अस्थिर छे, एटले ते थोडीवारमा नाश पामे तेवू छ. तथा तेथी पण डामना अग्रभाग उपर रहेलं जल, तेथी पण थोडीवाग्मां नाश पामे छे, माटे तेना जेवू जीवित कयुं छे, तेमज जवानीपj छे नदीना वेग जेवू चंचल कयु. एटले नदीनु पाणी जे आपणे नजरे जोयु, तेज पाणो विचारीने जोइए तो केटले छेटे | जतुं रघु अने आपणे तो जागीये छीए के, तेनुं तेज आ पाणी छे. तेम क्षणे क्षणे पलटा जवानीपणुं, तेने आपणे | जाणीए के, तेन तेज छे; परंतु जे गइ काले हतुं, ते जवानीपणुं आज नथी. वळी जवानी आवतां पहेला माबाप Tww.iainelibrary.org Jain Education inte 2 010-05 For Private Personal use only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥९१॥ Jain Education Intern विगेरे एम जाणे छे के, महारो दीकरो जवान थशे एटले महोटो थशे, एम समजे छे, परंतु वास्तविक रीते विचाएतो, ते दिवसे दिवसे नहानो थाय छे. केम के, तेणें जेटलं आयुष्य बांध्युं छे. तेमांथी तेलो काल उछो यो. एजतना विपरित ज्ञानना वेगे चढी जवाथी आ जीव समजतो नथी, माटे ग्रंथकार कहे छे के, हे पापजीव ! एटले हे पापरूप थड़ गयेला प्राणिन् ! आ कछु तेवु अस्थिरपणुं देखीने पण तु हजु केम ब्रझतो नथी ! ॥ ४५ ॥ ॥ आर्यावृत्तम् ॥ अन्यत्र अन्यगतौ मताः अन्यत्र गेहिनी परिजनोऽपि अन्यत्र अन्त्य सुआ भव्य । गेहिणी परिअंगोऽवि अनंत्य || भूतभ्यो वलिखि कुटं प्रक्षिप्तं हतकृतांतेन भूअलिव कुंडुवं । पवखेत्तं ह्यकेयंतेण ॥ ४६ ॥ अर्थ - (कण के० ) निंदा करवा जोग्य एवा जे यमराज (माटुं कर्म) तेणे (कुदुयं के०) आंगल कशे एवा, सर्व कुटुंब [भूअल के० ] भूतने जेम बलिदान आपे, एटले जेम बाकला छुट्टा छुट्टा फेके, तेम (सुआ के०) पुत्र पुत्रीयोने (अन्नस्थ के ० ) अन्य गनिने विषे, तेमज (गेहणी के०) वल्लभ स्त्रीने पण (अन्नस्थ के०) अन्य गतिने विषे. तेज (परिणोऽवि के ० ) परिजन ने एटले परिवारने पण [अन्नस्थ के] अन्यगतिने विषे (परिकसं के०) पहोंचाडयां छे. अर्थात् पुत्र, पुत्री, स्त्री, अने परिजनादिक सर्वने जूदी जूदी गतिमां फेंकी दीघां है. 2010 05 भाषांतर सहित ॥९१॥ www.jainalibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यMARम भाषांतर सहित ॥९२॥ ॥९२॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! आ संसाररूप चकडोल उपर चढीने, तु एम विचार करे छे के, सबलुं कुटुंब महारा भेगु सदायकाल एक स्थितिमा रहे, पण आ सर्व कुटुंबनो महारे कोइ दिवस वियोग पडे नही, एवा उपायमां | | तुं रात्री दिवस मंडेलो छु; परंतु तुं एम विचार नथी करतो के, जे स्वभावेज अस्थिर वस्तु छे, ते सेंकडेा उपाये पण स्थिर थवानी नथी. केन के, जे सर्वे कुटुयी माणसो . ते सनां कर्म जूदां जहां छे. परंतु एकरुप नथी. तेथी करीने पुत्र, पुत्रीयो, स्त्री अने परिवार इत्यादिक पोतपोतानां कर्मानुसारे नाना प्रकारनी गतियोनांधी जे रीते आव्या हता. तेवी रीते पाछां नाना प्रकारमी गतिओमां चाल्यां जाय छे. ते केवी रीते चाल्यां जाय छे ? तो के जेम कोइ भूत देवताने बलियाकला फेंके छे, ते बलियाकला पराधीनपणे जूदी जुदी जग्याए जइ पडे छे, तेम आ विचारा पुत्रादिक कर्माधीनपणाथी अनेक प्रकारनी गतियोना जइ पडे छे, त्यां तथा आ भवनां सुख दुःखादिकनां पण, तहारो कोइ उपाय चाली शकवानो नधी. तो पण मिथ्या ममत्व बांधीने, जेम चालता गाडातले कूतरु चालतुं dil होय, ते कूतरु एम विचारे के, आ सघलो गाडानो भार हुँ खेंचुं छु. तेम तुं पण एम समजे छे के, आ सर्व कुटुयन | भरण पोषण पण हुंज करुं छु, एवो तुं मिथ्या ममत्व करे छे. परंतु एम नथी जाणतो के, सर्वे कर्माधीन छे. तेनां शुकरी सकवानो छु ! ! एम विचारीने तेवा खोटा ममत्वने छोडी दइने . कांइकतो आत्मसाधन करवानो | अवकाश लाव्य !!॥४६॥ _JainEducation Intern HEN Jww.jainelibrary.org For Private & Personal use only 0 10_05 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥९॥ जीवन भवेर जन्मनि२ मिलिताः देहाः ये त्यक्ताः संसारे वैराग्य जीवेण भवे भवे । मिलियाइ देहाई जोइ संसारे ।। शतकम् तेषां न सागरोपमैः क्रियते संख्या अनंतैः । ॥९३।। ताण नै सागरेहिं । कीरेई संखा अर्णतेहिं ।। ४७ ॥ अर्थ-हे आत्मन् ! (संसार के०) संसारने विषे (जीवण के०) जीव जे तेणे (भवेभो के०) भव भवने विषे | (जाइ के०) जे (देहाइ के०) देह (मिलियाइ के०) मेलव्यां छे, एटले कर्या छे. (नागं के०) ते देहनी (अगंतेहिं के०) JU अनंत एवा (सागरेहिं के०) सागरे करीने. एटले अनंता सागरना पाणीना बिंदुए करीने अथवा अनंता सागरोपम | TM काले करीने पण (सख्या के०) संख्या जे ते (नी के०) नथी (करह के०) करी शकतो. ॥४७॥ भावार्थ-हे प्राणिन् ! जे शरीरने अर्थे तु अनेक प्रकारनां पाप करे छे, देहना स्वरूपनो विचार कर्य के, ते PR केटलां शरीर करी करोने मूकी दीधां छे ? ते देहनी संख्या, अनंता सागरना बिंदुवडे पण थइ सकती नथी, अथवा | अनंता सागरोपमना काले करीने पण थइ शकती नथी. केमके शास्त्रमा का छे के, जीवे जेटलां शरीरनो त्याग JE | कर्यो छे, तेटलां शरीरनो जो ढगलो करीए तो त्रणभूवनमां पण माइ शके नही. केमके, ते शरीर अनंता छे. ते Iodi| कारण माटे हे भव्यजीव! तुं एम विचार कर्य के, जगत्मां देह समान कोइ बीजी अशुची वस्तु प्राये छेज नही. कारण | * आ सागरोपमनु प्रमाण ग्रंथने अंते जणाव्युछे. Jain Education IntemAC010_05 For Private & Personal use only ww.jainelibrary.org Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥९४॥ ॥१४॥ के, गमे तेवी सारी सारी वस्तु होय, ते पण देहना संबंधथी पगडी जाय छे. जेम सारामां सरां मेवा मिठाई बैराग्य D इत्यादि, देहमा नांखीने तत्काल पाछु काढीने जोइए, तो तेना सामु पण जोह शकातुं नथी, एबुं नठारुं थइ जाय शतकम् छे. वली गमे एवां अत्तर चंदनादि सुगंधोदार वस्तु, देहनो संबंध पामीने दुर्गधमय थइ जाय छे. तेमज गमे तेवां | सारामां सारां अने बहु मूल्यनां वस्त्र पण, देहना संबंधे करीने मलमलिन थइने गंधाइ उठे छे. एवी अशुचिर्नु पात्र | आ देह छे, तेवा देहनीज रात्री दिवस उठवे [धणीज सेवा करवामां काल गुमावे छे. तथा ते देहने माटे अधर्म JU अन्यायादिक करतां पण डरतो नथी; पण तेवा देहतो ते अनंता धारण कर्या, ने मूको दीधा. जेम शरीर उपर। | पहेरेलां वस्त्र जुनां थएथी काढी नांखीने नवां धारण करे छे, ए न्याये ते च्यारे गतिमां अनेक प्रकारनां शरोर धारण कर्या छे. माटे ते शरीर उपरथी मूर्छा उतारीने, केम अशरीरो थवाय, तेवो उद्यम कर्य. नयनोदकमपि तामां सागरमलिलात् बहुतरं भवति नयंगोदयंपि तासिं । सागरसलिलाओ बहुयरं होई ॥ गणितं रुदंतीनां मातृगां अन्यान्यासां गलियं रुअमोणीणं । माऊँणं अन्नमन्नाणं ।। ४८॥ अर्थ-हे आत्मन् (नासि के० ते (रुअनाणीणं के०] रडती एवियो ने (अन्नमन्नाणं के०) अपर अपर जन्नने | विषे थयेलीयो एवी (माऊग के०) माताभोनुं (गलियं के०) शोकथी निकलतां एवां (नयणोदयपि के०) नेत्रना ووه .. و تدوین و دار و رویداد اور وراء Jain Education Intern 0 10_05 For Private & Personal use only Holaw.jainelibrary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् - आंसु पण (सागरमलिलाओ के०) समुद्रना पाणी धकी (पहुबरं होइ के०) अतिशे अधिक होय छे. अर्थात् समुद्रना | भाषांतर | पाणीवडे पण आंसुना जलनु परिमाण थइ शकतुं नथी. ॥ ४८ ॥ सहित I भावार्थ-केटलाएक पुरुषो स्त्री यादिक पदार्थथी वैराग्य पामीने दीक्षा लेवाने तैयार थया होय, परंतु तेओ DE ॥९५॥ 14 फक्त माता पितानो घणो लेह देखीने अने तेमने रोतां कलकलता देखीने, तेना प्रणाम पाछा हठी जाता जोइने | | ॥१५॥ | ज्ञानी महाराज तेने उपदेश देवाने अर्थे कहे छे. के, हे भव्य जीव ! तुं एक भवना माता पिताने रोतां कलकलना | जोइने दिलगीर केम थाय छे ? परंतु विचार कर्य के, ते कर्मना वशे करीने अनंता भवनां अनंता माता पिताने, [R रोतां कलकलतां मूकीने तुं आ भवमां आव्यो छु. ते माता पिताओनी आंखमाथी निकलतां आंसुनी संख्या करवा AE बेसीए तो, समुद्रना पाणी थकी पण अतिशे अधिक थाय छे. त्यारे हवे तु कियां माता पिताने संतोष पमाडीश ? 16 Iril माटे वस्तुताये विचार कर्य के आत्मानी माता कोण छे ? पिता कोण छे ? अर्थात् अत्मानां माता पिता छेज नही. एq विचारीने साहसिकपणे धर्म साधन कर्य. ॥ ४८ ॥ यत् नरके नैरयिकाः दुःखानि प्राप्नुवंति घोराण्यनंतानि च ज नरेए नेरइया । दुहाइ पावंति धोरणताइ । ततः अनंतगुणितं निगोदमध्ये 'दुःखं भवति तत्तो अणंतगुणियं । निगोअमज्झे दुहं होई ॥ ४९ ॥ _Jain Education inten MF10_05 For Private Personal use only jainelibrary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैराग्यशतकम् ॥९६॥ अर्थ - ( नरए के०) नरकने विषे (नेरइया के०) नारकी जे ते (जं के०) जे (धोरणताई के ० ] महाघोर, ने अनंता एai (दुहाइ के० ) दुःखने (पावंति के०) पामे छे. (तत्तो के०) ते थकी (नीगोअमझे के० ) निगोद मध्यने विषे (अनंतगुणियं के०) अनंतगुणु [दुहं के ० ] दुःख जे ते ( होइ के०) होय छे, अर्थात् नरकना दुःखी पण निगोदने विषे अनंतगुणु दुःख होय छे. ॥ ४९ ॥ भावार्थ- नारकीना दुःखनुं वर्णनघणा सिद्धातोमां प्रसिद्ध छे, तथा निगोदनुं स्वरूप निगोद छत्रीशी विगेरे प्रकरणी जाणवु. परंतु ते दुःखना वर्णनने इहां दिशमात्र देखाडीए छीए. इहां नारकीना दुःखधी निगोदनुं दुःख अशाधीक ? ते कहीए छीए. दृष्टांत सातमी नरकमां उत्कृष्टायु तेत्रीश सागरोपमनुं छे, ते तेत्री सागरोपमना जेटला समय धाय, तेलीवार कोइ जीव सातमी नरकमां पूर्ण तेत्रीश तेत्रीश सागरोपमने आउखे उपजे, त्यारे तेने असंख्याता भव नरकना थाय. ते असंख्याता भवमां सातमी नरकने विषे, ते जीवने जेटलं छेड्न भेइननुं दुःख थाय, ते सर्वे दुःख एक करीए, तेथी पण अनंतगुणु दुःख निगोदीया जीव एक समय भोगवे छे. वळी एक औदारिक शरीरमां अनंता जीव भेगा रहे छे. ते भेगा शी रीते रहे छे ? ते जणावीए छीए. एक सईना अत्रभाग उपर रहे तेली कंदमूलनी कली होय, तेमां असंख्याती श्रेणी रहे छे. ते एकेकी श्रेणीमां असंख्याता प्रतर छे. ते एकेका प्रतरमा असंख्याता गोला छे. ते एकेका गोलामां असंख्याता शरीर छे. ते एकेका शरीरमां अनंता जीव छे. एवी रीते निगोदना जीवने रहेवानुं स्थान घणुं साकडुं छे. ते उपर एक स्थूल दृष्टांत कहीए छीए. जेम कोड़ Jain Education Inter 2010_05 भाषांतर सहित ॥९६॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥९७॥ Jain Education Interna लाख औषधियोने भेगी करीने तेने घणा दिवस सूत्री खलमां धुंटावीने, पछी तेनी राइना दाणा जेवडी गोलियो वाली. तेमां जे रीते लाख औषधियोनो समावेश थयो, से रीते एक शरीरमां अनंता जीव रहेला छे. ते निगोदना जीव, एक मुहूर्त्तमां पांस हजार पांचशे ने छत्रीश भव करे, अने एक श्वासोच्छववासमा सत्तरी काइक अधिक भव करे छे. एवी रीते निगोदमां जन्म मरणनां दुःख छे. के, ते दुःखनी उपमाज नथी ! ते आश्रयीने निगोदने विषे नरकनां दुःखी अनंत दुःख श्री वितरागे का छे. ॥ ४९ ॥ तस्मिन्नराधि अपि निगोदमध्ये उपितः रे जीव विविधकर्मवशात् तंमिं वि निगोॲमज्झे । वसिंओ रेजीवं विविह्नकम्मैवसा ॥ विषमाणः तीक्ष्णदुःखं अनंतान् पुद्गलपरावर्त्तान् यावत् विहितो तिक्खहं । अनंतपुलपरावत्ते ॥ ५० ॥ अर्थ - (रे जीव के०) हे जीव ! (विविहकम्मवसा के०) नाना प्रकारना कर्मने वशे करीने (नंमि के०) ते (निगोअपज्झे के०) निगोदनी मध्ये (वि के० ) पण (अणं नपुग्गल परावते के० ) अनंता १पुद्गलपरावर्त्त कालसूधी एटले काल पर्यंत, तु ( तिक्खदुह के०) तीक्ष्ण दुःखने (बिसतो के०) सहन करतो ५० ॥ अनंता सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त्त सतो (मिओ के०) रह्यो धुं. ॥ १ पुद्गलपरावर्त्तनु स्वरूप आगल कहीशु. 5010_05 भाषांतर सहित ॥९७॥ jainelibrary.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य भाषांतर सहित शतकम् ॥९८॥ ॥९८॥ भावार्थ-तेवां दुःखने आ जीवे ज्ञानावरणादिक कर्मना वश थकी अनंतीवार भोगव्या छे. माटे हवेथी तेवां दुःखो न भोगवयां पडे, तेवा उद्यममां तत्पर थQ. ॥ ५० ॥ निःमृत्य कथमपि ततः प्राप्तः मनुजत्वमपि रे जीव निहरीअ कहवि पत्तो तत्तो मणुत्तणंपि रे जोव ।। तत्रापि जिनवरधर्मः प्राप्तः चिंतामणिमक्ष तत्यवि जिणवरधम्मो । पैसो चिंतामणिसरित्यो ॥५१॥ ___ अर्थ-(रे जीव के०) हे जीव ! तुं (कहवि के०) कोइ महा कष्टे करीने पण (तत्तो के०) ते निगोद थकी (निह. hal रीअ के०) निकलीने (मणुअत्तर्णपि के०) मनुष्यपणाने (पत्तो के०) पाम्यो छे. (तत्थवि के०) तेमां पण (चिंतामणिKa सरित्थो के.) चिंतामणि रत्न सरखो (जिणवरधम्मोके०) जिनवरनो धर्म जे ते (पत्तो के०) प्राप्त थयो छे. ॥ ५१ ॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! तुं अनेक प्रकारनी अकाम निर्जराए करीने तथा निगोदनी भवस्थिति पुरो करीने अने | महाकष्टे करीने, महा दुर्लभ एवा मनुष्यभवने पाम्यो. तेमां पण सकल वांछाने पूरण करनार माटे चिंतामणिरत्न | समान श्री जिनधर्म तेने तुं पाम्यो छे. एटले तुजे जे सुखनी इच्छा करीश, ते ते सुखनी प्राप्ति आ धर्म वडेज | मलशे. एवा धर्मने पामीने विषय कषायने घटाडवानो दिन दिन प्रत्ये उद्यम कर्य. के, जेथी मनुष्यभव अने जिनधर्म | ए बे पामवानु सफलपणुं धाय. ॥ २१ ॥ ____Jain Education Inter 2 01005 For Private & Personal use only T Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥९९॥ प्राप्तपि तस्मिन् रे जीव करोवि !!! प्रमाद त्वं तं एव सेवितं रे जीव । कुर्णेमि पमयं तु तैयं चैवें ॥ येन भवांधकूपे पुनरपि पतितः दुखं जेण भवंर्धवे । पुणोवि पडिओ दुहं Jain Education Intense 2010_05 अर्थ - (रे जीव के०) हे जीव ! ( तंमि के०) ते जिनराजनो धर्म (पत्शेवि के ० ) पामे सते पण (तुमं के० ) तुं (जेणं के०) जेणेकरीने (पुणोवि के० ) फरीथी पण ( भवंधवे के ० ) संसाररूप कूवाने विषे ( पडीओ के० ) पो तो [ ] दुःखने [लहसि के० ] पामीश [नयं के० ] ते प्रकारना एटले संसाररूप अंध कुवामां फरीथी नांखे एवा [पमा के०] प्रमादने एटले निद्रा विकथादिकने (चेव के०) निश्चे (कुणसि के०) केम करे छे ? ॥ ५२ ॥ भावार्थ- हे आत्मन् ! तु जिनराजनो धर्म पाम्या पछी निश्चय अने व्यवहार ए वे प्रकारे ते धर्मनुं कर, ते मूकी दइने, उल्टो तेने बदले जेथी फरीधी पण संसारूप आंधला कुवामां पडाय, एवा निद्रा विक्रयादिक प्रमादने केम शेवे छे ? केम के, मनुष्यनो भव, अने श्री जिनधमनी प्राप्ति, ए वेनो योग मलवो तो चिंतामणी रननी पेठे महा दुर्लभ है. ॥ ५२ ॥ लप्स्यसे लहंसि ॥ ५२ ॥ उपलब्ध: जिनधर्मः नच अनुचीर्ण मेवितः प्रमाददोषेण वो जिधम्मो | नये अणुचिण्णो पमायैदोसे ग ॥ भाषांतर सहित ॥९९॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित हा इति खेदे हे जीव हे आत्मवैरिन् च सुबह परताग्रे खेत्स्य से शोचिंप्यसे बैराग्य हा जीव अप्पवेरि अं । सुवेहुं परेउ पिभूरिहिसि ।। ५३ ।। भाषांतर शतकम् __ अर्थ- (जीव के०) हे जीव ! ते दैवयोगथी (जीणध्मो के०) जिनधर्म जे ते (उवलदो के०) पाम्यो. परंतु (पमा॥१०॥ Iril यदोसेणं के०) आलस्यादिक दोषे करीने (अणुचिण्णो के०) सेव्यो (नय के०) नथी. (हा के०) आ घणी खेद कारक mil ॥१०॥ वार्ता छे. (अ के०) वली (अप्पवेरि के०) हे आत्माना वैरिन् ! (परओ के०) परलोकने विषे तुं (सुबहु के०) अतिशेक 4 घj (विमूरिहिसि के०) खेद पामी. अर्थात् धगोज पश्चाताप करीश. ॥ ५३॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! सर्व सुखनी प्राप्सिनु कारण एना जैनधर्मने पामीने, केवल प्रमाद दोषधीज, ते धर्मर्ने । + सेवन तें कयु नही. माटे तुंतहारी थयो. माटे तुतहारी मेलेज तहारा आत्मानो महोटो शत्रु थयो. एटले आ| स्मानी हत्या करनारो थयो माटे तु मरण पामीने परलोकमां शशिप्रभराजानी पेठे घणोज शोक करीश, ॥ ५३ ।। | ते शशिप्रभराजानी कथा नीचे प्रमाणे जाणवी. कथा ६ ठो. सावत्थी नगरीने विषे शूरप्रभ, अने शशिप्रभ एवे नामे बे भाई राज्य भोगवता हता. तेवामां एकाद समयने । | विषे, ज्ञानी गुरु श्री धर्मधोषसूरि नगरीनी बहार उद्यानने विषे पधार्या. वनपालके जइ राजाने वधामणी दीधी. Jain Education Intet 2 010_05 For Private & Personal use only | Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || राजाये वन पालकने घणुं द्रव्य आप्यु. पछी वे बांधव. श्री गुरु पासे गया. त्यां विधिपूर्वक वंदन करी उचित स्था- || भाषांतर GIC नके बेठा. गुरुए पण अवसर जाणी धर्मदेशना दीधी. जेम के: सहित ॥ शिखरिणीवृत्तम् ॥ ॥१०॥ सदापायः कायः, प्रणपिषु सुख स्थैयविमुख । महारोगा भोगाः, कुवलयदृशः सर्पसदृशः॥ ॥१०॥ - गृहावेशः क्लेशः, प्रकृतिचपला श्रीरपि खला । यमः स्वैरी वैरी, परमिह हितं कर्तुमुचितम् ॥ १ ॥ ___ अर्थ-आ शरीर निरंतर अपायरूप छे. एटले कष्टरूप, दोषरूप, अने पापरूप एव॒ महामलिन आ शरीर छे. तथा स्नेहिन सुख पण अस्थिर छे. एटले स्थिरताये करीने रहित छे. अर्थात् ते क्षणमात्रमा स्नेही पण थाय छे, अने | तेज स्नेही क्षणमात्रमा वैरी पण धाय छे. अने विषयभोग जे ते, महा रोगरुप छे. एटले विषयभोगथी अनेक प्रका- TE रना रोग उत्पन्न थाय छे. अने स्त्रीयो जे ते सर्प समान छे. एटले जेम सर्प करडे, ने झेर चडे, ने प्राणनो नाश थाय. bal | तेम स्त्रीना संसर्गथी विकार उत्पन्न थाय छे, अने तेथी अनेकवार जन्म मरण थाय छे; माटे जे गृहस्थाश्रममा रहे । | ते केवल क्लशरूप छे. अर्थात् उंटना उपर येसवा जेवो गृहस्थाश्रम वालाने अनेक प्रकारनां वांकां आवी पडे छे, पण | कोइ वातनुं पांशरं पडतुं नथी. एटले गमे तेवी कटण कम्मर यांधीने दृढपणे उंट उपर बेठो होय, तो पण | ते पुरुष हाल्या विना रहे नहि. तेम सुझे तेवो खबरदार, संसारमा कहेवातो होय तो पण तेने कोइ प्रकारचें लांछन al (पाप) लाग्या विना रहे नही. अने लक्ष्मी पण स्वभावे चंचल छे. अने खल छे. एटले छेतरनारी छे. अने वैरी एवो MAHARA _JainEducation IntRAL2010_05 For Private & Personal use only 3 w w.jainelibrary.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्या शतकम् ॥१०२॥ काल जे ते, स्वेत्थाचारी छे. एटले पोतानी मरजीमा आवे ते वखते जीवने पकडीने लेड जाय छे माटे आ भवमां उत्कृष्ट आत्मानुं हित करवू घटे छे. एटले परलोकमां हितकारी एयु धर्मसाधन करवुज योग्य छे. भाषांतर सहित ___ इत्यादिक धर्मदेशना सांभली बन्ने भाई घेर आव्या. घेर आवीने शुरप्रभ पोताना भाई शशिप्रभ प्रत्ये कहेतो Ind॥१२॥ भाई ! महारे राज्यनो खप नथी. लारे शशिप्रभे कहा के, श्यामाटे तहारे राज्यनो खप नथी? त्यारे शुरपभे । | का. हे भाई राज्यने छेडे नरक पामीए. माटे महारे राज्यनो भर्वथा प्रकारे खप नथी. सारे शशिप्रभे कहूं. भाई 06 | मनुष्यभव पामीने एले शुं करवा गमावे छे ? ए सर्वे बालकने बिहामणरूप करी मुक्यु छे. माटे खाओ, पीओ, Id वावरो. काया घालवाथी हाथमां शु आवशे? कोण जाणे परलोक छे के नथी ! अने प्रत्यक्ष सुख मूकीने परोक्ष सुखने शुकरवा वांछे छे. माटे हे भाई ! महारं कहेमानीने आ राज्य भोगवो. परंतु उतावला थइने जो संसार कशो, तो पछीधी घणोज पश्चात्ताप करशो! अने वली पछी तमे कहेशो के, भाईए का नहतुं. माटे हालमा | संसारिक सुख भोगवीने पछी वृद्धावस्थामा संयम लेज्यो. एवी रीते शशिप्रभे कहूं. त्यारे शूरप्रभ कहेतो हवो, अरे | अरे भाई ! ए तमे शुं कहां ? ॥ धर्मस्यत्वरिता गतिः ॥ एटले धर्म तो प्रमाद मूकीने जलदीधीज करवो. माटे आ राज्य ल्यो. एवी रीते कहीने बलात्कारे पोताना भाईने राज्य आपी शूरप्रभ राजाये श्रीगुरु जइ दीक्षा लीधी. पछी । घणां तप जप करी अंते अनशन करी. समाधिसहित काल करीने पांचमा ब्रह्मदेवलोकने विषे देवतापणे उपन्या. مجتمع والتعليقات من هنا في ال لا لا لا لا لن أن सीकसकी Jain Education InteAN 2010_05 For Private & Personal use only | Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् * हवे शशिमभराजा राज्य भोगवी सात व्यसन सेवी मरीने त्रिजी नरकने विषे नारकीपणे उपन्यो. हवे शूरप्रभ । बैराग्य-| || देवताये अवधिज्ञानना बले करी जोयुं, त्यारे पोताना भाई शशिपभने त्रिजी नरकने विषे दीठो. देखीने विचायु || भाषांतर | के, एणे महारुं कहेलुं न मान्युं, माटे नारकी थयो, ने घणुं दुःख भोगवे छे. तोयपण हुं ते दुःख टालं. एम धारी ते hd सहित ॥१०॥ | देवता मोहनो लीधो नरकवासमां आव्यो. आवीने पोताना भाईने घणो घणो ताणवा मांड्यो, तेम तेम ते घणीज ॥१०३॥ वेदना पामवा लाग्यो. पछी देवता कहे के, भाई ! तें महारु कहेवू न मान्यु, मुंडा में तने घणुज कह्यु हतुं, तोपण तुं समज्यो नही. माटे हवे शुकरीश ? खारे ते नारकी कहे. हे भाई ! हवे शुकरुं ? पछी सूरप्रभ देव, परर्माध- | Delमिने भलामण देइ पाछो देवलोके गयो शशिप्रभ घणोज पश्चाताप पाम्यो. पण ते पश्चाताप कांड काम आव्यो नहीं. | | तेम जे प्राणी चिंतामणी रत्न समान मनुष्यभव पामीने जिनधर्म नहि करे, ते प्राणी शशिप्रभ राजानी पेठे महा | शोचनाने पामशे ! ! अने जे प्राणी शूरप्रभ राजानी पेठे प्रमाद मूकीने, जलदीथी धर्मसाधन करशे, ते प्राणी मोक्ष देवलोकनां सुख पामशे. एवु जाणी, प्रमाद मूकीने धर्मसाधन करवू ए उपदेश... शोचंति ते वराकाः पश्चात् समुपस्थिते मरण सोअति ते नराया। पच्छा समुवंद्वियंमि मरणमि ।। पावप्रमादवशेन न संचितः यैः जिनधर्मः पावपमीयवसेणं । ने सचियो जेहिं जिणंधम्मो ॥ ५४ ॥ * १ जुगटु, २ मांसभक्षण, ३ सुरापान, ४ वेश्यागमन, ५ आहेमीकम, (मृगयोकरवी) ६ चोरीकरबा, ७ परस्त्रीसेववी. Jain Education Intel 2010 05 For Private & Personal use only w w w.jainelibrary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैराग्य ॥१०४॥ ___अर्थ-(जेहिं के०) जेमणे (पावपमायवसेणं के०) पापरूप प्रमादना वशे करीने (जिणधम्मो के०) जिनधर्म जे ते (न संचियो के० पोताना आत्माने विषे नधी संवय को. अर्थात् पोताना आत्मामां जिनधर्म परोबर ठसाव्यो । भाषांतर सहित il नथी. (ते के०) तेवा (वराया के०) रांक पुरुषो जे ते, एटले अज्ञान कष्टने करनारा पुरुषो जे ते (मरगंमि के०) || मरग (समुवढियंमि के०) प्राप्त थये सते (पित्था के०) पछी (सोअंति के०) शोक करे छे. के अरेरे ! आपणे कांइ ॥१४॥ पण धर्म साधन कर्या विना परलोकने विषे क्याथी सुखी थइशु!! इत्यादिक घणोज पश्चात्ताप करे छे. ।। ५४ ॥ ___भावार्थ-हे जीव ! जेवी जोइए तेवी तेने धर्मसाधन करवानी सामग्री मली, तो पण कुरुगुरना उपदे शथी | जिनआज्ञा रहित अनेक प्रकारनां अज्ञान कष्ट करी, आ लोक तथा परलोक ए प्रकारे बे लोकनुं सुख हारी गयो. | | केम के, लोकमां मानवा पूजवाना अहंकारथी, समज्या विना अज्ञान कष्ट कर्या, तेथी परलोकमां तने घणोज पश्चा ताप थशे. माटे थोडं पण जिनआणा सहित धर्मसाधन करवामां प्रमाद रहित था, अर्थात् पांव प्रकारना प्रमादना | वशथी विराम पामीने जलदीधी धर्मसाधन कर्य. ।। ५४ ॥ विधिकधिक पसारं देवः मृत्वा यत् नियम् भवति धीधीधी संसार देवो मरिऊँग जे तिरी होई ।। * १ मद, २ विषय, ३ कषाय, ४ निद्रा, भने ५ विकथा. JainEducation Internet 2010_05 For Private & Personal use only T Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ १०५ ॥ Jain Education Im मृत्वा राजराजाश्चक्रवर्तिनः परिपच्यतेऽतएव नरकज्वालाभिः मस्ऊिँण रायेराया । परिपंच निरयजालाए ॥ ५५ ॥ अर्थ - (जं के०) जे कारण माटे (देवो के०) देव जे ते (मरिऊण के०) मरण पामीने (तिरी के० ) तिर्यच (होइ ho) थाय छे ! अर्थात् देवता मरीने निर्यत्रमां तथा पृथ्विी आदीकमां उत्पन्न थाय छे ! अने (रामराया के०) राजाना पण राजा जे चक्रवर्ती, ते (मरिऊण के०) मरण पामीने (निरयजालाए के०) नरकनी जालावडे करीने (परिपञ्चड़ के ० ) अतिशे पचाय छे ! माटे (संसार के०) ते संसारने (धी घी घी के ० ) धिक्कार थाओ ! धिक्कार थाओ !! धिक्कार ओ !!! इहां अतिशे धिक्कार जणाववाने माटे त्रण वखत धिक्कार कह्यो छे. ॥ ५५ ॥ भावार्थ- कोइने एकवार धिकार ! कोइने वे are frकार !! पण आ संसारने तो व्रणवार धिकार ! का तेनुं कारण एछे के, देवता सरखा महा ऋद्धिवंत पण मरीने तिथेच गतिने विषे अथवा पृथ्वी आदिकमां जडपाषाण पणे उत्पन्न थाय छे ! आशु ओछु आर्श्वर्य छे !! तथा छ खंडना भोक्ता, तथा चोस हजार स्त्रीयोना पति, तथा चोरशी लाख हाथी, चोराशी लाख घोडा, चोराशी लाख रथ, अने छनुक्रोड पायदल, वली नव निधान, अने चौदन तथा सोलहजार जक्ष तथा बत्रीश हजार मुकटबंध राजा इत्यादिक, रात्री दिवस जेनी सेवामां रह्या छे, एवा चक्रवर्ती राजा पण मरीने नरकनी ज्वालामा उत्पन्न थाय छे !! त्यां ते चक्रवर्त्तिने परमाधर्ती, महा वेदना उपजावे छे. अहो ! हो !! आ ते शं थोडी आश्चर्यकारक वार्त्ता छे !!! ॥ ५५ ॥ 2010_05 भाषांतर सहित ॥१०५॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंगग्य शतकम् याति अनाथः जीवः दुमस्य पुष्पं इव कर्मएवथातस्तेनहतः भाषांतर जाइ अणाहो जीवो। दुम्मस पुष्पं वे कम्मवायहओ ॥ सहित धनधान्याभरणानि गृहस्वजनकुटुंबं मुत्तवापि ॥१०६॥ धणधन्नाहरगाई । घरसर्यण कुटुंब मिल्लेवि ।। ५६ ॥ ॥१०६॥ अर्थ-(अणहो के.) अनाथ एवो, (जीवो के०) जीव जे ते (धणधन्नाहरणाई के०) धन, धान्य, अने आभरणोने | तथा (घरसयणकुडुय के०) घर, स्वजन. अने कुटुंब जे तेमने (मिल्लेवि के०) मूकीने पण (कम्म वाय हओ के०) कर्मरूप वायुए करीने हणायो सतो (दुम्मस के०) वृक्षना (पुप्फ व के०) पुष्पनी पेठे (जाइ के०) जाय छे. अथात् | 5 हेठे पडे छे।। ५६ ।। भावार्थ-जेम वायुथी पराधीन थयेलं पुष्प, थोडीधारमां नीचे पडी जाय छे, तेम आ जीव पण कमें प्रेयर्यो । सतो धन, धान्य, कुटुंब परिवार, घर, हाट, हवेली अने महोटी महोटी ईमारतो, तथा सारां सारां घरेणां इत्यादिक # साह्यबी मूकीने, अनाथ एटले रांक जेवो धइने, नरकादिक दुर्गतिने विषे जाय छे. त्यां गया पछी पूर्वे कहेली कोइ पण वस्तु ते जीवने खप लागती नथी. माटे हे जीव! परिणामे जे वस्तु तहारी साथे नथी आवती, तेवी वस्तु उप- Thd | रथी मोह ममत्वनो त्याग कराने, जे परभवने विषे साथे आवीने सुख करे छे, तेवा ज्ञानदर्शन चारित्रादिक धर्मनु | आराधन कर्य. ॥ ५६ ॥ _JainEducation Interial 2010_05 For Private & Personal use only ॐl Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥१०७॥ Jain Education Inter उषितं गिरिषु उषितं कंदरासु उषितं समुद्रमध्ये वसिय गिरीसु वर्सियं । दरीषु वर्सियं समुद्दमज्झमि ॥ वृक्षाग्रेषच उषितं संसारे संसरता कदाचित् रुक्ग्गेये वसिय । संसारे संसरणं ॥ ५७ ॥ अर्थ - हे आत्मन् ! (संसारे के०) संसारने विषे (संसरणं के०) पर्यटन करतो एवो जे तुं. तेणे (गिरीसु के ० ) पर्वतो विषे (वसियं के० ) निवास कर्यो छे. तथा (हरी के० ) पर्वतोनी गुफाने विषे पण ( वसियं के ० ) निवास छे, तथा (समुद्रमज्झमि के ० ) समुद्रनी मध्ये (वसियं के० ) निवास कर्यो छे. (य के०) वली क्यारेक (रुक्खगेसु ho) वृक्षना अग्रने विषे (वसिगं के०) निवास कर्यो छे. अर्थात् पूर्वे कहेला सर्व स्थानकोमां तुं अनंतीवार निवास करी आव्यो छे. माटे तहारुं निवास्थान एक ठेकाणे नथी. ॥ ५७ ॥ भावार्थ- कोइ शिष्यने पोताना देशनुं, तथा पोताना गामनुं तथा पोताने रहेवानी ईमारतनुं, तथा पोतानी उत्तम जातिनुं, तथा पोताना प्रसिद्ध कुलनुं, तथा पोताना उत्तम वर्णनुं, इत्यादिक अभिमानने धारण करतो जो इने, गुरु उपदेश करे छे. के. हे शिष्य ! तुं मिथ्या अभिमान शुं करवा करे छे ? परंतु तुं विचार कर के, आ संसारमा भ्रमण करता केलीएक वखत तुं पर्वतने विषे पत्थररूपे थइ आव्यो छे. तथा केलीएक वखत पर्वतनी गुफामां पण सिंहादिक पशुरूपे थइ आव्यो छे, तथा केटलीएक बखत समुद्रने विषे जल जंतु रूपे धड़ आयो छे. 2010 05 भाषांतर सहित ॥ १०७॥ ww.jainelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ' ॥ १०८ ॥ Jain Education Inte तथा केलीएक वखत वृक्षोना अग्रभागमां कागडा प्रमुख पक्षिरूपे निवास करी आव्यो छे. इत्यादिक घणी - ग्याए निवास करी आव्यो छे. महाटे तहारु कयुं एक निवासस्थल छे ? अर्थात् एक पण ठेकाणे निवास करवाना स्थाननो तहारो निrय नधी, तोपण महारुं महारुं करीने निथ्याअभिमान शुं करवा करे छे ? ॥ ५७ ॥ 'देवः नैरयिकःइतिच कीटः पतंगः इति मानुषः एष देव र ओत्तिं । कीडे पयंगु न्तिं माणुसो एसो ॥ रूपरूपवान् च विरूपः सुखभागी दुःखभागी च रुसी ये बिहेंबो । सुहभागी दुखभोगी ये ॥ ५८ ॥ अर्थ - हे जीव ! तुं केटलीएक बखत (देवो के०) देव थयो छे, तथा (नेरइओ के०) केटलीएक बखत नारकी ए प्रकारे थयो छे. (य के०) वली (कीड के०) केटलीएक बखत ऋमियादिक कीडो थयो छे, तथा [पत्ति के० ] केलीएक वखत पतंगियो ए प्रकारे थयो छे. वली [माणुसो के०] केटलीएक बखत मनुष्य थयो छे. वली [एसो के०] तु [सी के० ] केलीएक वखत रूपवंत थयो छे. (य के०) वली एज तु (विरूवो के० ) केटलीएक वखत कुरूपत थयो छे. ( के०) वली (सुहभागी के०) केटलीएक वखत सुखनो भोगवनारो थयो छे, अने वलो (दुख(भागी के०) केटली एक बखत दुःखनो भोगनारो पण थयो छे. भावार्थ- आ जीवे नटवानी पेठे जूदां जूदां रूपे करी करीने आ संसाररूपी रंगभूमिमां अनेक प्रकारनां नाटक 2010 05 भाषांतर सहित ॥१०८॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥१०९॥ 1 का छे. जेम के, कोइक वखत देवताना वेश भजव्यो, लारें एवं विचार्य के, जगतमां महारा जेवो कोइ सुखीयो शतकम् नथी. तथा कोइक वखत नारकीनो वेश भजव्यो, त्यारे एवं विचायु के, जगत्मां महारा जेवो दुःखीयो नथी. तथा कोहक वखत तिर्यचनो वेष भजव्यो. त्यारे एवं विचार्य के. जगतमां महारा जेवू कोइने पराधीनपणानुं दुःख नथी. || ॥१०९॥ IN| वली कोइक वखत मनुष्यनो वेष भजव्यो, त्यारे ए विचार्यु के, जगत्मा कोइ महारा जेवो श्रेष्ठ बुद्धिवालो नथी. | एमज कोहक वखत पोताना पुद्गलना रुपनो अहंकार कयों के, महारा जेवो जगतमा कोइ रुपाळो नथी. तथा ज्यारे कुरूपवान् थयो, त्यारे एवं विचाय के, महारा जेवो जगतमा कोइ कुरूपवान् नथी. एम मांकडानी पेठे कोइ वखन सुखी थइने नाच्यो, अने कोइ वखत दुःखी थइने नाच्यो. माटे हे आत्मन् ! ए सर्वे वेशने असत्य जाणीने, फरीथी तेवा वेश धारण करवा पडे नहिं तेवो उद्यम कर. ॥ ५८॥ राजा इति च द्रमकोरंक इति च एषः श्वपाक इति एपः वेदवित् राउँत्ति ये दमगुत्ति च । एस सवागुत्ति एस वेयविऊ ॥ स्वामी दामः पुज्यः खल इति अधनः धनपतिरिति सामी दोसो पुजी । खेलोत्ति अर्धगो धणइत्ति ॥ ५९ ॥ नापि अत्र कोपि नियमः स्वस्यकर्मतस्यविनिवेशः तस्यमदृशीकृताचेष्टायेनसः नवि इत्थी कोइ निअमो । सकम्मविर्णिविठसरिसकयचिठो ॥ Jain Education Intel 2010_05 For Private & Personal use only laww.jainelibrary.org Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥११०॥ Jain Education Inter अन्यान्यरूपवेषः REET पर्यवर्ततें जीवः अन्नुन्नरूवसो । नडुंब परिअंतर जीव || ६०॥ युग्गम् ॥ अर्थ - हे जीव ! तुं केलीएक बखत (राउति के ० ) राजा ए प्रकारे थयो. (य के०) वली (मगुत्ति के०) भी - खारी ए प्रकारे थयो. ( के०) वली (एस के०) एज तुं (सवागुत्ति के० ) चंडाल ए प्रकारे थयो. वली (एस के ० ) (एजतुं (वेविक के०) वेदनो जाण थयो. वली (सामी के०) स्वामी थयो. अने (दासो के०) दास थयो. ( पुज्जो के०) पूज्य भयो. अने (खलोत्ति के०) खल ए प्रकारे भयो. वलो (अघणो के ० ) निर्धन थयो, अने (धणवइत्ति के ) ) धनपति प्रकारे थयो । ५९ ।। (इत्थ के० ) एम एटले पूर्वेकयुं तेमां (कोइ के०) कोइ प्रकारनो (निअमो के०) नियम जेते (नवि के ० ) नथीज. केमके, (सकरन के० ) पोतानां ज्ञानावरणीयादिक जे जे कर्म तेनी (विजिविड के ० ) विनिवेश एटले प्रकृति, स्थिति, अनुभाग अने प्रदेश ते रूप जे रचना, तेना ( सरसि के०) सरखी (का० ) करी छे चेष्टा ते जेणे, एटले देवादिक पर्याय रूपनो अध्यास [आश्रय] रूप व्यापार ते जेणे एवो सतो (नडुब्ब के०) नटनी पेठे (अन्नुन्न के०) अन्य अन्य छे (रूवत्रेसो के०) रूप अने वेश ते जेतो एवो (जीवो के०) जीव जे ते (परिअसर के ० ) पर्यटन करे छे. ॥ ६० ॥ 'भावार्थ- हे आत्मन् ! तुं चौदराज लोकरूप चौटामा, राजा प्रजादिकरूपे स्त्री पुरुषोना वेश लइने नटुआनी पेठे अनेक प्रकारे निष्फल नाच्यो, पण तेमांथो तने कोइ प्रकारनो अविनाशी सरपाव मल्यो नही. उलटो च्यार 2010_05 भाषांतर सहित ॥११०॥ . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य गतिमां भ्रमण करवारूप सरपाव मल्यो, तोपण ते भ्रमण करवाना अभ्यास धकी निवृत्ति पामतो नथी. जेम कोइ |Rel शतकम् भाषांतर १५ अफिण प्रमुखनो व्यसनी होय, ते व्यसनी ते अफिगने एम जाणे छे के, आ अफिण खावाथी घगा माणसोना | सहित J. जीवनां जोखम थाप छ, तथा ते खाता पण कडवू झेर जेवु लागे छे, तथा देखातुं पण काला ठीकरा जेवू खराब ॥१११॥ देखाय छे. अने तेनी सगंध पण अत्तर चंदन जेवी उत्तम नथी. तथा तेना (अफिणना) खावाथी लोकमां पण आवरु इजतनो घटडो देखाय छे. तथा ते खाबाथी काइ उत्तम रसायण जेवो गुण नथी थतो. एटलुंज नही, परंतु शरीर | पण खराब थतुं देखाय छे. वली ते अफिण न मलवाथी कोइ वखत टांटिया घशीने मरवा वखत पण आवे छे; इत्या. | दिक अफिणना अनेक प्रकारना अवगुण जाणे छे, देखे छे, अने अनुभवे छे तोपण तेने मूकी शकतो नथी तेनुं कारण काइक अभ्यास अने कुसंगविना बीजु जणातुं नथी. तेम आ जीवने पण अनादिकालना अभ्यासथी तथा | विषयी जीवोनी सोबतथी, आ पंच प्रकारनां विषयीसुखमां दःख के. एम जाणे के देखे , तथा अनुभवे छे, तो | पण अफिणना व्यसननी पेठे सारं मानी बेठो छे. तेथी एने अनेक प्रकारनां नीचां उंचां रूप करी आ संसारने विषे नाटक करवू पडे छे. वली शास्त्रमा को छे के: __॥ अनुष्टुपवृत्तम् । अवमानात्परिभ्रंशादधबन्धधनक्षयात् ॥ प्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च जाखन्तरशतेष्वपि ॥ १॥ अर्थ-अपमानथी तथा उंची पदवीथी पडवाथी, तथा वध बंध अने धननो क्षय ते थकी शेकडो जातिमा रोग Jain Education Inter 2 010_05 For Private & Personal use only W ww.jainelibrary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥११॥ P ने शोक, आ जोवे भोगव्यां छे. ॥ १॥ आ अधिकार संबंधी श्रीआचारांगजी सूत्रमा विशेष प्रकारे कर्तुं छे, | बैराग्य [D] त्यांची जोइ ले. शतकम् नरकेपु वेदनाः अनुपमाः अमातममुखबहुलयामुताः ॥११२॥ नरएसु वेअगाओ। अणोर्वमाओ असायबेहुलाओ । रेजीव त्वया प्राप्ताः अनंतकृत्वः बहुविधाः रेजीव तए पत्ता । अणंतीवुत्तो बहुविहाओ ॥ ६१ ॥ अर्थ-(रे जीव के०) हे जीव ! (तए के०) ते (नरएलु के०) रत्नप्रभादिक सात नरकने विषे (अगोवमाआ के०) oid उपमा रहित एवीयो (असायधहुलाओ के०) दुःखे करीने भरेली एवीयो, एटले अशाता वेदनीय कर्मथी उत्पन्न थएली एवीयो, अने (बहुनिहाओ के०) बहु प्रकारनी (वेअणाओ के०) वेदनाओ जे ते (अणंतखुत्तो के०) अनंतीवार AI (पत्ता के०) पामी छे. अर्थात तुं भोगवी चुक्यो छे. ॥ ६१ ॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! ते बीजी गतियोमां तो अनेक प्रकारनां दुःख भोगव्यां, परंतु रत्नप्रभादिक नरकोनां | ril दुःख तो कही शकाय तेवां छेज नही ! केमके, तेने विषे अनंती शीत वेदना. ॥ १ ॥ तमेज अनंती उष्ण वेदना, | एटले आपणे अहिंना आकरा धखधखता खेरना अंगारा होय, तेना उपर ते उष्ण वेदनीवाला नारकीना जीवने | वाडे, तो तेने घणीज निंद्रा आवी जाय. ॥ २ ॥ तथा एवीज रीतनी अनंती क्षुधा वेदना, एटले जगतनां रहेला सर्व Jain Education Internet 1010_05 For Private & Personal use only O ww.jainelibrary.org Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥११३॥ K वृतादिक पुद्गलो ते नारकीना जीवने खबराबीए, तोपण तेनी क्षुधा पूरी न पाय. ॥ ३ ॥ तेमज अनंती तृषा. वेदना वैराग्य र एटले जगत्मा रहेला सर्व समुद्रोनां पागों ते नारकीना जीवने पाये तो पण तृषा छोपे नही.॥४॥तेमज अनंती खरज वेदना, शतकम् एटले अनेक प्रकारनां तरवार प्रमुख शस्त्रवडे करीने. ते नारकीना जीवने घर्षण करे, तोपण ते नारकीना जीवनी ॥११३॥ | खरज मटे नही. ॥ ५॥ तेवी रीते अनंती परवशपणानी वेदना एटली वधी छे के, आखा जगत्ना परवशपणानी । | वेदना एकठी करीए, तोपण तेना बरोवर न थाय. ॥६॥ तेवी रीते ज्वर ॥७॥ दाह ॥८॥ भव ॥९॥ अने शोक ॥१०॥ ए चारनी वेदन आखा जगतनी एकठी करीए, ते थकी पण एकेक वेदना अनंतगुणा जाणवी. आवी अनंतगुणावेद नाओ. सात व्यसननो सेवनार प्रमुखने भोगववी पडे छे. जेम के, कोइए परस्त्री संग कर्यो होय, तेने त्या (नरकमा) D तेज स्त्रीना आकार जेबी लोढानी पुतली बनावीने, अने तेने अग्निवडे सारी पेठे लालचोल धखधखनी करीने, ते a स्त्रीनी साथे ते परमाधर्मियो अनेकवार ते पुरुषने बलात्कारे आलिंगन करावे छे. इत्यादिक नरकने विषे अनतगुणी वेदना शास्त्रमा कही छे. तेने विचारीने हे मंदमते ! कांइक तो पाप करतां पाछो ओसर्य ! ॥ ६१ ॥ आ नरकनां दुःखना अधिकारने विशेष जाणवानी मरजी होय तो श्री सूयगडांगसूत्रना प्रथम श्रुतस्कंधना पाठमां नरक विभक्ति अध्ययनने विषे जोइ लेज्यो.. देवत्वे मनुजत्वे पराभियोगत्वं उपगतेन देवते मर्गुअत्ते । पराभिओगत्तणं उवर्गएणं ।। Jain Education Inter 2 010_05 For Private & Personal use only A l Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीषणदुखं बहुविधं अनंतकृत्वः समनुभूतं बैराग्य भाषांतर भीसर्णदुहं बहुविहं । अनंतखुत्तो समणुभूअं ॥ ६२ ॥ शतकम् सहित अर्थ- हे जीव ! (देवत्ते के०) देव भवने विषे, तथा (मणुअत्ते के०) मनुष्य भवने विषे (परोभिओगसणं के०) ||| ॥११४॥ bol परतंत्रपणाने (उवगएणं के०) पाम्यो एवो तुं जे तेणे (बहुविहं के०) बहु प्रकारचें (भीसगदुहं के०) भयानक दुःख |ril ॥११४॥ जे ते (अगंतखुत्तो के०) अनंतिवार [समणुभूअं के०) अनुभव कर्यु छे. ॥ ६२.॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! विशेष ज्ञानवंत एवा देव भवने विषे, तथा मनुष्य भवने विषे पण, स्वतंत्रपणुं मूकीने | परतंत्रपणा वडे, एटले परवशपणे रहीने, अर्थात् इंद्रियोने वश थइने, महामहा कष्ट अनंतिवार भोगव्यां छे. एटले | Marइंद्रियोए जेम जेम तने नचाव्यो, तेम तेम तुं नाच्यो, ने तेथी महा भयानक दुःखने पाम्यो; परंतु ते इंद्रियोने तें l वश न करी. माटे ज्यारे त्यारे पण, ते इंद्रियोने वश करीने आत्मसाधनमां वर्तिश, त्यारेज तहारु कल्याण थशे.६२ | तिर्यग्गति अनुप्राप्ताः भीममहावेदनाः अनेकविधाः तिरियेगई अणुपत्तो । भीममहावेगा अणेगविहहा ।। जन्ममरणारघट्टे अनंतकृत्वः परिभ्रांतः जम्ममरणरहहे । अतणवुत्तो परिभंमिओ ॥ ६३ ॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तुं (निरियगई के०) तिर्यच गतिने (अणुपत्तो के०) पाम्यो छे. त्यां (अणेगविहा के०) अनेक | __Jain Education IntelleST 2010_05 For Private & Personal use only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥ ११५ ॥ | प्रकारनी (भीममहावेअणा के०) भयंकर एवी महोटी वेदनाओने महन करतो सतो (जम्मण मरण रहट्टे के०) जन्म | मरणरूप रहेंटने विषे ( अनंतखुत्तो के ० ) अनंतोवार (परिभमिओ के ० ) पणभ्रमण करी आव्यो छे. ॥ ६३ ॥ भावार्थ- हे जीव ! तुं तीर्थच गतिने विषे गयो, यां आगल गधेडादिपणे अवतरीने कुंभारादिकना हाथनां | घणां डफणां खाइ आव्यो छे. वळी घोडा प्रमुखना अवतार धारण करीने घणा कोरडादिकना प्रहार सहन करी आव्यो छे, अने हाथी प्रमुख थइने अंकुशना प्रहार सहन करी आव्यो छे. वली बलद प्रमुखना भवमां घणी परुणीनी आरोना प्रहार खाइ आव्यो छे. वली मांकडां प्रमुखता भवमां घेरघेर शलामो करो नाचीने रोटलाना टुकड पराणे पामवानुं कष्ट सहन करी आग्यो छे. बोकडा प्रतुखना भवमां मरणांतकष्ट सहन करी आव्यो छे. वली पोपट | प्रमुखनाभवमां पांजरादिकने विषे बंधनकष्टने सहन करी आव्यो छे. अर्थात् एवं कोइ दुःख नथी के, जे दुःखने तें | सहन नथी कर्यु ! ! ए प्रकारे अनंतीवार घोर महा भयानक दुःख तें सहन कर्या छे. माटे हवे एवं धर्मसाधन कर के, जेथी तेवां दुःख भोगवां पडे नही. ॥ ६३ ॥ यावति कान्यपि दुःखानि शारीराणि मानसानि च संसारे जीवंति केंवि दुक्खा । सांरीरा माणसा व संसारे || जीवः संसारकांतारे । जीवो संसारंकतारे || ६४ || Jain Education Inter102010_05 प्राप्ताः पैचो अनंतकृत्वः अनंत भाषांतर सहित ॥११५॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ।।११६ ।। Jain Education Intern अर्थ - (जीवो के०) जीव जे ते (संसारे के०) संसारने विषे (सारीरा के०) शरीर संबंधी (ब के०) वली (माणता) मन संबंधी (जावंति के०) जेवलां (केवि के०) कोइ पण (हुक्खा के०) दुःख छे, तेने (संसारकनारे के०) सस:ररूप अटवीमां परिभ्रमण करतां आ जीव सर्वे दुःख सहन करो आव्यो छे. ॥ ६४ ॥ भावार्थ - आ संसारने विषे दुःख वे प्रकारनां छे, एक शरीर संबंधी रोगादिके करीने दुःख छे, अने बीजुं मन | संबंधी इष्ठ वस्तुना वियोगादिक थकी दुःख छे. ते सर्वे दुःख आ संसाररू अश्वीने विषे भ्रमण करना, आ जीवे अनंतीवार भोगव्यां छे. ॥ ६४ ॥ तृष्णा अनंतकृत्वः संसारे तादृशी तव आसीत्नर के हा अतखुतो । संसारे तारिसी तुम आसी ॥ यां तृष्णां प्रशमितुं सर्वोदधीनां उदकं न तीरीकुर्यात् न समर्थभवेत् ॐ पर्समे वो । दहीमुदयं ने तिरी ॥ ६५ ॥ अर्थ - हे जीव ! (तुमं के० ) हने (एहा के०) तृष्णा. अर्थात् तृषा (तारिसी के०) ते प्रकारनी (अनंतखुत्तो के ० ) अनंतीवार (संसारे के०) नरकरूप संसारने विषे (आसी के०) उत्पन्न थइ हती. (जं के०) जे तृषाने (पसमेउं के० ) शमाववाने अर्थे (सव्वोदहीणं के० ) सर्व समुद्रोनुं पण ( उदयं के०) जल जे ते (नीरिजा के ० ) नं समर्थ था !!!||६५॥ आ प्रकारनो अर्थ प्रथम नरकनी वेदनामां कही गया छोए, माटे पुनरुक्ति दोषनुं निवारण करवा माटे आ 2010 05 भाषांतर सहित ॥ ११६ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य भाषांतर सहित | ॥११७॥ | प्रकारनो भावार्थ जाणवो. के हे जीव ! तने अनंती तृष्णा उत्पन्न थइ ठे, ते तृष्णा शमाववाने माटे, सर्व समुद्रोनां STORIES/ पाणीनां बिंदु जेटलां धनादिकवडे पण तहारी तृष्णा पूरी थाय नेम नथी. को छे के: यत्पृथिव्यां वी हियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ॥ नालमेकस्य तत्सर्व । मिति पश्यन्न मुह्यति ॥ १ ॥ ॥११७॥ अर्थ-सघली पृथ्वीमा उत्पन्न थएली अनेक प्रकारनी डांगेर तथा अनेक प्रकारना घडं अने जव विगरे स | धान्य, जो एक जणने प्राप्त थाय, तो पण तेने धान्य संबंधनी तृष्णा पूरी न थाय. तेमज सघला जगत्मा रहेलं हीरा | | माणेक. मोती, सोनु, रू' विगेरे धन, एक पुरुषने प्राप्त थाय, तोपण ते पुरुषनी धन संबंधिनी तृष्णा पूरी न थाय. | तेमज जगत्ने विषे जेटला हाथी, घोडा, उंट, बलद, गायो, भेशो विगेरे चतुष्पद जीवो छे, ते जो एक जणने प्राप्त थाय, तोपण ते पुरुषनी चतुष्पद संबंधी तृष्णा पूरी न थाय. तेमज जगत्ने विषे रूपालीमा रूपाली देवांगनाओ vel तथा महोटा महोटा राजानी राणीयो तथा महोटा महोटा धनाढ्यनी स्त्रीयो जेवी के, अत्यंत लावण्यवाली अत्यंत रूपवाली, अत्यंत गुणवाली अने संदर सगंधीवाली एवी जवान स्त्रीयो जो एक पुरुषने प्राप्त थाय तोपण, ते पुरुषनी | स्त्री संबंधि तृष्णा पूरी न थाय. ए प्रकारनो विचार करीने जे डाह्यो पुरुष वैराग्यने पामे छे, तेज पुरुष संसारने | | विषे मोह पामतो नथी. l माटे हे आत्मन् ! उपर कह्या प्रमाणे तुं अनंतीवार विषय भोगवी चुक्यो छे, परंतु जे सुखनो तें एक वखत Jad] पण अनुभव नधी कर्यो, एवा आत्म सुखनी प्राप्तिने विषे उद्यम कर ! ॥ ६६ ॥ Jain Education Intern 2010 05 ww.jainelibrary.org Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् للناقلت لي من كلية الفنان भाषांतर सहित ॥११८॥ ॥११८॥ DDDDDramayeताना आसीत् अनंतकृत्वः संसारेनरकभवे तब क्षुधापि तादृशी आसी. अगंतवुत्तो । संसारे ते बुहावि तारिसिया ॥ यां प्रशमयितुं सर्वः पुद्गलकायोपिघृतादिरपि न तीर्यात् न श यात् जं पर्समेउ संयो। पुग्गलकाओवि ने तारिजा ॥६६॥ ___अर्थ-रे जीव ! (संसारे के०) नरक भवरूप संसारने विषे (ते के०) तने (तारिसिया के०) तेवा प्रकारनी वुहावि | के०) क्षुधा पण (अणंतखुत्तो के०) अनंतिवार (आसी के०) उत्पन्न थइ हती के, (जं के०) जे क्षुधाने (पसमेउं के०) शमाववाने (सव्यो के०) सर्व एवा (पुग्गलकाओवि के०) घृतादिरूप पुद्गलना समूह जे ते पण (न तरिजा के०) न 0 न समर्थ थाय ! ॥६६॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! नरक भवने विषे तने एवी क्षुधा उत्पन्न थइ हती के. आ जगत्मा रहेला जे घृतादिक २४ सघला सारा सारा पुद्गलोवडे पण, ते क्षुधानी शांति थाय तेम नहोतुं. एवी क्षुधावेदनी ते परवशपणामां अनंतीवार J सहन करी छे, माटे तने उपदेश करवानो एटलोज छे के, आज स्वाधिनपणामां एकासणुं करवू, अथवा एक उपवास करवो, तेमां पण तने महोटो विचार थइ पडे छे. अने वली तुं एबुं बोले छे के, महाराथी संवत्सरीनो उपवास Pal पण बनी शकवो कठग छे. कारण के, महाराधी तो एक घडिवार पण भूख्युं रहेवातुं नथी. एम कहीने अनेक प्रका रनां सारां सारां भोजन करावी जमे छे. परंतु हे मृढ जीव ! आखो जन्मारो थइने ते केटला मण धृतादिक मिष्ट | الجميعوفنافع Jain Education inter 2 010-05 For Private & Personal use only | Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥११९ ॥ Jain Education Interna | पदार्थो खाधा हशे ? तेनुं सुख लेशमात्र पण आज तने रयुं नही, क्रेमके, जो तुं तहारा हाथे तहारी जीभ उपर हाथ फेरवी जो के, ते घृतादिक पदार्थोनी कांइ पण चिकाश जणाय छे ? अर्थात् नथी जाणती तेमज हवेधी पण तुं अनेक प्रकारनां पाप प्रपंचादिक करीने सारां सारां भोजन करीश, तोय पण पूर्वनी पेठे ते जिवाइंद्रि तृप्त भवानी नथी. अने जिह्वाईदिनु पोषण छे, तेज सर्वे इंद्रियोना पोषणनुं मूल के. एटले जेम वृक्षना मूलमां पाणी नाखीए तो बधा वृक्षमां ते पाणी पसरे, तेम एक जिह्वाईदिने छूटी सुकवाथी बीजी इंद्रियो प्रयासे करीने जीती होय, ते पण कुमार्गे चाले छे. माटे नीतिशास्त्रमा को छे के, "जित सर्व जिते रसे" एटले जेणें रसनाइंद्रिय जीती, तेणे | सघली इंद्रियो जीती जणावी. केन के, रसनेंद्रियने मोकली सूकवाश्री मद्यमांसादिकने विषे पण प्रवृत्ति थाय छे, अने तेथी विषयनी वृद्धि थाय छे. तेणे करीने नरकादिकने विषे जतुं पडे छे. त्यां पूर्व कहेलीक्षुवावेदनी सहन करवी पडे छे तेना स्वरूपने विशेषे जणाववाने माटे फरीथी वर्णन कर्यु छे, माटे तेथी पुनरुक्ति दोष समजवो नही. ।। ६६ ।। । कृत्वा अनेकानि जन्ममरणानां परावर्त्तनशतानि काऊँणम गाई | जम्मणमरणपरियहणसयाई ॥ दुःखेन मानुषत्वं यदि लभते यथेच्छतं सुखं जीवः दुक्खे माणुसतं । जेइ लहेइ जिहित्यं जीवो ॥ ६७ ॥ अर्थ - ( जइ के० ) ज्यारे (जीवो के०) जीव जे ते (अणेगाई के०) अनेक एव ( जम्मण के ० ) जन्म मरण तेनां 010_05 भाषांतर सहित ॥ ११९ ॥ A . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर सहित ॥१२०॥ वैराग्य | (परियट्टण के०) परावर्तन तेनां (सयाई के०) सेंकडो एटले जन्म मरणनां सेंकडो परावर्तन (काऊणं के०) करीने | शतकम् Jt (दृक्खेणं के०) दुःखे करीने (माणुसत के०) मनुष्यपणाने पामे छे, त्यारे (जहित्थियं के०) यथा इच्छा प्रमःणे. एटले | | पोतानी इच्छा प्रमाणे कुशलपणाने (लहइ के०) पामे छे. ॥ ६ ॥ ॥१२०|| भावार्थ-रे आत्मन् ! अनंत एवां जन्म मरणनां संकडो एटले क्यारेक जन्म, क्यारेक मरण, ए प्रकारनां दुःख सहन करीने, ज्यारे आ जीव मनुष्यपणाने पामे छे, एटले अकाम निर्जरा अने भवस्थितिनुं परिपकपणुं इत्यादिक कारण वडे करीने मनुष्यपणाने पामे छे, त्यारे तेने जोइती चीज मली शके छे. एटले देवताना सुखने आपनारो, तथा मोक्षना सुखने आपनारो आ मनुष्यभव छे. परंतु मनुष्यभव विना कोइ भव वडे सुखनी प्राप्ति थइ शकतो | नथी. एटलाज माटे ज्ञानी पुरुषोए सर्व भव करता आ मनुष्यभवने जगतमा उत्तम गण्यो छे. अने दश दृष्टांते करी दुर्लभ पण एटलाज माटे कयो छे. आ दश दृष्टांतनु स्वरूप प्रसिद्ध छे माटे, तथा ग्रंथ विस्तार थवाना भयथी | लख्यु नथी, माटे आवा मोंघामां मोंघा मनुष्यभवने पामीने एळे गुमावी अवसर चुकवो नही. ॥ ६७ ।। तन्मनुष्यजन्म तथादशदृष्टांतवत् दुर्लभलाभं विद्युल्लताचंचलं च मनुजत्वं तें तहदुल्लहलंभं । विजुलयाचंचलं च माणुयत्तं ॥ धर्मे यः विषीदति सः कापुरुषः न सत्पुरुषः धम्ममि जो विसीयइ । सो काउरिसो नै सपरिसो ॥ ६८ ॥ Jain Education Inter 2010-05 For Private & Personal use only w ww.jainelibrary.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित अथ-(जो के०) जे पुरुष (तह दल्लहलंभ के०) तथा प्रकारे एटले चुल्लकादि दश दृष्टांते करी दुःखे पामवा योग्य | पैराग्यRe एg (च के०) वली (विज्जुलया चंचलं के०) विजलीरूप लतानी पेठे चंचल एवं (तं के०) ते. एटले ते योग्य एवं नमो शतकम् भाषांतर I (मणुयत्तं के०) मनुष्यपणुं, तेने पामीने (धम्ममि के०) धर्मने विषे (विसीयइ के०) खेद पामे छे. (सो के०) ते (काउ- JI ॥१२॥ TOMIरिसो के०) कुत्सित (निंदित) पुरुष जाणवो. पण (सप्पुरिसो के०) सत्यपुरुष (न के०) न जाणवो. ॥ ६८ ॥ ॥१२१॥ भावार्थ-जैनशासनमां प्रसिद्ध एवां दश दृष्टांते दुर्लभ एवो, अने विजलीना झवकारानी पेठे क्षणभंगुर एवो hdl I ने जेमां कोइ प्रकारनी पण खामी नथी एवो एटले आ मनुष्यनो भव अढीदीपमां थयो, तेमा वली कर्मभूमीमां || Jथयो, तेमां बली आर्य देशमा थयो, तेमां बली उत्तम कुलने विषे थयो, तेमां वली अविकल पंचेंद्रिये पूर्ण थयो, I तेमां वली निरोगी काया पाम्यो, अने तेमां वली सद्गुरुनो अने सत् शास्त्र सांभलवानो जोग बन्यो; तेम | छतां पण जे पुरुषो, धर्मसाधन करवामां प्रमाद करे छे, ते पुरुषो निंदा करवा योग्य थाय छे. पण ते सत्पुरुषोनी पंक्तिमा गणवालायक थता नथी. माटे हे जीव ! पूर्वे अनुभव करेला पशुपणाना स्वभावने मूकी देइने मनुष्यभवने । लेखे लगाडवामां उद्यम कर. ॥ उपजाति वृत्तम ॥ मानुष्यजन्मनि तटेसंसारममुद्रस्य लब्धमति जिनेंद्रधर्मः न कृतः च येन माणुस्सजम्में तडि लद्वयंमि । जिगिदधम्मो में कैो ये जेणं ।। DEDDCDDCDDPSPSC JainEducation International 2010_05 For Private & Personal use only Acw.jainelibrary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकर ॥१२२॥ त्रुटिते गणे यथा धानुष्केण हस्तौ धृष्टव्यौ तथा च अवश्यं तेन तुझे गुंणे जैह धाणुकएणं । हत्या मले। ये अस्त तेणं ॥ ६९ ॥ | भाषांतर | सहित ___ अर्थ-(जेणं के) जेणे (तडि के०) संसाररूप समुद्रना काठारूप (माणुस्सजम्मे के०) मनुष्य जन्म (लद्वयंनि l | के०) पामे सते (जिणिदधम्मो के०) जिनेंद्रनो धर्म जे ते (न कओ के०) नथी कर्यो (तेणं के) तेणे अर्थात् तेने (य ! ॥१२२॥ के०) पण (जह के.) जेम (घाणुक्कएणं के०) धनुर्धारि पुरुष जे तेणे अर्थात् तेने (गुणे के०) पणछ (तुट्टे के०) तृटे | सते (अवस्स के०) निश्चे (हत्या के०) हाथ (मलेव्वा य के०) घसवा पडेज छे. तेम आ जीवने पण हाथ घसवा पडे | JA छे. एटले पछी घणो पश्चात्ताप करवो पडे छे. ॥ ६८ ॥ भावार्थ-अनंता भवरूप समुद्रमां भटकतां भटकतां मनुष्य जन्मरूप कांठो प्राप्त थए सते पण जेणे अहिंसा-55 | रूप जिनधर्म न आचरण कर्यो, तेने; जेम रणसंग्रामनां युद्धकरवा गएला एक धनुर्धारी पुरुषना धनुष्यनी पणछ तृटी | | गइ, तेथी तेने जेम हाथ घसवा पड्या, तेम तहारे पण हाथ घसवा पडशे. माटे हे जीव ! जो तुं पण छती सामग्री सते जिनधर्मरूप भातुं नहि ग्रहण करे, तो तहारे पग मरणवस्थाए पश्चात्ताप करवोज पडशे. ते आ प्रकारे के, " अरेरे ! में छती सामग्रीए पण आ शुं कर्यु ! ! ! के, परलोके जतां धर्मरूप भातुं कांइ पण लीधुं नहीं ! माटे हवे शुं करीश! एवी रीते तहारे हाथ घसवा पडशे. वली जेम आ भवमां थोडो काल रहेवा माटे कोइ पुरुष ज्यारे परदेश जवानो होय, त्यारे ते पुरुष प्रथमयी भाता विगेरेनो एटलोवधो बंदोबस्त करी राखे छे के. अमक जग्याए |J01 Jain Education Intel 12010.05 Joww.jainelibrary.org Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् महिन उतरीशुं, ने त्यां अमुक भोजन करीशं. एवी रीतनो ठराव करीने पछी पोतानी साथे भातादिक घगी सामग्री लेडने । जाय छे. पण भातुं लीधा सिवाय जतो नधी. तेम तहारे तो अहिंथी मरीने क्या जवु पडशे ? ने त्यां केटला दिवस भपां t रहेवू पडशे ? अने कोने त्या जइने उतारो करवो पडशे ? अने मार्गमा भातुं लीधा विना शुखाइशुं ? इत्यादि ॥१२३॥ Vil परलोक संबंधी तने कांइ पण विचार थतो नथी ! माटे हे मृढ जीव ! सर्व दुःख मात्रने निवारण करनार अने मनो || ॥१२३।। Ind वांच्छित सुखने आपनार एबुं धर्मरूप भातुं संगाथे राख्य. ॥ ६९ ॥ ॥ पद्धरीवृत्तम् ॥ रे जीव नितरांश्रृणु चंचलस्वभावन् मुक्त्वा परलोके यास्यति सकलान् अपि बाह्यभावन तथा रेजीव निसुणि चंचलसहाव । मिल्हेविणु सयलवि बज्झभाव ॥ नवभेदपरिग्रहस्य यत विविधजालंसमुह अतःसंसारे अस्तियत सर्व तत इंद्रजालमिवासदस्ति नवभेयपरिग्गह विविहजाल । संसारि अस्थि सेहु इंदयाल ॥ ७० ॥ अर्थ-रे जीव के०) हे जीव ! तुं (निसुणि के०) सांभल्य के जे, (चंचल सहाव के०) चंचल स्वभाववाला * (सयलवि के०) सर्व एवाय पण (बज्झभाव के०) शरीरादिक बाह्यभावने तथा (नवभेयपरिग्रह के०) नव भेदवाला परिग्रहनो (विविहजाल के०) अनेक प्रकारनो समूह तेने (मिल्हेविणु के०) मूकीने परलोके जइश. ए हेतु माटे | (संसारि के०) संसारने विषे (अस्थि के०) जे शरीरादिक देखाय छे, (सहु के०) ते सघलं (इंदयाल के०) इंद्रजाल توقف فالحه ليك ولحون السوداني في الحالا ___Jain Education intende .101005 ATEw.jainelibrary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ १२४॥ समाम ले ॥ ७० ॥ भावार्थ - हे आत्मन् ! तहारु हितकारी एवं आ एकवाक्य सांभल. आ देखातो शरीरादिक सघलो बाह्यभाव छे, इंद्रजाल समान छे, एटले नव प्रकारनो परिग्रह* ते सघलो चंचल स्वभाववालो छे. एटले क्षणमा देखाय अने क्षणमां नाश पामी जाय एवो छे, एटलुंज नहि पण संसारमा जे जे वस्तु देखाय छे, ते सर्वेने तुं इंद्रजाल समान जाणीने ते विषे मोह ममत्व न कर कारणके, ते सघला बाह्यभावने मूकीने तु एकलोज परलोकमां जईश, पण पूर्वेकही तेमांनी कोइ वस्तु पण तहारी साथे आववानी नथी. केमके, ते सर्वे वस्तुताए असत् छे, माटे तेने तु सत्यपणानी भ्रांति न करीश. ॥ ७० ॥ पियपुतमित्तघरघर णिजाय । इहलोईअ सं पितृपुत्रमित्र गृहगृहिणीनां जातं समूहः ऐहलौकिकं सर्व निजम्य शुभे कल्याणे सहायं निमित्तं नियसुहसहाय ॥ न अपीतिने अस्ति कोपि तब शरणेत्राणे हे मूर्ख एकाक्येव सहिष्यसे तिर्यक्नरकदुःखानि विथि कोई तुर्ह रणि मुक्खे | इल्लु सर्हसि तिरिनिर्रयदुक्ख ॥ ७१ ॥ अर्थ - (मुक्रवं के०) हे मूर्ख ! [इहलोइअ के० ] आ लोक संबंधी [ सव्वं के० ] सर्व एवो [पिय के० ] पिता [ पुत के०) पुत्र [मित के० ] मित्र [घर के० ] गृह [घरणि के० ] स्त्री, तेमनो [जाय के० ] समूह जे ते [निय सुह सहाय के० ] * १ धन. २ धान्य. ३ क्षेत्र. ४ घर. ५ सुवर्ण ६ रुपु. ७ त्रांबु पित्तल ८ द्विपद. ९ चतुष्पद. Jain Education Int 2010-05 भाषांतर सहित ॥ १२४॥ . Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यK पोताने सुख करवानो के स्वभाव ते जेमनो एवो छे. एटले सौ पोतपोताना सुखना अर्थी छे. पण (तिरि तिरय भाषांतर | दुक्ख के०) तिर्यंच तथा नरक ते संबंधी दुःख. तेने (इक्कल्लु के०) तुं एकलोज (सहसि के०) सहन करे छे, पण ते सहित ||६|| ववत तेमानें (तुह के०) तहारे (सरणि के०) सरण करवा योग्य (कोई वि के०) कोइपण (न अस्थि के०) यतुं | ॥१२५॥ Pil नथी. ॥ ७१ ॥ ॥१२॥ ___भावार्थ-आ जगत्मा परलोकने विषे काइ पण सहायता करवाने न समर्थ एवां माता पिता स्त्री पुत्रादिक सौ पोत पोतानां स्वार्थी छे, पण कोई कोइनु नथी. जेमके. उपर लखेलां घरनां माणसोने एवो निश्रय थाय छे के, | हवे आ पथारीमा सवारेलो माणस जीवशे नही, ए, धारीने ते मृतेला माणसने महा भरपूर वेदनामां तरफडनो नजरे जोइने पण कहे छे के, तमे मने कांइ कहो छो? एटले तमे छानी रीते संचय करेल, आपेलं, मूकेलं, दाटेलं, nail कांइ देखाडो छो ? एवी रीते पोतानो स्वार्थ साधवानी वातो करे छे. तथा तेना मरी गया पछो पण केवल पोतानो hd | स्वार्थ संभारी संभारीने रुए छे के, आटलु काम अधुरं मूकीने गयां ! पण तेओ एम नथी विचारतां के, ज्यांची स- ia मजणो थयो त्यांची मोडीने चोके सूतां सूधी पण एणे आपणुं वैतरुं कूट्यां कयु छे. परंतु ते बापडो नरकादिक गतिने A. विषे एकलो गयो छे, त्यां तेने केवां दुःख पडता हशे ? तथा ते बिचारो घणुं द्रव्य मूकीने गयो छे ! पण तेना बीजा दुःखमां भाग न लेतां फक्त तेनुंज द्रव्य तेनी पछवाडे शुभ कृत्यमां वापर, एवो विचार पण नथी थतो. अने वली आवो विचार पण तेमने नथी यतो के, अरेरे ! रात्रि दिवस पोताना शरीरनं स्ख पण न विचारतां कड कपट Jain Education Interier 2010 05 For Private & Personal use only W ww.jainelibrary.org Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ان القانون छलभेद अन्यायादिक करीने एणे आपणुज भरणपोषण कयु छे, पण पोताना परलोकनुं साधन करवानो अवकाश बैराग्य भाषांतर जरापण एणे लीधो नथी. एवी रीते कोइ रुदन करतुं नथी. माटे हे जीव ! हे महामूर्ख !! काइकतो विचार्य !! शतकम् |सहित IV के, हुं आश्रवभावमांथी निवृत्ति पामीने काइकतो सरभावमा वर्तु।। ७१ ॥ ॥१२६॥ ॥ मागधिकावृत्तम् ।। ॥१२६॥ कुशाग्रे यथा अवश्यायो हिमबिंदुकः स्तोकं तिष्ठति लबमानः कुसंग्गे जेह उसबिंदुए। थोवं चिठेइ लंबमाणए । एवं मनुजानां जीवितं. समयमपि हे गौतम या प्रमादि एवं मणुाण जीवियं । समयं गोथम भा पमायए ॥ ७२ ।। अर्थ-(जह के०) जेम (कुसग्गे के०) डाभना अग्रभागने विषे (उसबिंदुए के०) झाकलनो बिंदु जे ते (लंयमाणए | के०) लायो धतो सतो एटले वायु वडे पडवानी तैयारीमा आवेलो (थोवं के०) थोडो काल (चिठह के०) रहे छे. # (एवं के०) ए प्रकारे (माणुआण के०) मनुष्य जे तेमनु (जीवियं के०) जीवित जे ते चंचल जाणवू. माटे श्रीमहावीरMarl स्वामी गौतमस्वामी प्रत्ये* कहे छे के, (गोयम के०) हे गौतम ! (समयं के०) एक समयमात्र पण (मा पमायए के०) Id al प्रमाद न करीश. ॥ ७२ ॥ * आ वार्ता श्री उत्तराध्ययन सूत्रना दशमा अध्ययनमा छे, त्यांधी विस्तारना अधि पुरुषोए जोह लेष. नाउDONDDODCOLal ن قلا عن الله و انا من قبل Puppeddapaller ww.jainelibrary.org Jain Education Internet 1010_05 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य भावार्थ-श्री महावीरस्वामी गौतम मन्ये कहे छे के, हे गौतम ! एक समयमात्र पण प्रमाद न करीश: केमके | शतकम् 15/ आ मनुष्यपणानुं जीवQ डाभना अग्रभागमा रहेला जलविंदुनी पेठे, थोडोज काल रहे तेवू छे, एटले जोतां जोतां || तर सहित 15 अल्प वायुवडे पण शीघ्रपणे नाश पामे तेवं छे. अर्थात डाभना अग्रने विषे रहेला जलविंद तो, फक्त वायवडेज || ॥१२७॥ ||1|| नाश पामे छे; परंतु आ मनुष्य तो अनेक प्रकारना कारणोथी मरे छे. जेम के, ताव आववाथी, मुंझारो थवाथी, || ॥१२७॥ कोलेरा (कोगलियु) आववाथी, घर पडवाथी, अग्निवडे बलवाथी शस्त्र प्रमुख वागवाथी, सर्प करडवाथी, इत्यादिक Ki अनेक प्रकारनां कारणो मलवाथी ओचिंतो नाश पामे छे. एम जाणीने हे जीव! धर्मकृत्लने विषे समयमात्रनो प्रमाद न कर ॥ ७२ ॥ आ ७३ तथा ७४ मी ए बे गाथाओ श्री सूयगडांग सूचना प्रथम श्रुतस्कंधना वैतालीय अध्ययननी छे. संझुध्यध्वं किं न बुध्यध्वं संबोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा संबुझेह किं नै बझह । संबोहि खैलु पिच्च दुल्लहा ।। न एव उपनमंति आगत्यंति रात्रायोऽतीताः नो मुलभं पुनरपि जीवितं 'नो हूँ ओवर्णमंति रईओ। नो सुलह पुर्णरवि जीवियं ॥७३॥ अर्थ-श्रीऋषभदेव स्वामीना पुत्र श्रीभरतेश्वर, तेमणे तिरस्कार कर्या एवा, पोताना अठाणु पुनो प्रत्ये श्री | आदीश्वर भगवान उपदेश करे ठे, अथवा श्रीमहावीरस्वामी पर्षदा प्रत्ये कहे छे के, (संबुज्नह के०) अहो भव्यो ! dl JhULU... DUCbDULHDLAURE JainEducation InternatNC010_05 For Private & Personal use only JALAIJu.jainelibrary.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाय. तमे वुझो. (बोध पामो.) (किं न बुझह के०) केम तमे बोध नथी पामता ? जे हेतु माटे जेमणे धर्म नथी को ते AEL पुरुषोने (पिञ्च के०) मरण पाम्या पछी परभवने विषे (संयोही के०) बोधिबीज जे ते (खलु के०) निश्चे (दुल्लहा के०) | THE भाषांतर शतकम् सहित Irel दुर्लभ छे. शाथी के, (राहओ के०) रात्री दिवस जे ते (हु के०) निश्चे (उवणमंतिनो के०) गयेला पाछां आवतां ॥१२८॥ | नथी. तेम (जीवियं के०) जीवित जे ते (पुणरवि के०) फरीने पण एटले फरी फरी (सुलहं नो के०) सुलभ नथी. | ॥१२८॥ 3) एटले संयमरूप जीवित घणुं दुर्लभ छे. अथवा (जीवियं के०) जवित जे ते अर्थात् तूटेलं आउखु जे ते (पुणरवि || DUI के०) फरीने पण सांधवू (सुलहं नो के०) सुलभ नथी. एटले तृटेलं आउखुं सांधवाने कोइ पण समर्थ नथी. ॥४३॥ भावार्थ-हे भव्य जीवो ! तमे ज्ञान दर्शन चारित्ररूप धर्मने जाणो. कारणके, आवो अबसर फरी फरीने od मलवो दुर्लभ छे, माटे घणी सामग्री सते पण, केन बोध पामता नथी ? अर्थात् भोगने तुच्छ जाणी तेनो त्याग KE करीने सद्धर्मने विषे बोध पामो. कहुं छे के: ॥ शादलविक्रीडितवृत्तम् ॥ निर्वाणादिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते । लब्धे स्वल्पमचारु कामजसुखं नो सेवितु युज्यते ।। वैडूर्यादिमहोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे। लातुं स्वल्पमदीप्ति काचशकलं किं चोऽचितं सांप्रतम् ॥१॥ अर्थ-मोक्षादिक सुखनो आपनार एवो, मनुष्यनो भव मले सते, तेमां वली जिनराजनो धर्म मले सते, तहारे लगारमात्र पण काम सुख सेवq घटतुं नथी, केमके. ते अल्प छे, अने ते सुखनो परिणाम सारो आवतो नथी. مواليد العون لك قلت لك لا Jain Education Interne 010_05 For Private & Personal use only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैराग्यते उपर दृष्टांत कहे छे के, जेम वैडूर्यादि रखनो समूह जेमा रह्यो छे, एवा रत्नाकरने पामीने एटले रत्ननी खाण hd भाषांतर शतकम् पामीने कांतिरहित एवो, अने वली अल्प मूल्यवालो एवो काचनो ककडो लेवो शुं तहारे घटे छे ? अर्थात् पूर्व | Rel माहित t| कह्यो एवा रत्नाकरनो त्याग करीने, तेने बदले काचो ककडो लेवो ते, घटेज नहीं, तेम अतिशे अल्प अने तुच्छ |J ॥१२९॥ II एवा विषयसुखने अर्थे रत्नाकर समान जिनधर्मनो त्याग करवो, ते पंडित पुरुषने घटे नहीं. वली जेणे धर्मकृत्य नथी | || ॥१२९॥ कयु, तेने परभवमा संजमरूप जीवित मलतुंज नथी. वली गएला एवा, जे धर्मसाधन करवाने योग्य एवा, रात्री R दिवस जे ते, तथा यौवनादिक काल इत्यादिक पाछां आवतां नथी. केमके, इंद्रादिक- पण त्रुटेलं आयुष्य पार्छ संघातुं नथी. माटे एq जाणीने रात्री दिवस धर्मनुं आराधन करवू. ॥ ७३ ॥ हवे सर्व संप्सारी जीवने आयुष्यनु अनित्यपणुं देखाडे छे. बालाः वृद्धाः च पश्यन गर्भस्था अपि त्यति मानवाः डहेरा बुढ़ा ये पासंह । ग_त्यावि चयं ति माणवा ॥ उयेनः यथा वर्तकंतितीरि हंति एवं आयुक्षये त्रुट्यतिनीवितं सेणे जह वट्टयं हेरे। एवमाऽऽवयंमि तुर्दैई ।। ७४ ।। अर्थ-हे आत्मन् ? (डहरा के०) बाल एवा (य के०) वली (बुट्टा के०) वृद्ध एवा, वली (गज्झत्थावि के०) गर्भने विषे रहेला एवाय पण (माणवा के०) मनुष्य जे ते (चयंति के०) नाश पामे छे. (पासह के०) तेने तुजो. वली (जह __Jain Education internN E10_05 For Private & Personal use only Jainelibrary.org Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् भाषांतर सहित ॥१३०॥ ! ॥१३०॥ 調調就能調調兆兆兆美美美帝 | के०) जेम (सेणे के०) शिंचागो पक्षी जे ते (वयं के०) तेतर पक्षीने (हरे के०) हरण करे छे. अर्थात् शीघ्रपणे मारे छे. (एवं के०) ए प्रकारे (आउक्खयंमि के०) आउखानो क्षय थये सते (तुट्टई के०) त्रुटे छे. एटले क्षणे क्षणे आयुष्य नाश पामे छे, अथवा मृत्यु जे ते जीवितने हरे छे. ॥ ७४ ॥ भावार्थ-हे जीव ! तुं विचारीने जो के, केटलाएक मनुष्य गर्भमा रह्या थकाज मरण पामे छे, अने केटलाएक महाकष्टे करीने जन्म थया पछी बालपणामांज मरण मामे छे, अने केटलाएक जवान अवस्थामांज पोतानी स्त्रीआदिक वहालां पदार्थोने अणइच्छाए मूकीने मरण पामे छे, अने केटलाएक तो वृद्धावस्थानां दुःख भोगवतां भोगवतां पराणे पराणे पग घसीने मरण पामे के. वली आ जग्याए मानव शब्द ग्रहण कर्यो छे, तेनं ए कारण के के उपदे करवा योग्य होय, तेनेज मनुष्य कहीए. परंतु जे उपदेश देवा योग्य न होय, तेने तो मनुज्यनी पंक्तिमा न गणवा एम ग्रंथकारनो, अभिप्राय छे. वली मनुष्यनुं आयुष्य अनेक प्रकारनां कारणो मलवाथी घणुंज चंचल छे, एम जणा घवाने अर्थ सर्वे अवस्थामां मरण देखाड्युं छे. वली श्रीसयगडांगसूत्रना प्रथम श्रुतस्कंधना बीजा वैतालीय अध्य| यननी बीजी गाथानी दीपिकामां तथा टीकामां कह्यु छे के: त्रिपल्योपमायुष्कस्यापि पर्यापत्येनन्तरमन्तंमुहूर्त्तनैव कस्यचिन्मृत्युरुपतिष्ठतीति. अर्थ-त्रण पल्योपमना आयुष्यवालाने पण, पर्याप्ति पाम्या पछी अंतर्मुहूर्ते करीने कोइक पुरुषने मृत्यु जे ते प्राप्तथाय छे वली श्री ठाणांगजी मूत्रना मातमा ठाणामां को छे के, Jain Education Intern 2010_05 For Private & Personal use only Jw.jainelibrary.org Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य मत्त विहे आउ भेदे. पन्नते तं जहा. भाषांतर शतकम् ॥ आर्यावृत्तम् ।। | सहित अज्झापसाण निमितं आहारे वेयणा पराघाए । फासे आणापाणू । सलविहं भिद्यए ओऊ । १॥ ॥१३॥ अर्थ-आयुष्यनो भेद एटले उपक्रम जे ते, सात प्रकारनो कह्यो छे. केमके, निमित्तनुं पामवापणुं छे ए हेतु ॥१३१।। Iril माटे. हवे ते सात भेदे देखाडे छे. सराग स्नेहना भययकी एटले कोइना उपर अत्यंत स्नेह होय, तेवामां तेनो नाश | सांभलवाथी उत्पन्न भयो जे भय, तेथी आउखु त्रुटे छे. एम आगळ पण संबंध जोडवो. ॥ १॥ वली दंड शस्त्रादिकना ओचिंता घातथी. ॥ २॥ तथा अत्यंत आहार करवाथी. ॥ ३ ॥ तथा नेत्र अने शूगादिकनो वेदनाथी. ॥ ४ ॥ ३५ | तथा परघातकी एटले गर्भपातादिकथी. ॥५॥ तथा तरेहवारना सादिक ६ || अने श्वासोच्छवासने TG| रंधवाथी. ॥ ७॥ एम सात प्रकारे आउखुं भेदाय छे. अथवा उपक्रम के कारण ते जेन, एवं आउखुं तेज पूर्वे Ka कहेला निमितथी त्रुटे छे. आ पूर्वे जे कह्यं ते सोपक्रम आउखावालानेज आश्रीने जाणवू. पण निरुपक्रम आउखा- 1 वालाने आश्रीने न जाणवू केमके, आउखं बे प्रकारे बंधाय छे. एफ सोपक्रम कर्मथी अने बीजं निरुप कर्मथी बंधाय | छे. तेमां जे सोपक्रम (शिथिल) वालं आयुष्य छे ते निमिन पामवाथी त्रुटे छे अने निरुपक्रम (निकाचित) वालं | आयुष्य छे, ते कदिपण त्रुटतुं नथी. | वली जेम शिंचाणो पक्षी तेतर पक्षीने ओचितो झाली ले छे, अर्थात् नाश करे छे. तेम आउबुं क्षय थए सते Radiodoes ___JainEducation intendC 010-05 For Private & Personal use only Jow.jainelibrary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर शतकम सहित ॥१३२॥ ॥१३२॥ जीवित पण नाश पामे छे. माटे एबुं जाणीने एटले क्षणमात्र जीववानो विश्वास न राखीने धर्मसाधन करवामां सावधान था. ॥ ७४ ॥ ॥ आर्यावृत्तम् ॥ त्रिभुवनजनान् म्रियमाणान् दृष्ट्वा भापयंति ये न आत्मानं धर्मे तिहुयणजगं मरतं । दलँग नयंनि जे ने अप्पाणं ।। निवर्तते न पापत् धिकधिक धृष्टत्वं तेषां विरमंति ने पाबाओ । 'धीधी भीत्तणं ताणं ।। ७५ ।। अर्थ-(जे के०) जे पुरुष (मरंतं के०) मरतो एवो (तिहुयणजगं के०) त्रण भुवनना जनने (दगुण के०) देखीने | | (अप्पा के०) आत्माने (न नयंति के०) धर्मने विषे जोडता, अने (पावाओ के०) पापथकी (न विरमंति के०) नथी | | विराम पामता (ताणं के०) तेमना (धी तणं के०) धिठहपणाने एटले निर्लजपणाने (धीधी के०) धिक्कार थाओ ! | धिक्कार थाओ !! ॥ ७५ ॥ | भावार्थ-स्वर्ग मृत्यु ने पाताल ए प्रकारे त्रग लोकना रहेनारने, अर्थात् सर्व संसारी जीवने, मरता देखोने pril अने जाणीने पण पोताना आत्माने धर्मने विषे नथी जोडता, तथा हिंसादिक थकी निवृत्ति नथी पामता, अर्थात् जे RI कल्यथी पाप बंधाय छे, तेवा कृत्यथी पाछा नथी ओसरता, तेवा निर्लज जीवोना धिठइपणाने धिक्कार थाओ! धिक्कार | थाओ ! ! एम अतिषे धिक्कारपणुं जणाववाने म.टे वेवार धिक्कार शब्द कयो छे. ॥ ७ ॥ Jww.jainelibrary.org Jain Education Inter 2 010_05 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥१३३॥ माम जल्पत बहुलं ये बद्धाः चिकणैः कर्ममिः भाषांतर मामा जंपह बहुयं । जे बद्धा चिक्कणेहि कम्मेहिं ॥ सहित सर्वेषां तेषां जायते हितोपदेशः महादोषः वा महाद्वेष संवेसि तेसि जायेइ । हियोवेएसो महोदोसो ॥ ७६ ॥ ॥१३३॥ अर्थ-अयोग्य शिष्योने कृपाथी उपदेश करता गुरुने जोइ, योग्य शिष्यो गुरु प्रत्ये कहे छे के, हे गुरो ! (जे के०) जे पुरुषो (चिक्कणेहि के०) चिकणां एवां (कम्मेहिं के०) कर्मे करीने (बद्धा के०) बंधाया छे, तेमने (यहुयं के०) Kal | घणो (मामा जपह के०) उपदेश न करो, न करो ! केमके, (तेसि के०) ते (सम्वेसि के०) सर्वे अयोग्य शिष्योने ३ (हियोवएसो के०) हितोपदेश जे ते (महादोसो के०) महादोषवालो. अथवा महाद्वेषवालो (जायइ के०) थाय छे. ____ भावार्थ-अयोग्य शिष्यने वारंवार बोध करता देखीने अचार्यमहाराज प्रत्ये मुनियो जे ते, विनंतो करे छे के, 10 | हे भगवन् ! आप तो करुणासागर छो. परंतु काला निविड पत्थर जेवा, आ खल शिष्योने आप गमे तेटलो पति | बोध करशो तोय पण तेओ प्रतिबोध पामवा कठण जणाय छे. केमके, जे प्राणीयो ज्ञनावरणीयादिक निविड करें | 3 करीने बधाणा छे, ते प्राणीयो धर्मोपदेश देवाने योग्य नथी. जेम काचाघडामां नांखेलं पाणी ते पोते नाश पामे छ । अने घडाने पण नाश पमाडे छे, तेम अयोग्य जीवोने बोध करेलु सिद्धान्त रहस्य जे ते, नाश पामे छे. अने ते अयोग्य शिष्य पोताना आत्माने पण नाश करे छे. अथवा ते अयोग्य शिष्योने उपर देव थाय छे. ते कय के केः Jww.jainelibrary.org. Jain Education Inter 2 010_05 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥१३४॥ उपदेशों हि मूर्खाणां । प्रकोपाय न शान्तये ।। पयःपानं भुजङ्गानां केवलंविषवर्द्धनम् ।। १ ॥ ___ अर्थ-मूर्ख जीवोने करेलो हितापदेश जे ते, प्रकोपने अर्थे थाय छे. एटले उपदेश देवाथी उलटो गुरु उपर | भाषांतर सहित | कोप करे छे. जेम सपने जे दधपावं. ते केवल झेरनं वधारवं छे. एटले ते सर्प जेम जेम दध पीए छे, तेम तेम तेने 1561 | झेर वधतुं जाय छे. ए रीते मूर्खने जेम जेम हितोपदेश करे छे, तेम तेम ते मूर्ख द्वेष वधारतो जाय छे. ॥१॥ । ॥१३४॥ माटे तेवा अयोग्य जीवोने उपदेश देवो ते व्यर्थ छे. अर्थात् विपरीतपणाने पामे छे. ॥ ७६ ॥ करोषि ममत्वं धनस्व जनविभवप्रमुखेष अनंतदुःखकारणेषु कुणसि ममत्वं धणसय । विहवपमुहे उ अणंते दुक्खे उ ॥ शिथिलयमि आदरं पुनः अनंतमुखे मोक्षे सिदि लेसि आयरं पुणे । अणंतसुक्खं सुक्खंम्मि ॥ ७ ॥ अर्थ-हे आत्मन् ! (अणंतदुक्खेतु के०) अनंतु छे दुःख ते जेणे करीने अथवा जेने अर्थे जेने अर्थे जे थकी | अथवा जेने विषे एवा (धण के०) धन एटले सुवर्णादिक तथा (सयण के०) माता पितादिक स्वजन, तथा (विहवप 10 | महेस के०) हाथी, घोडा प्रमुख विभव, इत्यादिकने विषे (ममनं के०) ममत्वभावने तुं (कुणसि के०) करे छे. (पुण के) परंतु (अणंतसुक्खंमि के०) अनंतु छे सुख ते जेने विषे एवा (मुक्खंमि के०) मोक्षना सुखने विषे (आयरं के०) RS/ आदरने तुं (सिढिलेसि के०) शिथिल करे छे. एटले तुं मोक्षनां सुख पामवानो उद्यम नथी करतो. ॥ ७७ ॥ DER Jain Education Inter 01 2010_05 For Private & Personal use only D Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-रे मूढ आत्मन् ! अनंत दुःखनां कारण एया, स्वजन, विभव, धन इत्यादिकने विषे ममत्व करी वैराग्य टा दाखनो भारतं माथे उपाडे के. पण वर्तमानकालना स्वजनादिकने जोतं उपकारी जाणीने ममत्व करता भागात शतकम् It होय तो, एवी रीतना उपकार करनार तो, अनंता भवमां अनंता स्वजनादिक थयां छे. माटे ते स्वजनादिकने विषे सहित ॥१३५॥ तु केम ममत्व नथी करतो ? अने ते स्वजनादिकना क्या हाल थया हशे? तेनो पण लगारमात्र विचार नथी करतो? 36 ॥१३५॥ वली फक्त आज भवना स्वजनादिकने अर्थे राग द्वेषे करीने खेती, व्यपार, अने सेवादिक के, जेमां प्राणीनो उपघात थाय, एवी न करवा योग्य क्रिया, आ जीव कर्या करे छे. जेम फरशुराभे अनंतवीर्य राजामा आशक्त थएली रेणुका A नामे पोतानी मातानुमाथु कापी नांख्युं. तथा तेज फरशुरामे पोताना पिता उपर राग होवाथी एकवीशवार नक्षत्री | पृथ्वी करी. वली कोणिक राजाये राज्यना लोभे करीने पोताना पिता जे श्रेणिक राजा, तेमने बंधीखानामा नांख्या | तेमज पोतानी मनोवृत्ति प्रमाणे चालवामां अडचण करनार जाणीने, चुलणी राणीये पोताना पुत्र जे ब्रह्मदत्त, तेने or मारवाने अर्थ लाखना मोहोलमां घाली अग्नि सलगाव्यो. वली एक हार हाथीनी लडाइने माटे, फक्त एक पद्मावतीना वचनधीज एक क्रोडने एंसीलाख जीवोनो घात थयो. वली राज्यना लोभे करीने भरत अने बाहुबली ए वे भाई वच्चे। | महोटुं युद्ध थयु ने तेमां हजारो जीवोनो संहार थइ गयो. वली विषयराग पूरो न थवाथी पोताना पति जे परदेशी राजा, सरिकता राणीये झेर दइने मार्यो. एटलुंज नही पण छेवटे गले नख पण दीधो. वली पुत्रीना लेहे करीने | जरासंघे श्रीकृष्ण वासुदेव संगाथे महोटुं युद्ध करी, पोताना कुलसहित हजारो जीवोनो नाश को. वली राज्यना www.sainelibrary.org JainEducation international 2010_05 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् लोभे करीने कनककेतु राजाये पोताना पुत्रोनां सर्व अंग छेदन को. बली नीतिशास्त्रना कर्ता चाणाक्ये राज्यना बैराग्य. लोभे करीने पोतानो मित्र जे पर्वत नामे राजा, तेने मारी नाख्यो. वली पोताना स्वार्थ माटे सुभूम चक्रवर्तिये || भाषांतर सहित ब्राह्मणोनो अने क्षत्रियोनो क्षय कर्यो. एवीरीतनां अनेक दृष्टांतो छे, ते जो लखवा बेसीये तो तेनो एक महोटो | ११३६॥ ग्रंथ धता पण पार न आवे. माटे विचारवान आटलुं छे के, __पुत्रो मे भ्राता मे । स्वजनो मे गृहकलत्रवर्गो में ॥ इतिकृतमेमेशन्दं । पशुमिव मृत्युर्जनं हरति ॥ १॥ ___ अर्थ-तुं रात्री दिवस एवं विचारे छे के, आ महारो पुत्र, आ महारो भाई, आ महारां स्वजन, आ माहरु घर | Jd आ महारां स्त्री आदिक वाल्हेशरी, परंतु ए प्रकारे बोलनारने जेम घातकी पुरुष, ३ ३ करता एवा बोकडाने हरग OS oil करे छे. तेम मृत्यु जे ते, मे मे (महारं महार) करता प्राणीने पकडीने लेइ जाय छे. RI माटे तेना उपर ममत्व करवाथी उलटुं पाप बंधाशे, पण तेमार्नु कोइ मरी जशे, त्यारे तेमांथी कोइ पण ते IA मरनारने राखवा समर्थ थतुं नथी, एटलुंज नहि पण, पोताना स्वार्थमां खामी आववाथी, थोडा दिवस रुदन करी JE "गयेलाने भूली जq" ए रीवाज प्रमाणे तेज संबंधीयो तेने विसरी जाय छे. जेम पोताना वीश वर्षना पुत्रना मृत्य || Id समये फक्त मोहना उछालाधी (गाढ स्वरे लांबा रागे वुमो पाडी) रुदन करनार अने छाती कुटनार पिता, पोताना or बीजा पुत्रना लग्न समये, ते मृत्यु पामनारने भूली जइ, वर्तमान समयना उत्साहमा पूर्ण हर्षथी दाखल थाय छे. RS A एज रीते अत्यंत स्नेहवाली स्त्री (भार्या) ना मृत्यु पछी, तेज भर्तार बीजी स्त्री साथे विवाह करी जाणे आ संबंध || ___JainEducation inten 0 10_05 For Private Personal use only w.jainelibrary.org Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६सदाकाल रहेवानोज होयने शुं ! एवा खोटा मोहमां मुंझाइ एटले खुशी घड़, अगाउनी स्त्रीने विमरी जाय छे. राग्य| तेमज पोताना बंधुना मृत्युधी दुःखी थवानुं वतावनार भ्राता (भाइ) थोडा दिवस पछी ते बंधुना स्नेहने भूली जइ, RI नीज शतकम् भाषांतर सहित MAL/ तेना पुत्रादिकनी साथे द्रव्यादिकना भागमां कपट आदरे छे. एवीरीते स्वजन परिवारनो संबंध स्वार्थयुक्त अल्प |JE/ ॥१३७॥ If मुदतनो, स्थिति पूर्ण थये त्रुटनारो, आपणो राख्यो नहि रेहेनारो. अने परिणामे दुःखदाइ एवो इंद्रजाल समान ॥१३७॥ खोटो छे. तेथी तेने विषे ममत्व धारण करवो ते पण केवल अज्ञानताज छे! एवीज रीते हाथी, घोडा, रथ, पायदल र। विगेरे ठकुराइ पण अनित्य छे. तेने विषे जे ममत्व करवो. ते पण मोहचेष्टा जाणवो. तेमज धन, सोनू, रू', हीरा | PE माणेक, मोती. शंख, प्रवालां, तेना उपर पण जे ममत्व करवो. ते पण परिणामे दुःखनुज मूल छे. माटे जे जे कृत्य | PE करवू तेनुं परिणाम प्रथमधीज विचारवू के, आ कृत्यनुं परिणाम शुनिपजशे ? ते उपर नीतिशास्त्रमा कयुं छे के, JE | आखा दिवसमा एवं काम करवू के, जेथी रात्रीये सुखे निद्रा आवे. तथा आठ मासमां एबुं काम करवू के, जेणे Rail करीने चोमासाना च्यार महिना निवृत्तिथी सुखे सुखे विशेष धर्मध्यान धाय. तथा पूर्व अवस्थामां एवं काम करवू - के, जेणे करी वृद्धावस्थामा सुखी थवाय. अने जीवता सुधोमां एवं काम करवू के, जेणे करीने परलोकने विषे है। सुखी थवाय माटे परलोक संबंधी कार्यमा आदर करवो. ए उपदेश. ॥ ७७ ॥ संसारः दुःखहेतुः दुःखफलः दुःसहदुःखरूपः च संसारो दुहहेऊ । दुग्वफलो दुसहदुक्खदुवो यं ॥ ___ Jain Education IntemV 1010_05 For Private Personal use only pw.jainelibrary.org Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतन घराग्य शतकम् ११३८ न त्यति त संसारमपि जीवाः अतिबद्धाः स्नहनिगडे ः में चैयंति पि जीवा । अईबद्धा नेहनिलेहिं ॥७८॥ भाषांतर साहन अर्थ-हे जीव ! (संसारो के०) आ संसार जे ते (दुहहेऊ के०) दुःखनुं कारण छे. तथा (दुःखफलो के०) दुःख Tel एज फल छ जेनुं एवा छे. (य के०) वली (दुसहदुक्म्वरूषो के०) दुखे करी सहन थाय, एवं जे दुःख ते रूप छे. तेमा (नेहनिअलेहि के०) नेहरूप वेडीवडे (अइबदा के०) अतिशे बंधायेला एवा (जीवा के०) जीव जे ते (तंपि के०) | संसारने पण (न चयंति के०) नथी त्याग करता. अर्थात् संसारने दुःखदोयक जाणे छे, तोयपण तेनो त्याग नथी करता. भवार्थ-आ संसारमा सर्व बंधन करतां प्रेमबंधन अतिशे महोडं छे. ते कडुं छे के: ॥ वसन्ततिलकाकृतम् ॥ रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं । भास्वानुदेव्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः ॥ इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे । हा हन्त हन्त नलिनी गज उज्जहार ॥ १ ॥ ॥स्वागतावृत्तम् ॥ बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि । प्रेमरज्जुकृतवन्धनमन्यत् ॥ दारुभेद निपुणोऽपि षडधि । मिष्क्रियो भवति पङ्कजकोशे ॥२॥ अर्थ-जेम कमलनो रस पीवाने बेठेलो एवो जे भमरो, ते मनमां विचार छे के, हवे संध्याकाल पडवा आवी و جوالك قد لا تعرفه . Jain Education Intel 2010 05 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ने कमल सिंचाइ जशे; माटे हुं उडी जउं तो ठीक एम विचार करतां करतां संध्याकाल थइ, ने कमल मिचाइ गडे, भाषांतर २५ ते वखते ते भमरो विचार करे छे के, रात्री जशे ने सारो प्रभातकाल थशे ने सूर्य उगशे, ने कमलनी लक्ष्मी हससे RSHINI सहित It एटले प्रफुल्लित थशे, त्यारे हुं उडी जइश. एवो विचार करे छे. एटलामां पाणी पीवाने माटे आवेला हाथीए ते | JU ॥१३९॥ | कमलने उपाडीने हा इति खेदे !! मुखमां घाली पेला विचारा भमराने दांतवडे चाववा मांड्यो ! ॥१॥ ते वखते ॥१३९॥ Idl पेलो भमरो मरता मरतां पश्चात्ताप करे छे के, जगत्मां बंधन तो घणा छे, पण प्रेमरूप दोरीनुं बंधन तो एक जुदी di जातज छे. केमके, गमे तेवु कष्ट होय तोपण तेने विंधवाने भमरो समर्थ होय छे, परंतु हुँतो स्नेह करीने कमलना JI दोडाने विषे रहीने क्रियारहित थयो. एटले ते दोडाने कोरीने नीकली जवा समर्थ न थयो ! ॥ २ ॥ वली ब्रह्मदत्त | राजा मरणांतिक रोगनी वेदनादिके करीने पराभव पाम्यो सतो अतिशे, संतापनो अनुभव करे छे. एटले वेदनाए । or करीने आंखमांधी आंसु चाल्यां जाय छे; तोयपण मोहना उदयथी भोगनी आकांक्षा (इच्छा) करे छे. अने पासे | | बेठेली स्त्रीना उपर हाथ नांखीने पोतानी स्त्रीन नाम देतो देतो मरण पामीने सातमी नरकने विषे गयो. अने त्यांना २५] पण तीव्र बेदनानो अनुभव करतो सतो, ते स्त्रीचें नाम वारंवार संभारतो सतो वेदना भोगवे छे. एवीरीते भोगनी Dt आशक्ति त्याग करवी घणी दुष्कर छे. अने केटलाएक महा सत्ववाला सनत्कुमार चक्रवर्ति जेवा पुरुषो तो, रोगनी | वेदना थये सते पण देहने तथा आत्माने जुदो समजीने एबुं विचारता के, आ महारुं करेलुं कर्म मने उदय आव्यु छे, माटे महारेज भोगवधू पडशे. एवो निश्चय करीने समतासहित कर्म भोगवे छे, पण मनमा पीडा उत्पन्न थवा Jain Education Inter 010_05 For Private & Personal use only 2Cw.jainelibrary.org Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥१४०॥ Jain Education Interna थवा देता नथी. अर्थात् आर्त्तध्यान रौद्रध्यान ध्याता नथी: अने वली एवं विचारे में के, ।। शादूलविक्रीडितवृत्तम् ।। उसो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालबालोऽशुभो । रागद्वेषक पाय संततिमहानिर्विघ्नयीजस्तथा ॥ रोगैरङ्कुरितो विपत्कुसुमितः कर्म्मद्रुमः सांप्रतं । सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःस्वैरघोगामिभिः || १ || अर्थ- आ कर्मरूप वृक्ष पोते पोताने हाथेज वाव्यो छे, ने तेमां मोहरूप पाणी शिच्युं छे, अने ते वृक्षनी जन्मभूमि पण अशुभ कर्मरूप व्यारामां छे. वली राग द्वेष कषाय, तेनी जे संतति एटले श्रेणि, ते रूप बीज छे. ते महोटा विघ्नरहित छे. एटले ए बीजमांथी वृक्ष उत्पन्न धया विना रहेज नही; तेबुं छे. अने ए वृक्षने रोगरूप अंकुरा उत्पन्न थाय छे। अने विपत्तिरूप पुष्पने जो तुं सम्यक प्रकारे एटले सम्भावे नहि सहन करे तो, ते पुष्पमांथी अधोगतिना दुःखरूप फल उत्पन्न थशे. ॥ १ ॥ वली आम विचारे छे के. जो हुं आवी पडेली आपदाने समभावे नहि भोगवुं तो, एमांथी महारे दुर्गतिनां दुःखरूप फल उत्पन्न थशे. माटे हे भव्य जीवो ! आ प्रकारनो विचार करीने संसारने दुःखमय जाणीने संसार sarsarat उद्यम करो. ॥ ७८ ॥ 2010_05 निजकर्मपवनचलितः जीवः संसारकानने घोरे निकम्मेपणचलिओ । जीवो संसारकाणणे घोरें ॥ भाषांतर सहित ॥१४०॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ १४१ ॥ Jain Education Inters काका: विनावधनादीविगोपनाः न प्राप्नुयात् दुःसमदुःखं याभ्यस्ताः की की विडंबनाओ 1 नं पाए दुमहदुक्खाओ || अर्थ - ( घोरे के०) घोर (भयानक) एवं (संसारकाणणे के०) संसाररूप महावनने विषे (निय के० ) पोतानुं (कम्म के०) ज्ञानावरणीयादिक कर्म ते रूप (पवण के०) वायु, तेणे करोने (चलिओ के ० ) प्रेरणा कर्यो एवो, अर्थात् उडाड्यो एवो (जीवो के०) आ जीव जे ते (दुमहदुक्खाओ के०) दुःखे करीने सहन करवाने अशक्य छे दुःख जेनुं एवो ( का का के०) केइ केह (विडंबणाओ के०) वध बंधनादिक विवंदना तेने ( न पावए के०) नथी पामतो ? अर्थात् सर्वे विटंबनाओने पामे के. भावार्थ- कोई पुरुष पोतानो लीघेलो नियम (व्रत) कोड़ अल्प परिषहथी मेघकुमारनी पेठे भागवाने तैयार यो छे, पण ते विचार्य के, आ वार्त्ता गुरुने निवेदन करीने पछी महारो नियम मुकुं. एम धारीने जेवलामा गुरु पासे आवे छे. तेलकम ज्ञानवंत गुरुए उपदेश आपीने निश्चल कर्यो. ते आ प्रमाणे के, हे भव्य जीव ! अहो हो!! आ घोर भवाटवीने विषे आ जीवे कर्मना वशे करीने शां शां दुःख नथी सहन कर्यो ? अर्थात् सर्वे जातिनां वध बंधनादिक दुःख सहन कर्या छे, अने अनेक प्रकारना अपराधथी राजा प्रमुखे गधेडा उपर बेसाडीने नाक कान कापीने अने कपालमा डाम देइने इत्यादि घणीज विटंबना पमाडीने, आखा शहरमां फेरवीने शूलिये देवा प्रमुख असह्य दुःख दीघां. त्यां ते परवशपणाथी तेवां दुःख अनंतीवार सहन कर्या. वली कर्मे करीने जीवने शुं शुंनधी विततुं ? 2010 05 भाषांतर सहित ॥१४९॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराग्य ॥१४२॥ 30 अर्थात् घणुंज वीते जे. जेम के, भाषांतर निवसइ सायरमज्जे। निवसह गिरिगुहरकंदरामजे ॥ कम्मसहाय जीयाणं । कहमचि न हणे विलग्गं तु ॥१॥ सहित मायंगघरे हरिचंदराइणो | पंडवाण वणवासो।। मुंजस्स भिक्खभमणं । कीरइ जं कम्मुणा सचं ॥२॥ राउ करेइ रंको । रंको पुण करेइ रायसारित्थो ॥ ज न घर जह हीयए । कीरइ तं कम्म जीवाणं ॥ ३ ॥ ॥१४२॥ ___ अर्थ-जो कदापि आ जीव कर्मना भयथी समुद्र मध्ये वास करे अथवा पर्वतनी महोटी गुफामां वास करे, | तोयपण कर्मनी साथे घलगेला एटले कर्मथी आवरण पामेला ते जीवोने, वलगेलां कम कोइ प्रकारे नाश पामतां नथी. अर्थात् निकाचित कर्म भोगव्या विना छुटतां नथी. ॥१॥ वली जुओ के, कर्मने वशे करीने हरिश्चंद्र राजा || | चडालने घेर रह्या, तथा पांच पांडवो वनवास पाम्या, तथा मुंजराजाये घेर घेर भिक्षा मागो. ते माटे जे कर्म करे | ते सत्य छे. अर्थात् कर्म कोइने पण मूकतुं नथी. ॥ २ ॥ वली कर्म केवां छे ? ते कहे छे. थोडीवारमा राजाने रंक | Jt करे छे, अने रंकने राजा जेवा करे छे. वली जेना घरमां, कोइए जे हिताऽहितकारी वात हृदयमां न धारी होय, ते E] वातने जीवोनां कर्म जे ते थोडीवारमा करी देखाडे छे. एटले जेनुं मनमां पण चितवन नथी एवं शुभा शुभ ओ चितं एकदम थइ आवे छे. तेनुं कारण पण कर्म छे. माटे कर्मने कांइ शरम नथी. ॥ ३॥ माटे ते कर्मने वश थइने । | अनेक दुःख सहन कयौ छे. तेना आगल आ धर्मकृत्य करतां थएलु अल्प दुःख श्या हिसावमा ? एम उपदेश देइने धर्मने विषे दृढ कर्यो. एम समझी वीजा जीवोए पण धने विषे दृढता राखवी. आ ठेकाणे मेघकुमार दृष्टांत जागवू. क(NORMDUCbD9APLEJapat Jain Education Intel 2010 05 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैराग्यशतकम् भाषांतर सहित ॥१४३॥ ॥१४॥ | ते दृष्टांत प्रसिद्ध छे, माटे लख्य नधी. ॥७९॥ शिशिरे काले शीतलनिलस्य लहरीणां सहस्राणि तैः घनं यथा स्यात्तथा भिन्नो देहो यस्य सः सिसिमि सीयलानिल । लहरिसहस्सेहि भिन्नघणदेहो ॥ तिर्यक्त्वे अरण्ये अनंतशः निधनं अनुप्राप्ताः सिरियेत्तणमिणे । अणंतसो निहणम ऽणुपत्तो ॥ ८॥ ___ अर्थ - हे जीव! (तिरियत्तणमि के०) तिर्यचना भवमा (अरणे के०) अरण्य (अटवी) ने विषे (सिसिमि के०) शिशिरऋतु (शियालो के०) आवे सते (सीयलानिल के०) शीतल (टाढो) वायु, तेनी (लहरिसहस्सेहि के०) हजारो JE लहेरोवडे (भिन्नघणदेहो के०) भेदायो छे. एटले पीडायो छे दृढ एवो पण देह ते जेनो, एवो थयो सतो, तुं (अणंतसो | के०) अनंतीवार (निहणं के०) नाशने (अणुपत्तो के०) पाम्यो छे. भावार्थ-हे आत्मन् ! तुं पूर्व अनुभवेलां दुःखने, लगार विचारी जो के, तियेचना भवमा तहारो देह खूब । मजबूत हतो, तोयपण पोष महा महिनानी अत्यंत टाढथी, (हीम पडवाथी) अनंतीवार मरण पाम्यो. एटले आ जीव J. अनेक प्रकारना रसायण जेवां के, बांबु हरिताल विगेरे खाइने शरीरने मजबूत तथा पुष्ट कर धारे छे; तोयपण JE | ते शरीर घोडा जेवू, अथवा पाडा जेवू कहीपण थतुं नथी. तो पण ते शरीरने घोडानी तथा पाडानी उपमा अपाय छे. तेवा घोडा विगेरे तिर्यंचोनां शरीर पण, अत्यंत टाढथी नाश पामे छे. ते नाश पामवादिक दःख ते अनंतीवार كائن فعول وفعاليات المعلنا عاونون مازند ___JainEducation InterIMEI12010-05 Aciww.jainelibrary.org Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥१४४॥ Jain Education Intern सहन कर्या. तो आ भवमां धर्मसाधन निमिशे अल्प एवो पण शीत (टान) परिषह तुं केम सहन नथी करतो ? ग्रीष्मात पसंतप्तः अरण्ये क्षुधितः पिपासितः बहुशः गिम्हा संततो ऽणे छुहिओ पिवासिओ बहुसो ॥ संप्राप्ताः तियकभवे मरणदुःखं बहु यथातथा विद्यमानः संपतो तिरियंभवे । मरणंदुहं बहु विर्मूरंतो ॥ ८१ ॥ अर्थ- हे जीव ! तुं (तिरियभवे के० ) निर्यचना भवने विषे (अरणे के० ) अटवीमां (गिम्हायव के० ) ग्रीष्मऋतुना तडकावडे (संततो के) सारी पेठे तप्यो एबो, अने (बहुसो के०) घणी घणी (छुहिओ के०) क्षुधा वेदनाने सहन करतो एवो, अने (पिवासीओ के०) घणी घणो तृषा वेदनाने सहन करतो एवो, ने [यह के०] घणो घणो [ सूरंतो के ० ] खेद पामतो सतो [मरणदुहं के०] मरणनां दुःखने (संपत्तो के ० ) पाम्यो हतो. ॥ ८१ ॥ भावार्थ - हे आत्मन् ! जेम तें तीर्थचना भवमां शीत परिषह सहन कर्यो. तेम उष्ण कालमां [ग्रीष्मऋतु] एटले वैशाख जेठ महिनाना आकरा तापमां तें उष्ण परिषह सहन कर्यो. तेमां वली अतिशे तृषा वेदनी तथा अतिशे क्षुधा वेदनी तेणे करीने, तुं अत्यंत खेद पामतो सतो अनंतीवार मरण पाम्यो. परंतु ते दुःख विसरी आ भवमां थोडा तापने पण न सहन करतो, तुं पंखा प्रमुखे करीने वायुकायना जीवोनो घात करे छे. पण एम नथी विचारतो के, तिर्यच भवने विषे तथा नरक भवने विषे में अनंता तापनां दुःख सहन कर्या छे. ते दःखना आगल 2010_05 भाषांतर सहित ॥ १४४॥ . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ।। १४५ ।। आतापर्नु दुःख श्या हिसाबमा छे? एवो विचार तने लेशमात्र पण आवतो नथी ! ॥ ८१ ॥ वर्षा अरण्यमध्ये गिरिनिर्झरणोदक: उद्यमानः वासरणमज्झे । गिरिनिज्झरणोदगेहि तो || शीतानिलेन दग्धः मन् मृतोमि तिर्यकत्वे बहुशः यानिर्लज्झविओ | ओसि तिरियंतणे बहुसो ॥ ८२ ॥ अर्थ - रे जीव ! तु' (तिरित्तणे के० ) निर्यचपणाने विषे (वासासु के०) वर्षाऋतुमा एटले चोमासामां (अरमझे के०) अटवीने विषे रह्यो सतो (गिरिनिज्झरणोद्गेहि के० ) पर्वतनां निर्झरण एज पाणीवडे [वज्झतो के० ] वहन तो एटले तणातो, अर्थात् चारे पासे पाणीमां अथडातो एवो, अने (सियानिल के०) अतिशे शीतल एवो वायुवडे अर्थात् हिमवडे (उज्झवियो के०) दाझेलो सतो (बहुसो के०) घणीवार (मउसि के०) मरण पाम्यो छे.॥८२॥ भावार्थ- हे जीव ! तुं तिर्यचना भवने विषे, चोमासानी ऋतुमां वृक्ष प्रमुखने विषे रात्री दिवस निर्गमन करतां वरसादनी धाराओनां कष्ट सहन करी आग्यो छे, वली हिम पडवाथी बलीने मरण पण पाम्यो छे. ने नदीयोमा तातो तातो अनेक प्रकारनी वेदना पामीने अथडाइ कुटाइने पराणे प्राण त्याग कर्यो छे. ए सबलां कष्टने तुं आज केम बिसरी जाय छे ? ॥ ८२ ॥ Jain Education Inter2010_05 भाषांतर सहित ॥१४५॥ . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥१४३॥ Jain Education Inter एवं तिर्यक्रभवेषु क्लिश्यन् सन् दुःखशतसहस्त्रेः ऐवं तिरियं भवे । की संतो दुखमयं सहरसेहिं || उपितः अनंतवारान् जीवः भीषणभवारण्ये वर्सियो अत्तो जीवो भीसणभवारणे ॥ ८३ ॥ अर्थ – (एवं के०) ए प्रकारे. एटले पूर्वे कयुं ते प्रकारे (तिरियभवेसु के०) तिर्यचना भवने विषे (दुक्खसयसहस्महिं के०) लाक्खो गमे दुःखे करीने (कीसंतो के०) क्लेश पामतो एवो (जीवो के०) आ जीव जे ते (भीसणभवारणे ० ) भयानक एवी संसाररूप अटवीने विषे (अणंतखुतो के०) अनंतीवार (वसीयो के०) निवास करी आग्यो छे, भावार्थ - हे आत्मन् ! तुं तिर्यचना भवने विषे पण अनंता दुःख भोगवी आव्यो छे. ॥ ६३ ॥ दुष्टाष्टकर्माण्येव प्रलयानिलस्तेन प्रेरितः भीषणे भवारण्ये दुकम्पलया । eिsमान: नरकेषु अपि हितो नरएंस विं । 2010_05 निलपेरिड भीसणंमि भवरणे ॥ अनंतशः हे जीव प्राप्तोसि दुःख अनंतसो जीवे पत्तोसिं ॥ ८४ ॥ अर्थ - ( जीव के ० ) हे जीव ! तुं (दृट्टठकम्म के०) दुष्ट एषां जे आठ कर्म एटले दुष्ट फलने आपनाएं ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्म ते रूप (पलयानिल के०) प्रलय कालना वायु वडे (पेरिङ के०) प्रेरणा कर्यो एवो, अने (भी भाषांतर सहित ॥१४६॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य भाषांतर IF गंमि के०) भयानक एवी (भवरणे के०) संसाररूप अटवीने विषे (हिडंतो के०) चालतो सतो [नरएसु वि के०] | नरकने विषे पण, पूर्वोक्त दुःख [अणंतसो के०] अनंतीवार (पत्तोसि के०) पाम्यो छे. ॥ ८४ ॥ शतकम् | सहित भावार्थ-हे आत्मन् ! तें ज्ञानावरणीयादिक आठ कर्मे करीने नरकादिक गतिने विषे, अनंतिवार दुःख भोग॥१४७॥ व्यामां खामी राखी नथी. तोपण वली पछां तेनां तेज दुःख प्राप्त थाय, तेवा उपाय करे जाय छे. माटे हवे तेवां ॥१४७॥ | दुःखो भोगवां पडे नहि, तेवो उपाय कर. सप्तसु नरकमहीषु वज्रानलदाहस्य शीतस्य च वेदनास्तासु सत्तंसु नरयमही वजानलदाहसीयवियणासु ॥ उषितः अनंतकृत्वः विलपन् करुणशब्दैः वसियो अणंतखुत्तो। विलवंतो करुणसद्देहिं ॥ ४५ ॥ अर्थ-हे जीव ! तुं [वजानलदाह के०] वज्राग्निनो छे दाह ते जेने विषे. एटले अतिशे तीक्ष्ण छे अग्नि ते जेनेर | विषे, अने [सीयवियणासु के०] अतिशे शीतनी छे वेदना ते जेने विषे, एवी [सतसु के०] सात [नरमहीसु के०] | नरक पृथ्वीओने विषे [करुणसदेहिं के०] करुण शब्दवडे (विलयंतो के०) विलापक रतो सतो [अणंतखुत्तो के०] | अनंतीवार [वसियो के०] वशो छे. ॥ ८ ॥ भावार्थ-हे आत्मन् ! तुं साते नरक पृथ्वीयोमां निवास करी आत्यो छे, अने त्यां यां उष्ण वेदना तथा शीत Jain Education Inter 2 010_05 For Private & Personal use only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥१४८॥ Jain Education Interna वेदना. आ नीचे लख्या प्रमाणे अनंतीवार सहन करी आध्यो के. जेम ग्रीष्मऋतुना छल्ला समयमा आकाशनो मध्ये आवेलो, मेघरहित, घणा आकरा किरणवालो सूर्य, देदीप्यमान सते, जेना शरीरने विषे पिनो प्रकोप थयो छे, तेवा पुरुषने, च्यारे बाजु खेरना अंगारानो अग्नि सलगावने तेनो बच्चे राखीए ने तेने जेवी उष्ण वेदना धाय, ते करतां पण अनंतगुणी उष्ण वेदना. नरकने विषे नारकीने जीवो भोगवे छे. ते नारकीना जीवोने त्यांथी उपाडीने जो कदापि अहिंना धगधगता खेरना अंगारामां सुबाडीए | तो जेम शीतल चंदननो लेप कर्यो होय, ने तेथी जेम अत्यंत सुखथी निद्रा आवे तेवी रीतनी निद्रा ते नारकीना जीवने आवे छे. एवीज रीते पोष महिनानी रात्रीने बिषे मेघरहित आकाश थये सते, हृदयादिकमां कंपाराना रोगवाला पुरुषने आवरण रहित, हिमाचलनी पृथ्वीने विषे राख्यो होय, अने वली त्यां अत्यंत वायराना झपाटा चालतां होय, ते बखत ते जीवने जेवी शीतवेदना थाय, तेथी पण अनंतगुणी शीतवेदना नरकने विषे नारकीना जीवो भोगवे छे. ते नारकीना जीवोने पूर्व कहेला, हिमाचल पृथ्वीना स्थानमा राख्यो होय, तो जेम वायरा विनाना स्थामां शियालाने विषे निद्रा आवे, तेम ते नारकीना जीवोने निद्रा आवी जाय छे. माटे एवां दुःख तुं अनंतीवार सहन करी आव्यो छे. 2010 05 माटे तेथी बास पामीनें फरीथी त्यां न जतुं पडे, एवा धर्मकृत्यमां सावधान था ! ॥ ८५ ॥ भाषांतर सहित . ॥१४८॥ Li Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकम् पितृमातृस्वजनरहितः दुरंतव्याधिभिः पीडितः बहुशः वैराग्य | भाषांतर पियमायसंयणरहिओ । दुरंतवाहिहि पीडिओ बहुमो ॥ सहित मनुजभवे निःसारे विलापितः किं न तं स्मरसि ॥१४९॥ अणुअंभवे निस्सारे । विलाविओ कि ने तं सैरसि ॥ ८६ ॥ ॥१४९॥ अर्थ-रे जीव ! (निस्सारे के०) असार एवा (मणुभवे के०) मनुष्यभवने विषे (पियमाय के०) पिता माता, 16 Iv अने (सयण के०) स्वजन. तेणे करीने (रहिओ के०) रहित एवो, अने (दुरंतवाहिहिं के०) दुःखे करीने छे अंत ते | जेनो, एवा व्याधिये करने बहुसो के) घणीवार (पीडिओ के०) पीडा पाम्यो एवो. एज कारण माटे (विलाविओ के०) विलाप करतो एवो, तुं जे ते (तं के०) ते मनुष्यभवने (किं न सरसि के०) केम नथी संभारतो ? ॥ ८६॥ J भावार्थ-हे जीव ! तुं मनुष्यभवमां पण माता पिता स्वजनादिक प्रिय वस्तुनो वियोग धनाधी तथा अनेक प्रकारना शरीरना व्याधिथी विलाप करी करीने मरण पाम्यो हतो, ते वातने तुं केम विसरी जाय छे ? मनुष्यभव | आश्रीने अहं ममत्व तथा मोहपणा सहित निर्भाग्यपणा विषे एक सोमिल ब्राह्मगनी कथा टिकामां लखी छे. ते नीचे प्रमाणे जाणवी. ॥ ८६॥ कथा ७ मी ___ कौशांबी नगरीमां सोमिल नामे ब्राह्मण जन्मथी दरिद्री एवो रहेतो हतो. तेने स्त्री, पुत्र, पुत्री, इत्यादिक घj ___JainEducation intern 0 10_05 For Private Personal use only C w.jainelibrary.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५०|| र कुटुंब हतुं. ते कुटुंबनी प्रेरणाथी एक दिवस धन कमावाने अर्थे देशांतर गयो, त्यां तेणे व्यापारादिके रहित एवो, ३ वैराग्यपण दोनभोगे सहित, एटले महोटा दानेश्वरी जेबो, एक योगी पुरुष दीठो. ते योगीये द्रव्यनी चिंताथी आकुल भाषांतर शतकम् सहित व्याकुल थएला ब्राह्मणने पूछयु के, तहारे शी चिंता छ ? त्यारे तेणे करों के, दारिद्रय एज महारे चिंता छे. त्यारे || | योगी बोल्यो के, जो तुं महारुं कडं करे, तो हुँ तने महोटो धनाढ्य करुं. त्यारे ते वात ते ब्राह्मणे कबूल करी. पछी | ॥१०॥ ते वे जण पर्वतनी तलाटीमां (गुरुस्थानकमा) गया, त्यां योगी बोल्यो आके, सुवर्णसिद्धि थवानो रस छे. एटले योगी पूर्वे ताढ तडको भूख तृषादिक वेठीने अने घणा काल सूधी सूकां एवा कंदमूल फल इत्यादिकनुं भोजन करीने, JE एवीरीते महा महेनत करीने अने समडीना पादडानो पडियो करीने ते वडे रस कुंपिकामांधी लइने घणे काले घणा प्रयासथी ते रस तुंबडीमां भरी राख्यो हतो. ते पेला दरिद्र ब्राह्मणने देखायो. ने कह्यु के, आ सहस्रवेधी रस छे. | एटले नांवानां हजार पत्रां अग्निमां तपावीने उपरा उपरी खडकीने मूत्रयां होय. तेमां आ रस एक टीपु मृत्यु | होय तो, ते सर्व पत्रांमां रस वेंधइ जाय. एटले पहोची जाय. अर्थात् तेज वखत ते सर्व पत्रां सुवर्णमय थइ जाय. एवीरीते योगिए वारंवार का. त्यारे ते निरभागी ब्राह्मणने उलटो क्रोध चड्यो, ने तेथी वे हाथे झालीने पे a रसनु तुंबडु, सादडवृक्षना पनिडामां ढोली दीधुं. त्यारे ते योगीये ते ब्राह्मगने घणोज अयोग्य जाणीने तेनो त्याग hd K को. अने ते ब्राह्मण पण पृथ्वीमां भ्रमण करतो करतो एटले पैसा पैसा एम पोकार करतो करतो मरण पाम्यो, | पण ते मल्या नही. w ___JainEducation Inter ww.jainelibrary.org 2 010_05 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥ १५१ ॥ Jain Education Interna पछे, जेम निर्भाग्य जीवने घणुं धन पामवानो अवसर आवे तोयपण तेने ते धन ले सूझे नही. तेम आ जीवने पण मनुष्य भवमां जिनधर्मरूप धन ग्रहण करवानो अवसर आव्यो छे, तोयपण बहुलकर्मिणाथी जिनधर्मरूप सुवर्णसिद्धिनो रस लेवानुं मन नथी धतुं, ए बहु आश्चर्यकारक छे !!! पवनः इव गमनमार्गे अलक्षितः सन् भ्रमति भववने जीवः पणु मग्गे । अलेक्खिओ भइ भववणे जीवो ॥ स्थाने स्थाने समुझय धनस्वजन संघातान् ठाणमि समु । ज्झिऊण घणसंयणसंघाए ॥ ८७ ॥ अर्थ - हे आत्मन् ! (जीवो के०) आ जीव जे ते (भववणे के०) संसाररूर अटवाने विषे (ठाणहाणंमि के ० ) स्थान स्थानने विषे (धणसग्रणसंघाए के०) धन तथा स्वजन तेना समूहने (समुज्झिऊग के०) त्याग करीने ( गयण ०) आकाशमार्ग विषे (पवणु च्व के ० ) पवननी पेठे (अलविखओ के०) अदृश्यरूपे थयो सतो (भमड़ के ० ) भमें छे. भावार्थ - जे आकाश मार्गमां वायु फरे छे, तेम आ जीव पण भवादवीमां अदृश्यपणाथी एटले आ पूर्वे महारो कोण सगो हतो? तेवा अजाणपणाची अनेक स्थानने विषे भ्रमण करे छे. तेमां अनेक भवने विषे मलेलां धन तथा स्वजन इत्यादिकनो त्याग करीने एटले तेमनी सी गति हशे ? एवी चिंता मूकीने वर्तमानकालनां स्वजनादिकने सुखी करवाने तथा धन मेलववाने अर्थ देशोदेश भमे छे. अर्थात् वायुवडे पानडुं जेन पराधीन थड़ने उडे छे, 2010 05 भाषांतर सहित ॥१५१॥ ww.jainelibrary.org. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥१५२॥ Jain Education Intern | तेम लाएक पुरुषो धनने अर्थे शरीरनुं दुःख पण न गणतां, कोइ विलायत जाय छे, कोइ चीन जाय छे, कोइ लंकामा जाय छे, कोइ ब्रह्मदेशमां जाय छे. इत्यादिक अनेक देशमां जाय छे. तेवामां त्यां अनेक प्रकारां निमित्त मलवाधी मरण पामे हे, एवीरीते आ जीव नजरे देखे छे, तो पण कर्म उपर विश्वास राखीने संतोष राखी धर्मसाधन करतो नथी. ॥ ८७ ॥ विध्यमानाः असकृत् जन्मजरामरणान्येवतीक्ष्णाः कुंतास्तैः विद्विजता असंयं । जम्मजरामरर्णेतिक्खकुंतेहिं ॥ दुःखं अनुभवंति घोरं संसारे संसरंतः संत: जीवाः दुम् ऽणुहवंति घोरं । संसरे संसंरंत जिओ ॥ ८८ ॥ तथापि क्षणमपि कदापि निश्वये अज्ञानमेवभुजंगस्तेनदष्टाः जीवाः तव खपि कयावि हुँ । अन्नागभुयंगडं किया जीवा ॥ संसारएवचारकोगुप्तिगृहं तस्मात् न च उद्विजते मढमनसः संसार चारगाओ । नंय ओविनंति मूढमंणा ||८९|| युग्गम् ॥ अर्थ - (संसारे के०) च्यारगतिरूप संसारने विवे (संसरत के ० ) पर्यटन करता एवा (जिआ के०) जीव जे ते ( जम्मजरामरण के ० ) जन्म जरा मरणरूप तिक्खकुंतेहि के०) तीक्ष्ण भालाये करीने (असयं के०) वारंवार (विद्वि 2010_05 भाषांतर सहित ॥१५२॥ ww.jainelibrary.org Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैराग्यशतकम् ॥१५३॥ ज्जता के०) विधाता सता (घोरं के०) रौद्र (आकरा) एवा (दुहं के०) दुःखने (अणुहवंति के ० ) अनुभवे छे. ॥ ८८ ॥ (०) तोयपण एटले पूर्वे कां ते दुःख भोगवे छे तोयपण (मूढमणा के०) मूढ छे मन ते जेमनुं एवा, अर्थात् मूर्ख एवा, अने (अन्नाणभूयंगडंकिया के०) अज्ञानरूप सर्प डस्य एवा (जीव के०) जीव जे ते (कावि के०) कोइ वखत पण (हु के०) निश्चे (संसार चारगाओ के०) संसाररूप बंदीखानाथी (खर्णपि के०) क्षणमात्र पण ( नय उचि जति के०) उद्वेग नथी पामता एटले वैराग्य नथी पामता ! आते केलंबधुं आश्चर्य ? |॥ ८९ ॥ भावार्थ - जेम कोइ भालो मारे, ने तेनी वेदना थती होय, तेवामां वली बीजो भालो मारे एवी रीते उपरा उपरी वागवाथी जे दुःख भोगवे, तेवीरीते आ संसारी जीव पण जन्म जरा मरण इत्यादिकनां घणां भयानक दुःख उपराउपरि भोगवे छे. ॥ ८८ ॥ तोयपण अज्ञानरूप सर्पे डशेला एंवा मूढ जीव, संसाररूप बंधिखानाथी कोइ वखत पण क्षणमात्र उद्वेग पामता नथी. आ केटलंबधुं आश्वर्य छे !!! Jain Education Inter 2010 05 क्रीडिष्यसि कियंत वेलांयावत् शरीरमेववापीतस्यां यत्र प्रतिसमयं कोलेसि कियतैवेलं । सरीरेवावी जत्थ पइसेंमयं ॥ कालएव अरघट्टस्तस्यघटीभिः शोष्यसे जीवितमेवां भोजलं तस्य ओघः प्रवाहः काह घडीह 1 सोसिज्जइ जीवियं भोई ॥ ९० ॥ अर्थ- हे जीव ! तुं ( सरीरवावीह के०) शरीररूप वापने विषे ( क्रियतं वेलं के०) केटला काल सुधी (कील सि भाषांतर सहित ॥१५३॥ . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥१५४॥ के०) क्रीडा करीश ? ( जत्थ के० ) जे शरीररूप वाव्यने विषे (पइसमयं के० ) समय समय प्रत्ये (कालरहÉ घडीहि ho) कालरूप रहेंनी घडीयो वडे (जीवियंमोहं के०) जीवितरूप जलनो प्रवाह (सोसिजर के०) शोष पामे छे. अर्थात् सुकाइ जाय छे. ॥ ९० ॥ भावार्थ - जेम रहेंट वडे वाध्यमांथी जेम जेम पाणी काढीए, तेम तेम ते पाणी ओलुं धतुं जाय छे. तेम हे जीव ! ते पण जेटलं आयुष्य वांधीने जन्म लीधो छे, ने तेमांथी जे जे समय जाय छे, तेलुं आउखुं ओलुं धतुं जाय छे. कछे, माबाप जाणे के, महारो दिकरो महोटो थाय छे, पण ते दिवसे दिवसे आउखं घटवाथी नहानो थतो जाय छे. ए प्रमाणे विचारता तो, आउखानो अंत आवतां वार नहि लागे. केमके, समये घटवापणुं छे माटे जेमके कोने शूली देवा लइ जाय छे, अने ते शुली सो डगलां छेटी छे, त्यारे ते माणस जेम जेम शूली सन्मुख पगलां भरे छे, तेम तेम तेने मृत्यु नजिक नजिक आवतुं जाय छे, अने ते वखत तेने खानपानादिक कांइ पण गमतु नथी. केम, एने मृत्यु नक्की दुकहुं जाण्युं छे माटे तेम हे चेतन ! तहारां पण जेम जेम वर्ष जाय छे, तेम तेम तहारे पण मृत्यु सन्मुख आवे जाय छे. एटले जो कदि तहारुं आयुष्य सो वर्षनुं होय, अने तेमांथी जे जे वर्ष गां, तेलु आप सो वर्षमाथी ओ युं जाणवु, अर्थात् अल्प आयुष्य झपाटाच पुरुं धशे अने मनना मनसुबा मनमा रही जशे अने पालथी घणोज पश्चात्ताप धशे! माटे प्रमाद छोडीने परलोकनुं साधन करवामां सावधान था. ॥९०॥ एज वातने मूल ग्रंथकार पण जणावे छे के, Jain Education Internal 2010_05 भाषांतर सहित ॥१५४॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बगाय भाषांतर सहित शतकम् ॥१५५॥ ॥१५॥ रे जीव बुध्यस्व मामुह्य मा प्रमादधर्मे कुरु रेपाप रे जीव बुझं मामु । ज्झमी पायं करेसि रेपाव ॥ कि परलोके गुरुदुःखभाजनं भवसि हे अज्ञान हे मूढ कि परलोए गुरुदु । वखभायणं 'होहिसि अयाण ।। ९१ ॥ ___अर्थ-(रे जीव के०) हे जीव ! तुं (बुन्झ के०) धर्मने विषे बोध पाम्य. पण (मामुज्झ के०) मोह न पाम्या | जे कारण माटे (रेपाव के०) हे पाप जीव ! (पमायं के०) प्रमादने (मा करेसि के०) न करीश. (अयाण के०) हे अ-1 | जाण ! एटले हे मृढ ! प्रमाद करीने (परलोए के०) परलोकने विषे (गुरुदुक्खभायणं के०) महोटा दुःखने रहेवाना | भाजनरूप [किं के०] केम होहिसि के०] थाय छे ? ॥ ९१ ॥ । भावार्थ-हे आत्मन् ! तुं अदृष्टना वशथी दुर्लभ एवा मनुष्यभवने पामीने तेमां वली जैनधर्म पामीने धर्मने | विषे प्रमाद न कर्य. तेम छतां जो प्रमाद करीश. तो महादुःखने पामीश. ॥ ९१ ।। बुद्धस्व रेजीव त्वं मामुह्य जिनमते ज्ञात्वास्वरूपं घुझसु रेजीव तुमं । मामुझसि जिणमयंमि नाणं ॥ यस्मात् पुनरपि एषा सामग्री दुर्लभा हे जीव जम्ही पुर्णरवि एसी । सामैग्गी दुल्लैहा जीवं ॥९२ ॥ JainEducation International 2010_05 For Private & Personal use only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् ॥१५६॥ Jain Education Interna अर्थ - (रे जीव के०) हे जीव (तुमं के०) तुं (बुज्झसु के ) धर्मने विषे बोध पाम्य. अने (नाऊ के०) धर्मने जाणीने (जिणममि के०) जिनशासनने विषे ( मामुज्झसि के०) मोह न पाम्य. एटले सम्यक प्रकारे जिनधर्म अंगीकार कर्थ. (जम्हा के०) जे हेतु माटे (जीव के०) हे जीव ! (पुणरवि के० ) फरीने पण (एसा के०) आ (सामग्गी के०) धर्म सामग्री जे ते (दुल्ला के ० ) दुर्लभ छे. एटले फरी फरीने धर्म सामग्री मलवी दुर्लभ है. ॥ ९२ ॥ भावार्थ - हे आत्मन् ! धर्म साधन करवाना अंगरूप एटले मनुष्यनो भव, शुद्ध श्रद्धा, संजम, अने तेने विषे वीर्यनुं फोरaj, ते फरी फरीने चक्रवेधनी पेढे, मलवं महा दुर्लभ के एटले काकतालीया न्यायथी एक बखत त ल्युं छे, ते फरीधी मल अत्यंत दुर्लभ छे. ॥ ९२ ॥ दुर्लभ पुनः जिनधर्मः एकशोलब्धः त्वं प्रमादस्याकरः खानिः सुखैषोऐहिक मुखत्रांकः च दुर्लहो पुर्ण जिणर्धम्मो । तुम पमायांगरो सुसी यं ॥ दुःसहं अस्ति च नरकदुःखं कथंत्यं भविष्यसि अतः कारणात् सत् न जानीमः परलोके दुहं च नरयदुक्खं । कँह होहिसि " मैं याणामो ॥ ९३ ॥ अर्थ - हे जीव ! आ (जिणधम्मो के०) आ पामेलो जिनधर्म जे ते, (पुण के०) वली फरीथी पामवो (दुलहो महादुर्लभ छे, अने (तुम के०) तुं (पमायायरो के०) प्रमादनी खाग छे. अने (य के०) वलो (सुहेसी के०) सुखनी वांछा राखे छे, ते सुख त क्यांथी मलशे ? (च के० ) अने (नरयदुःखं के०) नरकनां दुःख जे ते (दुसहं के०) दुःखे 2010_05 भाषांतर सहित ॥१५६॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यId करीने पण सहन करवां कठण छे. माटे (तं के०) ते (न याणामो के०) हुं नधी जागतो के, (कह होहिसि के०) तुं किये भाषांतर शतकम् || प्रकारे थइश ? एटले तहारी शी गति थशे ? ते हुं नधी जाणतो. | सहित ॥१५७॥ भावार्थ-श्रीआवश्यक नियुक्तिमा कयुं छे के, आलसधी साधु पासे जइने धर्म सांभली शकतो नथी, तथा ॥१५७॥ IM मोहथकी घरनी जंजालने विषे मूढ थइने रह्यो छे. अर्थात् साधु पासे जइ नित्य शुं सांभलकुं छे ? घणीवार सांभ-d RH लेलं छे. एम धारीने धर्म सांभलवानी अवज्ञा करे छे. तथा जात्यादिकना अभिमानथी तथा क्रोधथी तथा प्रमादथी । एटले मद्यादिक कुव्यसन सेववाथी तथा कृपणपणाथी एटेले जो उपाश्रे जइशं, तो कोई धर्ममार्गनी टीपमा लोकला. जथी कांड आप पडशे, तथा भयथी एटले जो उपाश्रेजशं, तो नरकादिकनां दाख सांभलवा पडशे.तथा शोकथी। | तथा अज्ञानथी एटले भाइबंध दोस्तारना कहेवाथी तथा व्याक्षेपथी एरले जाणी जोइने घणी जंजाल उभी करवाथी तथा कुतूहलथी एटले गीत नाटकादिकना छंदमां पडवाथी तथा रमणधी एटले जनावरनी साथे क्रीडा करवाथी | इत्यादिक अनेक कारणोथी पामेलं एवं पण मनुष्यपणुं एले गमावे छे. एटले भव समुद्रथी तारनार अने सकल सु| खने आपनार एवा जिनधर्मने करतो नथी, अने संसारिक सुखनी वांछा करे छे. पण हे जीव ! तु सामान्य दुःख पण सहन करी शकतो नथी, त्यारे नरकनां दासह दाव तहाराथी केम सहन थशे? अने परलोकमांतहारी शी गति थशे ? एम गुरु महाराज उपदेश करें छे. ॥१३॥ IIww.jainelibrary.org Jain Education Internet 1010_05 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर | सहित ॥१५८॥ अस्थिरेण स्थिरः समलेन निर्मलः परवशेनरोगादिना स्वाधीनः वैराग्य अधिरेण थिरो समले । ण निम्मैलो परसेण साहीणो॥ शतकम् देहेन यदि उपाय॑ते धर्मः तदा किं न पर्याप्तं किं न संपन्न ॥१५८॥ देहेने जंइ विढप्पइ । धम्मो ता कि में पजतं ॥ २४ ॥ अर्थ-रे जीव (जड के०) जो (अथिरेण के०) अस्थिर एवा, तथा (समलेण के०) मलसहित एवा, अने (परवk सेण के०) परवश एवा (देहेण के०) देहवडे (थिरो के०) स्थिर एवो, अने (निम्मलो के०) निर्मल एवो. अने (साही | णो के०) पोताने स्वाधीन एवो (धम्मो के०) धर्म जे ते (विढप्पइ के०) उपार्जन थइ शके छे, तो (नता के.) त्यारे | Ka सहारे (किं न पजतं के०) शुन प्राप्त थयुं ? अर्थात् सर्वे प्राप्त थयुं थयु. ॥ ९४ ॥ भावार्थ-हे जीव ! आ अशाश्वता देहवडे परलोकमा निरंतर सहायकारी एवो धर्म उपार्जन थाय छे, तो | ANY परिपूर्ण थयु ? अर्थात् सर्वे परिपूर्ण थयु. एटले घणो महोटो लाभ मल्यो, एम जाणवू. तेमज आ मलमूत्र भरेला देहवडे निर्मल एवो जिनधर्म उपार्जन थाय तो, शुपरिपूर्ण लाभ न मल्यो कहेवाय ? अर्थात् जगत्मा जेटला लाभ कहेवाय छे, ते सर्वे लाभ मली चूक्याज कहेवाय तेमज रोगादिकने आधीन एवा देहवडे जो स्वाधिन | एवो जिनधर्म मले, तो शुं एने काइ पण मलवानी खामी रही कहेवाय ? अर्थात् नज कहेवाय. ते का छे के, चिन्तारत्नमनयं चेत्याप्यते काचसंचयैः । रेणुना चेद्विरण्यं चेत्सुधाब्धिनीरबिन्दुना ॥ १ ॥ _JainEducation inten 0 10_05 For Private & Personal use only w.jainelibrary.org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैराग्य गृहेण यदि साम्राज्यं देहेन सुकृतं यदि । कस्तदा तन्न गृह्यीयासस्वातत्वविचारकः ॥ २॥ युग्मम् ॥ . अर्थ-सत्व अने अतत्त्वनो विचार करनार (बुद्धिमान पुरुष मे ते. काचना ककडा साटे. अमुल्य एवा चिताम- तर शतकम् सहित FI णिरत्नने कोण न ग्रहण करे ? तथा धूल आपीने सोनू कोण न ग्रहण करे ? तथा पाणीनो बिंदु आपीने अमृतना | Ji ॥१५९॥ समुद्रने कोण न ग्रहण करे ? तथा पोताने रहेवार्नु झुपडं आपीने चक्रवर्तिनुं राज्य कोण न ग्रहण करे ? अर्थात् ॥१५९॥ तत्त्वातत्त्वना विचारनार तो तरतज ग्रहण करे. तेवीज रीते आ मलमूत्रादिके करीने भरपूर एवा देहवडे पूर्वे कहेला चिंतामणीरत्र समान जैनधर्मने कोण न ग्रहण करे ? अर्थात् जे महामूर्ख होय तेज न ग्रहण करे. ॥ १ ॥२॥ ___ एवी रीते विचारीने आ महामलिन एवा शरीर उपरथी मोह उतारीने, जेम बने तेम सुद्ध एवा धर्मने ग्रहण कर्य यथा चिंतामणिरत्ने मुलभं न निश्चये भवति तुत्यविभवनां अल्पपुण्यानां जंह चिंतामणिरयणं । सुर्लह नै हुँ होइ तुस्थविहेवाणं ।। गुणविभववर्जितानां जीवनां तथा धर्मरत्नमपि गुणविहवंवजियाणं । जियाण तह धम्मरयगंपि ॥ १५ ॥ ___ अर्थ--हे जीव ! (तुत्थविहवाणं के०) तुच्छ विभववालाने (जह के०) जेम (चिंतामणिरयणं के०) चिंतामणिरत्न जे ते (सुलह के०) सुलभ एवं (न हुहोइ के०) नज होय (तह के०) तेम (गुणविहववज्जियाणं के०) गुग रुप वैभवे hal करीने रहित एघा (जियाण के०) जीवोने (धम्मरयणंपि के०) धर्मरत्न जे ते पण सुलभ न होय. ॥ ९५ ॥ ك ان الفنان فنان للحفلات والمعدات GOODCOULDULDC JainEducation International 2010_05 For Private & Personal use only Jaw.jainelibrary.org Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ १६०॥ Jain Education Interna 毛毛 भावार्थ - तुच्छ विभववाला जीवोने एटले पशुपाल जेवा स्वल्प पुण्यवाला प्राणिओने, जेम चितामणिरत्न सुखे पामवा जोग्य न होय, अर्थात् पुण्यहीन जीवो, जेम चिंतामणिरत्न पामी शके नही, तेम सम्यक्त्वादिगुणरूप विभवे करीने रहित एवा प्राणियो, शुद्ध धर्मरूप रत्नने पामी शके नही. जे जयदेव कुमारनी पेठे घणा पुण्यरूप गुणोए करीने भरेला होय, तेज प्राणीयो, आ मनुष्यगतिने विषे चिंतामणिरत्न समान सद्धर्म प्रत्ये पामे छे. ॥ ९५ ॥ कथा ८ मी इहां पशुपाल अने जयदेवनं वृत्तांत आ नीचे प्रमाणे. हस्तिनापुर नगरने विषे नागदेव नामा शेठनी वसुंधरा भार्यांनी कुखमां उत्पन्न थएलो जयदेव नामे पुत्र हतो, तेणे बार वर्ष सुधी रत्ननी परिक्षानो अभ्यास कर्यो. त्यारपछी ते शास्त्रना अनुसारे महा प्रभाववालं चिंतामणिरत्र जाणीने बीजा मणिओने पथरातुल्य गणीने तेज चिंतामणिरत्नने मेलववा माटे सर्व नगरने विषे हाट हाट अने घर घर प्रत्ये भमतो हतो; परंतु ते रत्न क्यहि पण पाम्यो नही. त्यारे खेद पामीने मात पिताने कहेतो हवो के, महारु चित्त चिंतामणिरत्नने विषे लाग्युं छे. माटे अने अर्थे बीजे ठेकाणे जश. त्यारे माता पिताए कहीं. हे पुत्र ! आतो निश्चे कल्पनाज छे. परंतु परमार्थ थकी चिंतामणी नथी, ते कारण माटे तुं पोतानी खुशी प्रमाणे बीजां रत्नोथी व्यापार कर. एवीरीते बहु कथं, परंतु जयदेव, चिंतामणी पामवानो निश्चय करीने हस्तिनापुरथी नीकलीने घणा पर्वत, नगर, गाम, खाण, करवट, पत्तन, समुद्रतीर एटला स्थानकोने विषे ते चिंतामणीने खोलतो सतो घणा काल 2010_05 भाषांतर सहित ॥ १६०॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. भम्यो; परंतु क्याहि ते रत्न पाम्यो नही. पछी उदास मनवाडो थइने पोताना मनमा विचार करवा लाग्यो के, शुं! बेराग्य | भाषांतर शतकम || आ चिंतामणीरत्न साचु छ ? के जूढुं छे ? जे माटे क्याहि पण देखवामां आवतुं नथी !! अथवा शास्त्रमा कहेलं || सहित ते मणिर्नु छतापणुं फेरफार न होय; माटे क्यांहि पण हशे. एवो निश्चय करीने फरीने पण घणी मणिनी खाणो ॥१६१॥ जोतो सतो ते रत्ननी घणो खोळ करवा लाग्यो. त्यार पछी एक दहाडो कोइ वृद्ध पुरुषे तेने कर्जा के, हे भद्र ! इहां ॥१६॥ | एक मणीनी खाण के तेने विषे जे पुण्यवंत प्राणी होय, ते चिंतामणी पामे. पछी जयदेव तेना वचनधी त्यां जइने | | चिंतामणी खोलवा लाग्यो. ते अवसरे त्यां एक मंदबुद्धिवाला पशुपालना हाथमां गोल आकारवालो पथरो देखीने ते पथराने शास्त्रमा कहेला लक्षणोये करीने चिंतामणी जाणीने, ते जयदेवे ते पशुपालनी पासे माग्यो. त्यारे पशुपाले |JE | कहूं. तमारे आ पथरानुं शुं काम छे ? जयदेवे कबुं हुं महारे घेर जइने छोकराओने रमवा आपीश. पछी पशुपाले JE का, इहां आवा घणा पथरा पड्या छे, ते तमे पोतेज केम लेना नथी ? जयदेव बोल्यो. हमगां महारे घेर जावानी | उतावल छे, माटे एज मने आप. तुं इहांथी बीजो पामीश. एवारीते कहां तोपण ते पशुपाले परने उपकार करवाना कारबुद्धिये करीने तेने का. हे भद्र ! जो तुं मने नथी । आपता, तो तुं पोतेज ए चिंतामणीरत्ननुं अराधन कर्य, जेथी आ चिंतामणी तने पण वांछित फल आपे. त्यारे । | पशुपाले कछु जो आ चिंतामणी साचुं छे, तो महारु चिंत्वन करेलु बहु बोरडीना फलनुं चरणादिक शीघ्र आपो. | hall त्यारे लगारक हसीने जयदेवे का, अहो ! एम न विचारीये त्रण उपवास करोने संध्या समये ए मणिने शुद्ध Jain Education Internal 010_05 For Private & Personal use only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥१६२॥ Jain Education Inter पाणी पखालीने शुद्ध भूमिये उंचे स्थानके स्थापन करीने चंदन, बराम, फूलादिकवडे पूजीने अने वली नमस्कार करीने पछी एनी आगल जे पोताने इष्ट होय, ते चित्वन करीए, ते सर्व पण प्रातःकालमां पामीये. ए प्रकारे सांभ लीने ते पशुपाल पोतानी बोकडीयोना समूहने लेइने गामना सन्मुख गयो. त्यार पछी जयदेवे निश्रय कर्यो के, पुण्यरहित एवा आना हाथमां आ चिंतामणीरत्न नही रहे, एम विचारीने जयदेव पण तेनी पूंढे चाल्यो. हवे पशुपाल मार्गने विषे चालतो सतो कहेवा लाग्यो के, हे मणे ! हमण आ बोकडियो वेचीने बरास इत्यादिक लावीने तहारा पूजा करीश. तहारे पण महारो चिंतित अर्थ पूरवाने विषे उद्यम करवो. वली हे मणे ! हजी गाम पण छेटे छे, माटे rain कथा कहे अने जो तुं न जाणता होय तो हुं तने कहुं. तुं सांभल्य. एक नगरने विषे एक हाथनुं देहेरु अने तेमां चार हाथना देव छे. ए प्रकारे वारंवार मणिनी आगल क, तोपण ते मणि बोलतो नथी. तेलामां ते मूर्ख रोष चढावीने ते मणिने कहेतो हवो. अरे! जो तुं हुंकारो पण आपतो नथी, तो वांछित अर्थ निष्पन्न करवाने विषे तहारी शी आज्ञा ! ! अथवा तहारुं नाम चिंतामणी ए साधुं छे. जू नथी. केमके, तने पाम्यो त्यांची मांडीने महारानी चिंता जती नथी !! वली जे हुं राब अने छास विना क्षणमात्र पण रही न शकुं, ते हुं तहारा माटे करवा nister एवात्रण उपवासे करीनेज मरण पासुं. ते माटे एम मानुं हुं के, आ वाणियाये मने मारवाने माटे तारुं वर्णन क जणाय छे ! ते माटे तुं त्यां जा, के, ज्यां फरीने महारे देखवो न पडे. एम कहीने तेणें ते मणिने छेटे नांखी दीघो. ते अवसरे जयदेवे आनंद पामीने तत्काल नमस्कार करीने चिंतामणी ग्रहण करीने, संपूर्ण थयो छे 2010_05 भाषांतर सहित ॥१६२॥ . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित 11१६३॥ Ka मनोरथ ते जेनो एवो सतो पोताना नगरने सन्मुख चाल्यो. मार्गमां महापुर नगरने विषे मणिना प्रभावथी जेने | वैराग्य भाषांतर शतकम् घणु द्रव्य प्राप्त थयुं छे एवो ते कुमार सुबुद्धि शेठनी रत्नवती नामे पुत्री तेने परणीने बह परिवार सहित हस्तिनापुर DO नगरे आव्यो. आवीने पोताना माता पिताने पगे लाग्यो. ते अवसरे तेवी समृद्धि सहित तेने जोइने माता पिता आनंद पाम्यां, अने तेनी प्रशंसा करवा लाग्यो. अने कुटुंबी लोको तेनुं सन्मान करवा लाग्या. अने बीजा लोको | पण तेनी स्तवना करवा लाग्या. पोते जीवाजीव सूधी सुखी थयो. ए प्रकारे धर्मल्प रत्ननी प्राप्तिने विषे पशुपाल dl अने जयदेवनो उपनय कयो. यथा दृष्टिसंयोगः न भवति जात्यंधाना जीवानां जेह दिहीसंजोगो । न होई जच्चंधयाण जीवाणं ॥ तथा जिनमतसंयोगः न भवति मिथ्यात्वेन अंधनां जीवानां तह जिणमयसंजोगो । होई मित्थंधजीवाणं ॥ ९६ ॥ अर्थ-(जह के०) जेम (जचंधयाण के०) जन्माराधीज अंध एवा (जीवाणं के०) जीव जे तेमने (दिट्टीसंजीगो | के०) दृष्टिनो संयो जे ते एटले आंखे करीने देखq (न होइ के०) न होय. (तह के०) तेम (मित्थंधजीवाणं के०) मिथ्यात्वे करी करीने आंधला एवा जीवोने (जिणमयसंजोगो के०) जिनमतनो संयोग जे ते. एटले जिनमतनी प्राप्ति (न होइ के०) न होय. ॥ ९६ ॥ Jain Education Inter i |2010_05 For Private & Personal use only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-जेम जन्माराधी अंध थएला पुरुषोने स्थल पदार्थ पण देखवामां आवतो नथी, तेम मिथ्यात्वरूप कुवावैराग्य भाषांतर सनाये करीने विवेकरूप चक्षुए रहित थएला जीवोने पण, जिनशासनरूप सूर्य दीठामां आवतो नथी. एटले जिनशतकम् | सहित शासनी प्राप्ति नथी. ॥ ९६ ॥ ॥१६४॥ प्रत्यक्ष अनंतगुणे जिनेंद्रधर्मे न दोपलेशोपि र ॥१६४॥ पञ्चखेम ऽणतगुणे । जिणिधम्मे ने दोसलेसोवि ॥ तथापि निश्चये अज्ञानेन अंधाः न रमंते कदापि तस्मिनजिनमते जीवाः तहवि हु अन्नाणंधा । मैं मंति कयावि तंमि जिया ॥ १७ ॥ अर्थ- (पच्चखं के०) प्रत्यक्ष प्रमाणे करीने सिद्ध एवो, अने (अणंतगुणे के०) अनंता छे गुण ते जेने विषे एवो | RI (जिणिधम्मे के०) जिनेंद्रनो धर्म तेने विषे (दोसलेसोवि के०) अपयश प्रमुख दोषनो लेश पण (न के०) नथी. P. (तहवि के०) तोयपण (अन्नाणधा के०) अज्ञाने करीने आंधला एवा (जिया के०) जीव जे ते (हु के०) निश्चे (तमि |JE | के०) ते जिनेंद्रभाषित धर्मने विषे (कयावि के०) क्यारे पण एटले कोइ वखत पण (न रमंति के०) नथी रमता. एटले नधी जोडाता !॥ ९७ ॥ | भावार्थ-आ लोकने विषे यश, अने परलोकने विषे स्वर्ग तथा मोक्षनां सुख आपवारूप गुणवाला, अने जेने | विषे कांड पण दोष नथी एवा, श्री जिनेंद्रधर्मने प्रत्यक्षपणे देखे छे, तोय पण अज्ञाने करीने आंधला एवा जे पुरुषो. Tww.aimelibrary.org _Jain Education inten 2 01005 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D शतकम् वराग्य5 ते जेम जे वस्तु छे, तेम ते वस्तुने जणावनार एवा श्रीजिनधर्मने अंगीकार नथी करता. ॥ ९७ ।। मिथ्यात्वे अनंतदोषाः प्रकटा दृश्यते न अपि च गुणलेशः ॥ भाषांतर मित्थे अणंतदोसा । पयडा दोसंति नै वि यं गुणलेसो।। ॥१६॥ तथापि च तं एव जीवाः हीति विस्मये मोहांधाः निषेवते तहविय "तं चे जियो । 'हो मोहंधी निसेवेति ॥ १८ ॥ ___ अर्थ-(मित्थे के०) मिथ्यात्वने विषे (पयडा के०) प्रकट एवा (अगंतदोसा के०) अनंत दोष जे ते (दीसंति के०) | देखाय छे. (य के०) वली तेमां (गुणलेसो वि के०) गुणनो लेशमात्र पण (न के०) नथी (तहविय के०) तोय पण JE | (मोहंधा के०) मोहे करीने आंधला एवा (जिया के०) जीव जे ते (तं चेव के०) ते मिथ्यात्वनेज (निसेवंति के०) सेवे | | छे. ते (ही के०) निश्चे घणुंज आर्य छे !!! भवार्थ-कुगुरु कुदेव अने कुधर्म तेमनो अंगीकार करवारूप अध्यवसायने विषे एटले मिथ्यात्वने विषे नरक RS पातादिक अनंत दोष प्रकट देखाय छे, पण तेमां गुणनो तो लवलेश पण देखातो वथी. तोयपण मोहे करीने अंध Dt1 थएला जीवो, ते मिथ्यात्वनोज आश्रय करे छे. एटले ते मिथ्यात्वनेज अंगीकार करे छे परंतु जिनधर्म अंगीकार नथी करता. धिधिक् तत् तेषां नराणां विज्ञानेशिल्पे तथा गुणेषु कुशलत्वंयत् धिंधी ताणं नारीणं । विनाण तह गुणेनु कुशैलत्तं ।। ohoripoppoCOM JainEducation inter 010.00 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषांतर शतकम् सहित ॥१६६॥ सुखरूपे सत्यरूपे धर्मरत्ने सुपरीक्षां ये न जाति बैराग्य सुहसच्चधम्मेरयणे । सुपरिक्खं जे न जाणेति ॥ ९९ ॥ अर्थ-(सुहसच्चधम्मरयणे के०) सुखकारी अने सत्य एवा धर्मरूप रत्नने विषे (जे के०) जे पुरुषो (सुपरिक्खं ॥१६६।। भली रीते परिक्षाने (न जागति के०) नथी जाणता. अर्थात् नधी जाणी शकता, (ताणं के०) ते (नराणं के०) पुरु | षोना (विनाणे के०) विज्ञानने विषे (तह के०) तथा (गुणेसि के०) गुणने विषे, (कुसलत्तं के०) कुशलपणाने (घिद्धि | | के०) धिक्कार थाओ ! धिक्कार थाओ !!॥ ९९ ॥ ____ भावार्थ-जगत्ने विषे जे पुरुषोनुं शिल्पचातुर्य, कलाकौशल्य, औदार्य तथा शौर्य धैर्यादिकने विषे कुशलपणुं । hal घणुंज वखणाय छे, एटले रबादिकनी परक्षा करवामां घणा डाह्या कहेवाय छे, ते पुरुषो सुखकारी अने सत्य एवा hd Pa| धर्मरूप रत्ननी परीक्षा, जो न करी शक्या, तो तेमना सघला डहापणपणाने अतिशे धिक्कार थाओ ! ! धिक्कार थाओ !!! ते उपर शास्त्रमा कयुं छे के, बहोतेर कलामां कुशल एवा पंडित पुरुषो होय, तोपण जो तेमणे सर्व कलामां श्रेष्ट एवी जे धर्मनी कला नथी जाणी, तो ते निश्चे अपंडितज जाणवा. माटे सर्व परक्षा करतां धर्मरूप रत्ननी | परिक्षा करवी, तेज श्रेष्ठ परीक्षा छे. ॥ ९९॥ ॥ अनुष्टुप् वृत्तम् ॥ जिनधर्मः अयं जीवानां अपूर्वः कल्पपादपः जिर्णधम्मो ऽयं जीवाणं । अपघुवो कप्पंपायवो ।। الفصل الثالث لكن ومنعون اور Jain Education Interest | 2010_05 For Private & Personal use only Diww.jainelibrary.org Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गापवर्गसुखानां फलानां दायकः अयं वैराग्य भाषांतर शतकम् सग्गापवर्गसुक्खाणं । फलाणं दायगो ईमो ॥ १० ॥ सहित अर्थ-(अयं के०) आ (जिणधम्मो के०) जिनधर्म जे ते (जिवाणं के०) जीवोने (अप्पुवो के०) अपूर्व एटले | ॥१६७॥ IN अप्रसिद्ध एवो (कप्पपायवो के०) कल्पवृक्ष छे. केमके, (इमो के०) ए जिनधर्मरूप कल्पवृक्ष जे ते (सग्गापबग्गसु-1| ॥१६७।। | क्खाणं के०) स्वर्ग एटले देवलोक अने अपवर्ग एटले मोक्ष तेना सुखरूप (फलाणं के०) फलनो (दाइगो के०) आपनरो छे. | K भावार्थ-आ जिनधर्मरूप कल्पवृक्ष अपूर्व छे. एटले प्रसिद्ध कल्पवृक्ष तो. फक्त आ लोकने विषे रहेलां पुद्गलिक J सुखनेज आपनार छे. परंतु आ धर्मरूप कल्पवृक्ष तो, स्वर्गादिक फलने तथा मोक्ष फलने आपनार छे. माटे अपूर्व | कल्पवृक्ष कह्यो. एवू जाणीने तेनोज आश्रय करवा. ॥ १०० ।। धर्मः बंधः सुमित्रं च धर्मः च परमः गुरुः धम्मो बंधु सुमित्तो यं । धम्मो ये परमो गुरु ।। मोक्षमार्गवृत्तानां धर्मः परमास्यंदनःस्थः मुक्खमग्गैपयट्ठाणं । धम्मो परमैसंदणो ॥ १०१॥ अर्थ–रे जीव ! (धम्मो के०) आ जिनधर्म जे ते (बंधु के०) बंधु [भाइ] समान छे. (य के०) वली (सुमित्तो or के०) सारा मित्र समान छे. (य के०) वली (धम्मो के०) धर्म जे ते (परमो गुरु के०) उत्कृष्टा गुरु समान छे. चली ते I __JainEducation interdMIT 2010-05 PLwjainelibrary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यशतकम् | ते (धम्मो के) धर्म जे ते (मुक्खमग्गपयाणं के०) मोक्ष मार्गने विषे प्रवर्तेला पुरुषोने (परमसंदणो के०) उत्कृष्टा २६ | भाषांतर रथ समान छे. ॥ १०१॥ साहेत Ni भावार्थ-जेम आपद कालने विषे भाइ सहायता करे छे, तेम संसाररूप आपकालनां, आ जिनधर्न पण ॥१६॥ rai सहायता करे छे; माटे भाइ समान छे. तथा सारो जेम हितकारी अर्थने मेलवी आपवाथी सुख करे छे, तेम आ ॥१६८॥ धर्मरूप मित्र पण मनोवांछित सुख मेलवी आपवाथी सुमित्र समान छे. तथा गुरु जेम असत् मार्गथी पाछो वाले छ तेम आ जिनधर्म पण, नरक तिर्थचादिक दुर्गतिमां जवाथी पछो वाले छे. माटे उत्कृष्टा गुरुममान छे. तथा रथे करीने जेम मार्गमां सुखे सुखे जवाय छे, तेम धर्मरूप रथे करीने मोक्ष मागमा सुखे सुखे जइ शकाय छे. माटे धर्मने । ॐ परम रथ समान कह्यो छे. एवं जाणीने आवा जैनधर्मने विषे उद्यम करवो. ॥ १०१ ॥ ॥ आर्यावृत्तम् ।। चतसृणांगनीनांयान्यनंतानिदुःखानितान्येवानलस्तेनपदीप्तेभवकानने महाभीमे च उगइणंतदुहानल । पलितभवकाणण महाभीमे ।। सेवस्व रेजीव त्वं जिनवचनं अमृतकुंडसमं सेवसुरजीव तुम । जिणवयणं आभयकुडसम ॥ १०२॥ अर्थ-(महाभीमे के०) महाभयंकर एवं (चउगइणंतदुहानल के०) च्यार गतिमा रहेलां एवां अनंतां दुःखरूप انشالله تداع في الانتقال به این باند باع والو Jain Education Intern 12010_05 For Private & Personal use only w ww.jainelibrary.org Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ phore भाषांतर सहित ॥१६९॥ Ra महोटा अग्निये करीने (पलितभवकाणणे के०) लागतुं ए, जे संसाररूप बन, तेने विषे (रेजोव के०) हे जीव ! (तुम 1 के०) तुं (अमियकुंडसमं के०) अमृतना कुंड समान (जिणवयणं के०) जिनराजना बचनने (सेवसु के०) सेवन कर्य शतकम् D] एटले सिद्धांतमा कहेला अनुष्ठानने विधिसहित अंगीकार कर्य ॥ १०२ ।। ॥१६९। । भावार्थ-आ संसाररूप भयंकर दावानलथी दाझेलो एवो जे तुं, ते जिन वचनरूप अमृतना कुंडमां मग्न था. If | अर्थात् रूडा अनुष्ठानने ग्रहण कर्य. जेथी तने अपूर्व सुखशांति थशे. ॥ १० ॥ विषमे भवएवमरुदेशे । अनंतदुःखान्येवग्रीष्मतापस्तेनसंतप्ते विसमे भर्वमझदेशे । अणंतदुहगिम्हतावसंतत्ते ॥ जिनधर्मएवकल्पवृक्षस्तं स्मर त्वं हे जीव शिवसुखदं जिणधम्मक परक्खं । सरसु तुम जीवे सिर्वसुहृदं ।। १०३ ॥ अर्थ-[जीव के०] हे जीव ! [विसमे के०] विषम एटले चालनारने दुःखकारी एवा, अने [अणंतदुहगिम्हताव- ina Pसंतत्ते के०] अनंतां दुःखरूप ग्रीष्मऋतुना तापवडे सारी पेठे तपेला एवा [भवमरुदेसे के०] संसाररूप मारवाड देशने | विषे [सवसुहदं के०] मोक्ष सुखने आपनार एवा [जिणधम्मकप्परुक्ख के०] जिनधर्मरूपे कल्पवृक्षने [तुमं के०] तुं OE [सरसु के०] आश्रय कर. [आ जग्याये टीकाकारे कल्पवृक्षनु स्मरण कर्य. एवो अर्थ कर्यो छे, ते विचारवा योग्य छे. | भावार्थ-हे जीव ! संसारनां अनेक दुःखरूप मारवाड देशनी तपेली रेती, तेमां भ्रमण करता प्राणीयोने بك فالنسيا ل الالالالالالالالالالالالالالالالالك والعرفاات لالالالالحافلات العمل لالالالالالالالالالالالالالالالالالالفنانال Jain Education Intern SHEIL 010 05 ENww.jainelibrary.org Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य शतकम् ॥ १७० ॥ Jain Education Interna महाभाग्ये प्राप्त था जिनधर्मरूप कल्पवृक्ष, तेज आश्रय करवा योग्य छे. के, जेथी सकल वांछित सुखनी सिद्धि थाय छे. ॥ १०३ ॥ कि बहुना जिनधर्मे यतितव्यं यथा वात्मा भवदधि घोरं किंबहुना जिधम्मे । जयवं जेह भवोर्हि धोरं || घुशी तो अनंतसुखं लभते जीवः शाश्वत स्थानं लहु तरिम ऽणंतसुहं | लहें जिओ साय ठाणं ॥ १०४ ॥ आत्मन् ! [कं बहु ०] घणुं कहेवे करीने शुं ! ते प्रकारे [जिणधम्मे के० ] जिनधर्मने विषे [जइव्वं के० ] यत्न करवो. (जह के०) जेम (जिओ के०) जीव जे ते (घोरं के०) भयानक एवा (भोदहिं के०) संसाररूप समुद्रने (लहू के०) शीघ्रपणे (तरियं के०) तरीने (अनंतसुहं के०) अनंतु छे सुख ते जेने विषे एवं (सासयं ठाणं के०) शाश्वतुं स्थान एटले मोक्ष, तेने (लहइ के० ) पामे || १०४ ॥ भावार्थ - हे भव्य जीवो ! आखा ग्रंथनो सारमां सार एटलोज कहेबानो छे के, जिनधर्मने विषे प्रमाद रहितपणे प्रयत्न करो. के, जेथी तमने मोक्षतुं शाश्वतुं सुख प्राप्त थाय. ते सुखनुं वर्णन थइ शके तेम नथी, तेम छतां जो तेना स्वरूपने जाणवानी मरजी होय तो श्रीआचारांगजी सूत्रना पांचमा लोकसार नामना अध्ययनमां जोड़ लेजो. ॥ १०४ ॥ 2010_05 भाषांतर सहित ॥ १७० ॥ . Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सहित वैराग्य- आ ग्रंथना जणाव्यु छे के सागरोपमर्नु तथा पुद्गलपरावर्तन, स्वरूप ग्रंथने अंते जाणवीशुं. तो ते जणावीए छीए. भाषांतर शतकम् अति सूक्ष्मकालने एक समय कहे छे. तेवा असंख्याता समये एक आवली थाय. तेवी (१६७७७२१६) एकक्रोड | ॥१७१॥ ४ मडसठ लाख शित्तोतेरहजार यशे ने सोल आव टीये, एक मुहर्ने थाय छे. तेवा त्रीश मुहर्ने एक अहोरात्रीरूप : | दिवस धाय छे. तेवा पंदर अहोरात्रीए एक पखवाडियुं थाय . तेवा बे पखवाडिये एक महिनो थाय छे. तेवा बार |J ॥११॥ FI महिने एक वर्ष धाय के तेवा असंख्याता कोडाकोडी वर्षे एक पेल्योपम थाय छे. तेवा दश कोडाकोडी ५ | एक अद्धा सागरोपम थाय. ॥ इति सागरोपम प्रमाणम् ॥ १ इहां पल्योपम त्रण प्रकारना छे. ते कहे छे. १ उद्धार पल्योपम २ अद्धा पल्योपम. ३ क्षेत्र पल्योपम. तेमां वली एककना || बादर अने सूक्ष्म एवा वे भेद छे. तेमांना अद्धा पन्योपमनु स्वरूप जणावीए छीए केमके, आ बादर अद्धा पल्योपमे करीनेन | जीवोनां आउखां कायस्थिति, कर्मस्थिति, पुद्गलस्थिति आदिकनु प्रमाण गणाय छे माटे, ते अद्धा पल्योपमना पण मूक्ष्म अने बादर एवा वे भेद छे, तेमां प्रथम बादर अद्धा पल्योपमनुं स्वरूप कहीए. देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्रमा जन्मेलां जुगलियांना बाल ते एवा के. जे जुगलने जन्मे एक बे यावत सात दिवस थया होय, तेवा RMI जुगलियाना केश (वाल) लेइने तेना एवा ककडा करवा के, ते ककडानो बीजो भाग ककडो थइ शके नहीं. तेवा वालाग्रने च्यार | गाउनो लांबो, च्यार गाउो पहोलो अने च्यार गाउनो उडो एका कवोमां ते वालाग्रहने एवा ठांशीठांशीने भरीये के तेना उपर ___JainEducation Internation201005 For Private & Personal use only I M ww.jainelibrary.org Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैराग्यशतकम् ॥ १७२ ॥ 元毛儿儿 एज रीते एंटले पूर्वे कथा वा दश कोटाकोडि सागरोपमे, उत्सर्पिणी अने बीजा दश कोड (कोडि सागरमे, अवसर्पिणी थाय. ए वे मलीने वीश कोडाकोडि सागरोपमे, एक कालचक थाय. एवा अनंना कालचक्रे एक पुल परार्त्तन थाय ॥ इति पुगलपरावर्त्तन प्रमाणम्. ॥ थइने चक्रर्त्तिनुं सैन्य चाले, तोपण ते बालाय हाली शके नहीं, तथा अग्निये वली शके नही, तथा पाणीए करी भींजाय नही. एटले तेनी अंदर पाणी उतरी शके नही. तथा वायरे करी ते वालाग्र उडी शके नही, एवा ठांसीठांसीने भर्या होय, पछी ते वालाग्रह एकेको ककडो सो लो वर्षे काढीए, ते काढतां काढतां ज्यारे ते कुत्रो तमाम खाली थाय, त्यारे एक अद्धा बादर पल्योपम थाय. तेनां संख्यातां कोडाकोडि वर्ष थाय. आ दृष्टांत कथनमात्र छे. केमके, आ प्रमाण गगत्रीमां आवतुं नथी. गगत्रीमां तो सूक्ष्म अद्धा पल्योपम आवे छे. तेनु स्वरूप नीचे कढीए छोए. पूर्व का एवा जुगलियाना एकेका वालाग्रहना, असंख्याता खंड कल्पना ते बालाग्रना खंडे करी पूर्वे कह्या प्रमाणे, ते कुवा ठांशी ठांशीने भरीये. पछी तेमांथी पूर्वनी पेठे एकेको वालनो ककडो सो सो वर्षे काढए पछी ज्यारे ते कुवो तमाम खाली थाय, त्यारे एक सूक्ष्म अद्धा पल्योपम थाय तेनां असंख्यातां कांडाकोडी वर्ष थाय. तेवा दश कोडाकोडी सागरोपमे एक अद्धा सागरोपम थाय, एवीरीतना सागरोपमनुंममाण आ जग्याए जाणवुं आ वर्गांनो विशेष विस्तार श्री अनुयोगद्वार सूत्रमां तथा पांचमा कर्म ग्रंथां छे. त्यांथी विस्तार अर्थिये जोड़ लें. ॥ श्रीवैराग्यशतकम् समाप्तम् श्रीरस्तु ॥ Jain Education Intem 29 2010_05 भाषांतर सहित ॥१७२॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 IDIIOINC ॥ इति श्रीवैराग्यशतकम् समाप्तम् ॥ 1000 . Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 For Private & Personal use only