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________________ वैराग्यः शतकम् ॥ ४६ ॥ Jain Education Inter संसारे तस्मात् विरम ततः ऋद्ध्यादिभ्यः यदि जानासि तदा आत्मानं सुखिनं संसारे । ता विरमसु । ततो जड़ मुसि अप्पणं ॥ २५॥ अर्थ - (संसारे के०) संसारने विषे (सव्वाओ के ० ) सर्व एवी (रिद्धीओ के ० ) ऋद्धियो जे ते. तथा (सच्चेवि के० ) सर्व एवा पण (सयणसंबंधा के०) स्वजन संबंध जे ते (पत्ता के०) पाम्यो छे (तो के०) ते कारण माटे (जड़ के ० ) जो ( अप्पाणं के०) आत्माने (मुणसि के०) जाणे छे, तो (तत्तो के०) ते ऋद्धिआदिक थकी (विरमसु के ० ) विराम पाम. | अर्थात् निवृत्ति पाम ॥२५॥ 2010_05 भावार्थ- हे आत्मन्! संसारने विषे अनादि कालथी भ्रमण करतां आ जीवे देव मनुष्यादिकनी सर्वे समृद्धियो पामी छे, तथा सर्वनी साधे पोतानो माता पिता भाई भार्यादिक संबंध जोडायो छे; माटे तेमां तहारे मोह राखवो | घटतो नथी. केम के, जे स्त्री छे, ते पराभवनुं स्थानक छे, तथा जे बंधुजन छे, तेज बंधन छे. तथा जे विषयसुख छे, | तेज विष छे. (झेर छे.) ए प्रकारे जे तहारा शत्रु छे, तेनेज तुं मित्र जाणीने तेने विषे मोह राखीने बेठो छे. ते कारण। माटे एक पोताना आत्म स्वरूपनुंज साधुं सुख मानीने, ते ऋद्धि, स्वजन, इत्यादिकनुं कल्पित सुख मानीने अर्थात् तेने दुःखरूप जाणीने ते सर्व थकी निवृत्ति पाम्य. एक: बन्नाति कर्म एकः वधबंधमरणव्यसनानि एंगो बंधेइ कम्मं ॥ एंगो वहबंधमरणवसणाई || 兆毛毛孔美美美美美 For Private & Personal Use Only भाषांतर सहित 11 8 11 www.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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