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________________ भाषांतर सहित ॥९॥ जीवन भवेर जन्मनि२ मिलिताः देहाः ये त्यक्ताः संसारे वैराग्य जीवेण भवे भवे । मिलियाइ देहाई जोइ संसारे ।। शतकम् तेषां न सागरोपमैः क्रियते संख्या अनंतैः । ॥९३।। ताण नै सागरेहिं । कीरेई संखा अर्णतेहिं ।। ४७ ॥ अर्थ-हे आत्मन् ! (संसार के०) संसारने विषे (जीवण के०) जीव जे तेणे (भवेभो के०) भव भवने विषे | (जाइ के०) जे (देहाइ के०) देह (मिलियाइ के०) मेलव्यां छे, एटले कर्या छे. (नागं के०) ते देहनी (अगंतेहिं के०) JU अनंत एवा (सागरेहिं के०) सागरे करीने. एटले अनंता सागरना पाणीना बिंदुए करीने अथवा अनंता सागरोपम | TM काले करीने पण (सख्या के०) संख्या जे ते (नी के०) नथी (करह के०) करी शकतो. ॥४७॥ भावार्थ-हे प्राणिन् ! जे शरीरने अर्थे तु अनेक प्रकारनां पाप करे छे, देहना स्वरूपनो विचार कर्य के, ते PR केटलां शरीर करी करोने मूकी दीधां छे ? ते देहनी संख्या, अनंता सागरना बिंदुवडे पण थइ सकती नथी, अथवा | अनंता सागरोपमना काले करीने पण थइ शकती नथी. केमके शास्त्रमा का छे के, जीवे जेटलां शरीरनो त्याग JE | कर्यो छे, तेटलां शरीरनो जो ढगलो करीए तो त्रणभूवनमां पण माइ शके नही. केमके, ते शरीर अनंता छे. ते Iodi| कारण माटे हे भव्यजीव! तुं एम विचार कर्य के, जगत्मां देह समान कोइ बीजी अशुची वस्तु प्राये छेज नही. कारण | * आ सागरोपमनु प्रमाण ग्रंथने अंते जणाव्युछे. Jain Education IntemAC010_05 For Private & Personal use only ww.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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