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________________ सा नास्ति कला सत् नास्ति औषधं तत् नास्ति किमपि विज्ञानशिल्प बैराग्य भाषांतर शतकम् सी नस्थि कला ते नैस्थि । उसंह तं नैस्थि किंपि' विनाणं ॥ सहित ॥१८॥ येन धियते कायः खाद्यमानः कालसर्पण जेणे धरिजइ काया । खजंती कालसंप्पेणं ॥ ७ ॥ अर्थ:-हे भव्य जीवो ! [कालसप्पेणं के०] काल रूप सर्प [खनंती के०] खावा मांडेली एवो [काया के०] देह JE / जे ते [जेण के०] जेणे करीने (धरिजइ के०) धारण करीए, अर्थात रक्षा करीए, (सा के०) ते अर्थात् तेवी [कला के०] 15 Jt बहोतेर कला माहिली कोई पण कला [नत्थि के०] नथी (तं के०) ते. अर्थात् तेवु (उसहं के०) औषध [नस्थि के०] RE] नथी. (तं के०) ते अर्थात ते [किंपि के०] कांई पण (विन्नागं के०] विज्ञान. अर्थात् शिल्प चातुरी [नत्यि के०] 25 नथी. अर्थात् पडता शरीरनी रक्षा करे, एवी कोइपण वस्तु नथी. भावार्थः-काल रूप सर्प, आ शरीरनुं भक्षण करो ले छे, ते कालरूप सर्पने निवारण करे एवी कोइ ३६ JE पण कला नथी. तथा काल रूप सर्प दंशैली कायानं झेर उतारवा समर्थ कोड पण औषध नथी, तथा जगतमां अनेक प्रकारनी शिल्प चातुरी छे, पण कोई शिल्प चातुर्य एवं नथी के, जेथी कालरूप सर्पनुं झेर लागेज नहीं. माटे हे are भव्य प्राणियो! मोटा मोटा समर्थ पुरुषोनां वज्र समान शरीरने पण काल रूप सर्प गली गयो छे तो आपणा रांक adl जेवानी काची कायानो श्यो भरुसो ? माटे शीघ्रपणे धर्मकृत्य करी ल्यो. ॥ ७ ॥ Anima LALLALPA For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ___ JainEducation intendan2010_05
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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