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________________ وفیه و भाषांतर सहित ॥ १९ ॥ धराग्य दीर्घफणींद्रएवनाले महीधराएवकेसरे दिशएवमहादले शतकम् दीहरफर्णिंदनाले । महिअकेसर दिसामहदेलिल्ले ॥ ऊ इतिपश्चात्तापे पिवति कालएवभ्रमरः जना एव मकरंदं पृथ्वी एव कमले पीअई कालभैमरो । जणमयरंद पुहविर्ष उमे ॥ ८॥ अर्थ:-(ओ के०) ओ इति खेदे ! एटले आ घणी खेदकारक वार्ता छे. अर्थात् आ वात जे न जाणे तेने पश्चाचाप घणो थाय छे. (काल भमरो के०) कालरूप भ्रमर जे ते (दोहर के०) दीर्घ एटले महोटुं (फणिंदनाले के०) शेषJE नागरूप छे नाल ते जेनुं एवं, ने (महिअर केसर के०) महिधर एटले पर्वत ते रूपले केसरा ते जेने विषे एबु, ने a (दिसा महदलिल्ले के) दिशा रूप छे महोटां पत्र ते जेने विषे एवं [पुहवी पउमे के०] पृथ्वीरूप कमलने विषे । hd [जणमयरंदं के०] जनरूप मकरदने अर्थात् लोकरूप रसने (पीअइ के०) पीए छे. ॥ ८ ॥ Rail भावार्थ:-लोकमां एवी प्रसिद्धि छे के. भमरो कमलमाथी एवी रीते रस ले के, जेथी करीने ते कमलने लगार मात्र इजा न थाय, तेवी रीते पोताने खप जेटलोज मधुर स्वरे बोलीने थोडो थोडो रस ले छे, परंतु आ JE जग्याए तो तेनाशी तमाम उलटी रीते जाणवा जेवूछे; माटे ते वार्तानो विचार करतां भव्य प्राणीओने तो दयाना PE अधिक प्रणामधीं कंपारो छूटया विना रहेज नहीं ! ! जेम के, कालरूप असंतोषी एवो एक भमरो छे, ते पृथ्वीरूप اونجا واقفا للفحة نطن لا اله الا لمسنا فلما سمینان :CANADAAMRAPALALLAULAULABJada Jain Education Internal 1010_05 For Private & Personal use only Jnww.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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