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________________ वैराग्य शतकम् ॥१०७॥ Jain Education Inter उषितं गिरिषु उषितं कंदरासु उषितं समुद्रमध्ये वसिय गिरीसु वर्सियं । दरीषु वर्सियं समुद्दमज्झमि ॥ वृक्षाग्रेषच उषितं संसारे संसरता कदाचित् रुक्ग्गेये वसिय । संसारे संसरणं ॥ ५७ ॥ अर्थ - हे आत्मन् ! (संसारे के०) संसारने विषे (संसरणं के०) पर्यटन करतो एवो जे तुं. तेणे (गिरीसु के ० ) पर्वतो विषे (वसियं के० ) निवास कर्यो छे. तथा (हरी के० ) पर्वतोनी गुफाने विषे पण ( वसियं के ० ) निवास छे, तथा (समुद्रमज्झमि के ० ) समुद्रनी मध्ये (वसियं के० ) निवास कर्यो छे. (य के०) वली क्यारेक (रुक्खगेसु ho) वृक्षना अग्रने विषे (वसिगं के०) निवास कर्यो छे. अर्थात् पूर्वे कहेला सर्व स्थानकोमां तुं अनंतीवार निवास करी आव्यो छे. माटे तहारुं निवास्थान एक ठेकाणे नथी. ॥ ५७ ॥ भावार्थ- कोइ शिष्यने पोताना देशनुं, तथा पोताना गामनुं तथा पोताने रहेवानी ईमारतनुं, तथा पोतानी उत्तम जातिनुं, तथा पोताना प्रसिद्ध कुलनुं, तथा पोताना उत्तम वर्णनुं, इत्यादिक अभिमानने धारण करतो जो इने, गुरु उपदेश करे छे. के. हे शिष्य ! तुं मिथ्या अभिमान शुं करवा करे छे ? परंतु तुं विचार कर के, आ संसारमा भ्रमण करता केलीएक वखत तुं पर्वतने विषे पत्थररूपे थइ आव्यो छे. तथा केलीएक वखत पर्वतनी गुफामां पण सिंहादिक पशुरूपे थइ आव्यो छे, तथा केटलीएक बखत समुद्रने विषे जल जंतु रूपे धड़ आयो छे. 2010 05 For Private & Personal Use Only भाषांतर सहित ॥ १०७॥ ww.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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