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________________ इंगग्य शतकम् याति अनाथः जीवः दुमस्य पुष्पं इव कर्मएवथातस्तेनहतः भाषांतर जाइ अणाहो जीवो। दुम्मस पुष्पं वे कम्मवायहओ ॥ सहित धनधान्याभरणानि गृहस्वजनकुटुंबं मुत्तवापि ॥१०६॥ धणधन्नाहरगाई । घरसर्यण कुटुंब मिल्लेवि ।। ५६ ॥ ॥१०६॥ अर्थ-(अणहो के.) अनाथ एवो, (जीवो के०) जीव जे ते (धणधन्नाहरणाई के०) धन, धान्य, अने आभरणोने | तथा (घरसयणकुडुय के०) घर, स्वजन. अने कुटुंब जे तेमने (मिल्लेवि के०) मूकीने पण (कम्म वाय हओ के०) कर्मरूप वायुए करीने हणायो सतो (दुम्मस के०) वृक्षना (पुप्फ व के०) पुष्पनी पेठे (जाइ के०) जाय छे. अथात् | 5 हेठे पडे छे।। ५६ ।। भावार्थ-जेम वायुथी पराधीन थयेलं पुष्प, थोडीधारमां नीचे पडी जाय छे, तेम आ जीव पण कमें प्रेयर्यो । सतो धन, धान्य, कुटुंब परिवार, घर, हाट, हवेली अने महोटी महोटी ईमारतो, तथा सारां सारां घरेणां इत्यादिक # साह्यबी मूकीने, अनाथ एटले रांक जेवो धइने, नरकादिक दुर्गतिने विषे जाय छे. त्यां गया पछी पूर्वे कहेली कोइ पण वस्तु ते जीवने खप लागती नथी. माटे हे जीव! परिणामे जे वस्तु तहारी साथे नथी आवती, तेवी वस्तु उप- Thd | रथी मोह ममत्वनो त्याग कराने, जे परभवने विषे साथे आवीने सुख करे छे, तेवा ज्ञानदर्शन चारित्रादिक धर्मनु | आराधन कर्य. ॥ ५६ ॥ _JainEducation Interial 2010_05 For Private & Personal use only ॐlwww.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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