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________________ सहित वली आ अधिकारने विशेषे जाणवानी मरजी होयं तो. श्रीभगवतीसत्रमा बारमा शतकना सातमा उद्देशामाथी वैराग्य भाषांतर JE बोकडानुं दृष्टांत जोइ लेजो. ॥४४॥ ॥ आर्याहत्तम् ।। HE|| ४४॥ तत् किमपि नास्ति स्थानं लोके वालाग्रकोटीमात्रमपि तं किंपि नत्थि ठाणं । लोएं वालग्गंकोडिमित्तपि ॥ यत्र न जीवाः बहुशः सुखदुःखपरंपरां प्राप्ताः जस्थ ने जीवा बहसो। सुहदुःखपरंपरं पत्ता ॥२४॥ अर्थ-(जत्थ के०) जे स्थानने विषे (जीवा के०) जीव जे ते (सुह दुख परंपरं के०) सुख दुःखनी परंपराने (बहुसो के०) घणीवार (न पत्ता के०) नथी पाम्या. (तं के०) ते. अर्थात् तेवु (किंपि के०) कोइ पण (लोए के०) लोकने विषे | 1) (वालग्ग के०) वालनो अग्रतेनो (कोडिमित्तंपि के०) प्रांतभाग मात्र पण, अर्थात् किंचित्मात्र पण (ठाणं के०) JE । स्थान जे ते (नस्थि के०) नथी. अर्थात् आ जीव, सर्वे स्थानकमा जइ आव्या छे. ॥२४॥ REL भावार्थ-व्यवहार राशीने पामेला जीवोने अनंतो काल थइ गयो छे, माटे ते जीवोने सर्व जाति आदिकने विषे ३ अनंतीवार उत्पत्ति धइज हशे? एम संभावना करीए छोए. केमके, ए अभिप्राय तो बहुश्रुतनेज गम्य छे. अर्थात् ते Jain Education Intem 2 010-05 For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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